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Saturday, January 23, 2010

भारतीय गुप्तचरी की संस्कृति में परिवर्तन

पिछले हफ्ते उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने रॉ के मुख्यालय में आर एन काव मेमोरियल लेक्चर में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात उठायी। उन्होंने खुफिया एजेंसियों को जिम्मेदारी और संसदीय नियंत्रण में लाने का मसला उठाया। भारतीय खुफिया एजेंसियां अभी इससे मुक्त हैं। खुफिया एजेंसियां अक्सर अपने ऑपरेशंस के मामले में गोपनीयता बरतती हैं, लेकिन विडम्बना है कि वे इस अधिकार का उपयोग अपनी कमियों, अयोग्यताओं और अनियमितताओं को छिपाने में भी करती हैं। हालांकि दुनिया के कई देशों में खुफिया एजेंसियां संसद की निगरानी में काम करती हैं, लेकिन कहीं भी यह बात नहीं उठी कि इससे दिक्कतें आतीं हैं और इस पर दुबारा विचार किया जाय। भारत में भी इसकी कई बार जरूरतें महसूस की गयीं। कई बार इस दिशा में काम भी हुए। आपातकाल के दौरान इंदिराजी ने इस दिशा में पहली बार कदम उठाये, लेकिन बाद में सब कुछ रुक गया। इस रुकने का न जाने क्या कारण था। हो सकता है खुफिया एजेंसियों ने ही विरोध किया हो अथवा राजनीतिक समुदाय ने इसके लिये अनमयस्कता दिखायी हो, क्योंकि संसदीय जवाबदेही के बाद खुफिया संगठनों का राजनीतिक दुरुपयोग जरा मुश्किल हो जायेगा।
जवाबदेही के लिये सबसे जरूरी है कि एजेंसियों के काम काज स्पष्ट तौर पर उल्लिखित हों और उनका कानूनी आधार हो। 1968 के सितम्बर में इंदिराजी के एक शासकीय आदेश के बाद..'रॉ (रिसर्च एण्ड अनैलिसिस विंग).. का गठन हुआ था। आज 42 साल के बाद भी देश की सबसे ताकतवर खुफिया एजेंसी को कानूनी मान्यता नहीं मिल पायी है। यही नहीं इंटेलिजेंस ब्यूरो को अंग्रेजों ने बनाया और यह देश में 1947 से सक्रिय है। सीबीआई का गठन 1947 के बाद हुआ पर उन्हें अब तक संसदीय सूची में शामिल नहीं किया जा सका है।
यह माना जाता है कि गुप्तचर एजेंसियों की कार्य पद्धति पूरी तरह गोपनीय होनी चाहिए और ये एजेंसियाँ जो कुछ करती हैं, उसकी जानकारी केंद्र के स्तर पर प्रधानमंत्री और संबद्ध मंत्रियों तक को ही उपलब्ध होनी चाहिए, जो कि जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं। सीधे संसद का किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। इन एजेंसियों की कार्यप्रणाली का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं होना चाहिए जिस पर सार्वजनिक निगरानी की जरूरत हो। लेकिन उपराष्ट्रपति इससे सहमत नहीं हैं। वे मानते हैं कि कोई गुप्तचर एजेंसी कोई खास ऑपरेशन किस तरह करने जा रही है या उसके पास इस संबंध में क्या-क्या बुनियादी जानकारियाँ हैं, आदि तो गोपनीयता का विषय हो सकते हैं लेकिन जो संसद गुप्तचर कार्यों के लिए धन का आवंटन करती है, उसका यह हक बनता है कि वह पूछे कि उस धन का उपयोग कैसे किया जा रहा है और नतीजे क्या दिए जा रहे हैं।
इसके अलावा उपराष्ट्रपति की राय में गुप्तचर एजेंसियों पर जनप्रतिनिधियों की निगहबानी इसलिए भी जरूरी है कि कहीं ये एजेंसियाँ षड्यंत्र के अड्डे न बन जाएँ या नागरिकों के जनतांत्रिक अधिकारों में हस्तक्षेप न करने लगें। इसलिए अगर ये एजेंसियाँ संसद की स्थायी समिति के प्रति जवाबदेह होंगी तो इनके दुरुपयोग का खतरा कम से कम होगा। उपराष्ट्रपति यह भी मानते हैं कि जनप्रतिनिधियों को इतना गैरजिम्मदार नहीं माना जाना चाहिए कि वे समिति के सामने आने वाली संवेदनशील सूचनाओं को बाहर जाने देंगे। इसके अलावा गुप्तचर एजेंसियों के साथ जब व्यापक विचार-विमर्श होगा तो उनके अधिकारियों की समझ का दायरा भी बढ़ेगा, जो अभी तक राजनीतिक-सैन्य तथा आर्थिक गुप्तचरी तक अपने को सीमित रखे हुए हैं। अभी तक हमारी गुप्तचर एजेंसियों की कार्यप्रणाली सिर्फ ऊपरी ढाँचे को छूती है, नीचे तक नहीं जाती यानी उन्हें सामाजिक वास्तविकताओं का कोई संज्ञान नहीं है।
ऐसा नहीं है कि उपराष्ट्रपति यह बात किसी कल्पनाशील सूझबूझ से कह रहे हैं, वरन अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा समेत कोई एक दर्जन देशों में गुप्तचर एजेंसियों को विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी बनाया गया है जिसके कारण ही उनकी कमियों का विश्लेषण किया जा सका है और आगे सुधारात्मक कदम उठाये जा सके हैं। इसलिए समय की आवश्यकता है कि गुप्तचर एजेंसियों को खुदा या ईश्वर का दर्जा न दिया जाए, जिन पर कोई टिप्पणी करना गुनाह हो। एक आधुनिक, लोकतांत्रिक देश में हर स्तर पर खुलापन जरूरी है। यह खुलापन गुप्तचर एजेंसियों के संदर्भ में कितना हो और किस तरह का हो, इस पर बहस जरूर हो सकती है और होनी भी चाहिए। वैसे जब तक राजनीतिक वर्ग से लगातार दबाव नहीं बनेगा तब चाहे कितने अंसारी आयें या जाएं गुप्तचर एजेंसियों की दशा में सुधार नहीं होगा।

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