भारतीय विदेश सेवा की अफसर माधुरी गुप्ता को पाकिस्तान के लिये जासूसी करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है। माधुरी गुप्ता इस्लामाबाद में भारतीय उच्चायोग में प्रेस एवं सूचना प्रभाग में द्वितीय सचिव थीं। उन्हें दक्षेस सम्मेलन पर परामर्श के बहाने दिल्ली बुलाया गया और हवाई अड्डे पर ही दिल्ली पुलिस ने हिरासत में ले लिया। खुफिया ब्यूरो (आई बी), रिसर्च एण्ड एनालिसिस विंग (रॉ) और दिल्ली पुलिस की संयुक्त टीम की पूछताछ के बाद प्राप्त प्राथमिक जानकारी के आधार पर उन्हें अदालत में पेश कर हिरासत में ले लिया गया। लगता है मीडिया को यहीं से बात पता लगी और उसके बाद चल पड़ी तरह- तरह की कहानियां। वे सब संभवत: गृह मंत्रालय से लीक की गयी सूचनाओं पर आधारित थीं। पिछले कुछ महीनों से शंका हो रही थी कि प्रधानमंत्री पाकिस्तान से समन्वित वार्ता शुरू करना चाहते थे पर विदेश मंत्रालय की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। इस कांड के बाद तो विदेश मंत्रालय के विचारों को और बल मिल गया कि जब तक पाकिस्तान दुश्मनी ना छोड़े तब तक उससे वार्ता व्यर्थ है। माधुरी गुप्ता का मामला बेहद लज्जाजनक है तब भी शायद प्रधानमंत्री इस आधार पर वार्ता का अपना फैसला बदलें, क्योंकि प्रधानमंत्री के फैसले का आधार इस प्रश्न से जुड़ा है कि भारत के खिलाफ आतंकवाद पाकिस्तानी धरती से जरूर है लेकिन पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों की इसमें भूमिका नहीं है और ना ये एजेंसियां भारत में अपने एजेंट बना कर यह सब करवा रहीं हैं। वे 1947 से यह सब कर रहे हैं और हम लोग भी। खुफिया एजेंसियों का काम ही भेद जानना है और इस मुखबिरी के लिये एजेंट तैयार किये ही जाते हैं। भारतीय उच्चायोग में जासूसों की घुसपैठ की यह दूसरी घटना है और बेशक चिंता की बात है पर हमें इस पर ज्यादा छाती पीटने की जरूरत नहीं है। ऐसा कर हम प्रतिगुप्तचरी की अपनी अक्षमता पर ही पर्दा डालेंगे। यहां जरूरत है यह जानने की कि कैसे उसे गुप्तचरों ने अपने में शामिल किया, कैसे उससे काम लेना शुरू किया और क्यों उसने ऐसा किया?
इसके विश्लेषण के लिये तीन प्रश्नों पर विचार करना जरूरी है। पहला कि हमारी प्रतिगुप्तचरी में कमजोरियां कहां हैं जिससे पाकिस्तानी जासूस घुस पाये, दूसरा कि माधुरी ने कितनी हानि पहुंचाई है और तीसरा कि पाकिस्तानी खुफिया संगठनों का इन दिनों काम करने का तरीका क्या है?
माधुरी गुप्ता के पाकिस्तानी एजेंसियों से सम्बंध के इतिहास के बारे में जानकारी नहीं के बराबर है और ना ही यह पूरी तरह मालूम है कि उसने कितनी हानि पहुंचाई है। मीडिया की गरमा गरम खबरों के बीच एक छोटी सी खबर जरूर दिखी कि माधुरी गुप्ता को आई एस आई ने नहीं पाकिस्तानी आई बी ने पटाया था। अगर यह सच है तो इसका मतलब है कि पाकिस्तानी इंटेलिजेंस ब्यूरो (आई बी) को अभी भी भारत और अफगानिस्तान में भारत की भूमिका के बारे में सूचनाएं एकत्र करने की जिम्मेदारी सौंपी हुई है। कुछ दिन पहले तक खबर थी कि आई बी ऐसे मामलों में अब हाथ नहीं डाल रही है और उसका पुलिस चरित्र खत्म हो गया है। हालांकि बेनजीर भुट्टो ने अपने शासन काल में आई बी का पुलिस चरित्र फिर से तैयार करने का प्रयास किया पर आई एस आई ने उसे व्यर्थ कर दिया। अगर माधुरी गुप्ता के मामले में यह खबर सच है तो हमें आई बी पर ध्यान देने की जरूरत है न कि आई एस आई पर। हमारे जासूस आई एस आई को टोहते रहे और मामला हाथ से निकल गया। हमारी प्रति गुप्तचरी की सबसे बड़ी कमजोरी है कि हम विकल्पों के दरवाजे खुला छोड़ देते हैं।
यही नहीं हमारी व्यवस्था में परिपक्वता की भारी कमी है। यह मामला आखिर क्यों उछाला जा रहा है। माधुरी के बारे में मिली जानकारी के अनुसार वह इस्लामाबाद में सेकेंड सेक्रेटरी थी और उसका काम गोपनीय फाइलों से नहीं पड़ता था। वह पाकिस्तानी मीडिया को संभालती थी। वह इस्लामाबाद उच्चायोग में उर्दू अनुवादक थी और वहां के स्थानीय अखबारों की कटिंग काटना उसका काम था। उसकी पहुंच महत्वपूर्ण फाइलों तक थी ही नहीं। लेकिन उसके साथ रॉ के कथित स्टेशन हेड का नाम भी उछाला जा रहा है। किसी जासूस का भेद खुलना उसके लिये मौत के समान होता है, क्योंकि अब वह दुनिया के किसी देश में तैनात नहीं हो सकता और दूसरे उसकी जान के भी हजारों दुश्मन हो जायेंगे। हमारी मीडिया क्यों इतनी गैर जिम्मेदार है। यह बात समझ से परे है।
Friday, April 30, 2010
पाकिस्तानी खुफियागीरी पर ध्यान देने की जरूरत
Posted by pandeyhariram at 5:36 AM 1 comments
Wednesday, April 7, 2010
6/4 : भारत के इतिहास में एक और काला दिवस
6 अप्रैल 2010 : भारत के इतिहास में एक और काला दिवस। यह कालिख विद्रोहियों से निपटने की क्षमता पर पुती है। लगभग 1000 माओवादियों- नक्सलियों के जत्थे ने रोड सुरक्षा से लौटी सी आर पी एफ की टीम पर घात लगाकर हमला किया और 75 जवानों को मौत के घाट उतार दिया। इनके अलावा दंतेवाड़ा जिले का एक पुलिस कर्मी भी मारा गया। हमलावरों ने पहाड़ी पर मोर्चा लगाया था। अब यह नहीं मालूम हो सका कि सी आर पी एफ के जवान जिस राह से जा रहे थे वह वस्तुत: पक्की सड़क थी या मोटर चलने लायक जंगली सड़क। जिस तरह से यह हमला हुआ और जिस परिमाण में नक्सली एकत्र हुये थे उससे साफ लगता है कि उन्हें सी आर पी एफ की गतिविधियों के बारे में पूरी जानकारी थी। विद्रोहियों के शमन की कार्रवाई के अंतर्गत पुलिस या सुरक्षा बलों को सबसे पहला अहतियात यह है कि किसी भी ऑपरेशनल इलाके में जाने के बाद कभी भी उस पथ का अनुसरण ना करें जिससे गये थे। हमले का शिकार हुए सी आर पी एफ के दल ने इस साधारण नियम का भी पालन नहीं किया। अब इसका कारण चाहे लापरवाही हो या माओवाद प्रभावित इलाके में विकास के अभाव में सड़कों की कमी हो। अबसे कोई दो साल पहले की घटना है कि आंध्र प्रदेश पुलिस का एक दल नौका से उड़ीसा गया था। माओवादियों ने भांप लिया कि वह दल उसी रास्ते लौट रहा है जिस राह गया था। बस क्या था उन्होंने हमला कर 50 पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दिया। हमने नदी में घटी उस घटना से कुछ नहीं सीखा और सड़क पर उसकी पुनरावृत्ति हो गयी। विद्रोहियों से निपटने के लिये बनाये गये नियमों का पालन तक नहीं कर पा रहे हैं ये सी आर पी एफ के जवान। सी आर पीएफ और जिला पुलिस वालों को बिना सड़क और बिना बेतार संचार के माओवाद प्रभावित इलाकों में ऐसे काम करने होते हैं जिसमें कभी प्रशंसा मिलने से रही। माओवादियों को जंगलों के रास्ते दूर- दूर तक पैदल चलने की आदत है जबकि हमारे सुरक्षा कर्मी मोटरों पर चलते हैं लिहाजा उनकी जल्द और आसानी से शिनाख्त हो सकती है। माओवादी उनपर विस्फोटकों और बारूदी सुरंगों से औचक हमला करते हैं और फिर बाकी बचे लोगों पर छोटे हथियारों से कहर ढा देते र्है। ऐसा शायद ही सुनने को मिला है कि माओवादियों के घेरे में फंसने के बाद कोई सुरक्षाकर्मी दल बच कर आ सका हो। ग्रामीण पुलिस व्यवस्था की अपनी मजबूरियां हैं और जिला पुलिस के नक्सली गिरोहों में घुसपैठ कर पाने में पुलिस की नाकामयाबी की अपनी कहानी है। विद्रोहियों को कुचलने में जुटी व्यवस्था के लिये सबसे जरूरी है ग्रामीण खुफियागिरी और माओवादियों की गतिविधियों पर निगाह रखने के लिये हेलीकॉप्टर से पेट्रोलिंग। इन नक्सलियों के पास भारी मात्रा में हथियार और गोला-बारूद है और साफ है कि नक्सलियों ने न केवल अपनी संगठित और बड़ी सेना बना ली है, बल्कि उन्हें जंगल वारफेयर में या जंगल में युद्ध लडऩे में भी महारत हासिल है। केंद्र और छत्तीसगढ़ सरकार को यहाँ तक मालूम नहीं कि एक हजार लोगों की इस नक्सली सेना को हथियार कहाँ से मिल रहे हैं। इसलिए यह कहना वाजिब होगा कि सरकार को नक्सलियों की असल ताकत का आभास तक नहीं था। जो प्रारंभिक तस्वीर उभर रही है, वह बताती है कि नक्सलियों ने अपने को कहीं तमिल मुक्ति चीतों (लिट्टे) की तरह तो संगठित नहीं कर लिया है? कहीं यह एक अपरिभाषित से गृहयुद्ध की दस्तक तो नहीं है? यदि सरकार को ऐसा जरा-सा भी संदेह लग रहा हो तो उसे अपनी लड़ाई को आमूल-चूल बदलना होगा और इन इलाकों में ऐसे लोगों को भेजना होगा, जो जंगल वारफेयर में दक्ष हों। उन्हें आधुनिकतम हथियार उपलब्ध कराने होंगे। आदिवासियों के हक की यह लड़ाई बंदूक के बल पर सत्ता परिवर्तन की लड़ाई के रूप में कहीं बदल तो नहीं रही है? ऐसा ही नेपाल में हो चुका है और नेपाली माओवादियों के साथ भारत के माओवादियों के सक्रिय संबंध रहे हैं। अतीत में भी उन्होंने अन्यत्र संघर्ष विराम के मौके का लाभ अपने को फिर से संगठित करने में किया है। सरकार एक मोटी-मोटी राजनीतिक सर्वानुमति बनाकर इस समस्या से निपटने के लिए जो भी उचित हो तत्काल करे। हां, यह ध्यान रखा जाए कि निर्दोष आबादी की जान-माल का नुकसान न हो।
Posted by pandeyhariram at 6:03 AM 0 comments
Monday, April 5, 2010
फंस गया है भारत
भारत और चीन में कूटनीतिक सम्बंधों के 60 वर्ष पूरे होने के अवसर पर दोनों देशों ने 6 माह के कार्यक्रम की शुरूआत की है। विदेश मंत्री श्री एस एम कृष्णा इसमें शामिल होने के लिये चीन पहुंच चुके हैं। इस मौके पर हम भूल गये हैं (फिलहाल ही सही) कि पिछले साल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपनी पार्टी के चुनाव के दौरान प्रचार के लिये जब अरुणाचल गये थे तो चीन ने क्या कहा था और यह भी भूल गये हैं कि परमपावन दलाई लामा जब स्थानीय लोगों के बुलावे पर अरुणाचल प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्र तवांग की यात्रा पर गये थे तो चीन ने कितना जहर उगला था। चीन अरुणाचल प्रदेश को अपना इलाका मानता है और इसे दक्षिणी तिब्बत कहता है। उसका कहना है वर्तमान सीमावार्ता के तहत अरुणाचल नहीं तो कम से कम तवांग उसे सौंप दिया जाय। चीनियों की याददाश्त बहुत गहरी है और वे नहीं भूले हैं कि लगभग सभी दलाई लामाओं का जन्म तवांग में ही हुआ है और वर्तमान दलाई लामा 1959 में निर्वासन के समय तवांग इलाके में ही आये थे। चीन ने साफ कह दिया है कि जब तक भारत कम से कम तवांग को चीन के हवाले नहीं करता है कोई सीमा समझौता नहीं हो सकता है। अगर भारत ऐसा करता है तो उस आबादी का पलायन होगा। भारत की कोई भी सरकार चाहे कितने भी बहुमत से जीत कर आयी हो चीन के पक्ष में संसद को इस काम के लिये तैयार नहीं कर सकती। पिछले साल चीन की भारत विरोधी गतिविधियों की खबर लगातार आती रही। कभी खबर आती कि वह तिब्बत में अपनी फौज बढ़ा रहा है तो कभी सुना जाता कि उसका गश्ती दल भारतीय सीमा में घुसकर ना केवल अपने निशान बना जाता था तो कभी सुनने में आता कि वह भारतीय सीमा में पत्थरों में कुछ लिख दे रही है। विपक्षी दलों की बारी छीछालेदर के बावजूद भारत सीमा पर ढांचागत सुधारों के मामले में चीन से बहुत पीछे है। चीन में गैरसरकारी वेबसाइटों और ब्लॉग्स पर अकसर चर्चा देखा गया है कि जरूरी होने पर भारत को केसे सबक सिखाया जा सकता है। इसमें 1962 की अपमानजनक पराजय जैसा विकल्प भी शामिल है। भारत को विखंडित करने के लिये यहां चल रहे अलगाववादी आंदोलनों को मदद देने पर भी उन स्रोतों द्वारा विचार किया गया है। चीन ना केवल सीमावर्ती क्षेत्रों में सक्रिय है बल्कि वह भारत के आसपास के इलाकों में भी बराबर रूप से सक्रिय है। दक्षिण एशिया के कई देशों के प्रति भारत के मन में अविश्वास तथा शंका है। इसका लाभ उठा कर वह उन देशों में अपनी जड़ें जमा चुका है। पाकिस्तान के बलोच इलाके में व्यवसायिक बंदरगाह बनाने के बाद वह अब भारत की ओर तनी परमाणु मिसाइलों को और विकसित करने में मदद कर रहा है। श्रीलंका में तमिल मुक्ति चीतों को कुचलने के लिये चीन ने वहां की सरकार को हथियार देकर उसका मन जीत लिया। मालदीव में भी चीनी सैलानियों की आवक बढ़ी है और वहां उनकी जरूरियात को पूरा करने के लिये उसने एक बैंक भी खोल दिया है। बांग्लादेश में भी उसने घुसपैठ की है। हसीना सरकार की भारत से गहरी मित्रता के बावजूद वहां के विकास के कार्यों में भारत की कोई भूमिका नहीं है लेकिन चीन से उसने तेल और गैस की तलाश का समझौता किया है। यही नहीं म्यांमार की अराकान पहाडिय़ों से चीन के युनान प्रांत को जोडऩे के लिये बंगलादेश होकर सड़क बनाने की योजना है। अगर बंगलादेश में तेल या गैस मिल गया तो चीन की वहां स्थिति मजबूत हो जायेगी यही नहीं नेपाल में भी वह नेपाली सड़कों को तिब्बत से जोडऩे और ल्हासा रेल लाइन को नेपाल तक बढ़ाने की संभावनाओं पर विचार कर रहा है।
इस तरह से भारत के चारों तरफ अपनी फौज को लाने ले जाने के लिये सुविधाएं तैयार कर रहा है। उसकी योजनाएं दीर्घकालिक हैं। जबकि भारत की योजनाएं तदर्थ हैं और उसकी कार्रवाई अचानक नींद से जागे इंसान की भांति होती है। भारत का पहले से ही दक्षिण एशिया में बहुत प्रभाव नहीं है और चीन की घुसपैठ से वह भी खत्म हो रहा है। भारत को उसके मुकाबले के लिये बहुत कुछ करना होगा। साठ साल पूरे होने के अवसर पर आयोजित जलसे में जो मीठी मीठी बातें होंगी वह कड़वी सच्चाई पर परदा नहीं डाल सकती। भारत फंस गया है।
Posted by pandeyhariram at 1:51 AM 0 comments
Sunday, April 4, 2010
रेल रोकने वालों का विरोध जरूरी
कोलकाता से फकत 39 कि.मी. दूर बामनगाछी स्टेशन पर शुक्रवार को कुछ राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने कुछ अपराधियों को गिरफ्तार करने की मांग को लेकर रेल रोक दी थी। उसी में रुक गयी वह ट्रेन भी जिसमें एक बाप अपने अबोध बेटे को लेकर इलाज कराने अस्पताल जा रहा था। बच्चे की तबीयत बिगड़ती जा रही थी। वह पथावरोध करने वालों से गिड़गिड़ाया रोया पर उसकी किसी ने नहीं सुनी। उस आदमी ने रेल यात्रियों से गुहार लगायी और यात्री उसके समर्थन में खड़े हो गये। यह देखना था कि प्रदर्शनकारी भाग निकले।
यह घटना राजनीतिक मनमानी के विरोध का मुकममल संकेत है। इसे अगर अपना लिया जाय तो इस प्रकार की घटनाएं कम होंगी। यह सोचना जरूरी है कि पहिए या चक्के का सीधा रिश्ता विकास से है। चाहे वह रेल का पहिया हो, कार, स्कूटर, ट्रक, बस आदि किसी वाहन का पहिया हो या फिर किसी मशीनरी का कोई चक्का या पहियारूपी कल पुर्जा। ऐसा माना जाता है कि इन सभी पहियों या चक्कों के निरंतर घूमते रहने अथवा अधिक से अधिक घूमने या निर्धारित अवधि या सीमा तक घूमने पर ही पूरे देश के विकास का दारोमदर है। ठीक इसके विपरीत यह भी माना जाता है कि यदि देश की प्रगति व विकास के प्रतीक इस पहिए या चक्के को रोका गया तो मानो देश का विकास बाधित हो गया।
परंतु राजनीतिक अधिकारों के नाम पर किसी को सुध नहीं रहती है कि उन्हें ऐसे किसी विरोध प्रदर्शन का आयोजन अथवा नेतृत्व नहीं करना चाहिए जो कि देश के विकास को बाधित करने वाला हो। आज आक्रामकता तो लगता है भारतीय राजनीति में सफलता का पैमाना बन चुका है। या इस प्रकार की गैर कानूनी गतिविधियां व गैर कानूनी प्रदर्शन गोया भारतीय राजनीति में फैशन के रूप में अपनी जगह बना चुके हैं। ऐसे विरोध प्रदर्शनों में भी न तो नेताओं का कुछ बिगड़ता है और न ही सरकार का, बल्कि दुर्भाग्यवश यहां भी आम आदमी ही इन सब अव्यवस्थाओं से सबसे अधिक प्रभावित होता है।
इस प्रकरण में एक और सबसे बड़ी आश्चर्यजनक बात यह है कि ऐसे विकास विरोधी कहे जा सकने वाले प्रदर्शनों या चक्का जाम का नेतृत्व करने वाला नेता स्वयं को किसी बड़े महारथी से कम नहीं समझता। कोई राष्ट्रभक्त, बिरादरी भक्त, समुदाय विशेष का देशभक्त रहनुमा जो कि सीमित समाज में अपनी चौधराहट बरकरार रखने के लिए देश को होने वाली इस क्षतिपूर्ति के लिए न तो सामने आता है न ही इस क्षतिपूर्ति के उपाय बताता है। बजाए इसके यह तथाकथित राष्ट्रभक्त नेता इस प्रकार की क्षति देश को पहुंचाने जैसे कारनामों को शायद अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं।
विरोध प्रदर्शनों तथा जाम आदि की सबसे पहली शिकार या तो रेल होती है या देश के राजमार्ग। गोया हम कह सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था को ठेस पहुंचाने वाले आक्रामक विरोध प्रदर्शन संभवत: भारतीय राजनीति विशेषकर विपक्ष की राजनीति का एक प्रमुख अंग बन चुके हैं। हमारे देश के विरोध प्रदर्शंन, चक्का जाम या तालाबंदी किस हद तक जाती है यह भी हम सभी प्राय: देखते व सुनते रहते हैं। फैक्ट्री हो या परिवहन व्यवस्था या रेलगाडिय़ां या रेल पटरियां। हमारे देश के बहादुर प्रदर्शनकारी तो गोया देश की इन संपत्तियों को तोडऩे- फोडऩे तथा इन्हें जलाने में कुछ अधिक राहत एवं संतुष्टि महसूस करता है। प्राय: यह भी देखा गया है कि ऐसे जाम व प्रदर्शन का नेतृत्व करने वाले नेता ऐसे विरोध प्रदर्शन का प्रयोग अपने राजनैतिक भविष्य हेतु एक अवसर के रूप में करने से नहीं हिचकिचाते। बहरहाल भारतीय राजनीति का यह विशेष अंदाज हमारे देश की राजनैतिक व्यवस्था में अपनी जड़ें गहरी कर चुका है। मुट्ठी भर लोगों को साथ लेकर देश की यातायात, परिवहन, रेल व्यवस्था अथवा कल कारखानों को रोक देना संभवत: भारतीय राजनीति में भाग ले रहे ऐसे नेताओं की नियति में शामिल हो चुका है। इनका भी जवाब भारतीय मतदाताओं के पास ही है। जनता सर्वप्रथम यह महसूस करे कि चक्का जाम की राजनीति आम आदमी के लिए लाभदायक है या देश के विकास के लिए बाधक? उसके बाद ऐसी गतिविधियों में शामिल नेताओं से भारतीय लोकतंत्र के चुनावी महापर्व में अपना हिसाब-किताब चुकता करे। जनता यह महसूस करे कि देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाला नेता वास्तव में 'हीरो या 'शहीद नहीं बल्कि वह भी देश के विकास का दुश्मन है। जनता को चाहिये उनसे उसी तरह का आचरण करे।
Posted by pandeyhariram at 2:23 AM 1 comments
Thursday, April 1, 2010
एक एस एम एस और दहल उठेगा पूरा भारत
हरिराम पाण्डेय
आई एस आई और लश्कर की खतरनाक साजिश, नया संगठन बनाया गया कोलकाता : जिहादियों ने इस बार हमले की ऐसी रणनीति बनायी है कि अगर वह सफल हो गयी तो सरकार और सुरक्षा एजेंसियों को काफी करारा झटका लगेगा। गोपनीय सूत्रों के अनुसार, वे कुछ खास लोगों के मोबाइल का सिम बना रहे हैं, जिसका उपयोग पेंटा एथिनो ट्राई नाईट्रोल(पी ई टी एम) - डर्टी बम में एक्टिवेटर में लगे एक अन्य सिम कार्ड को एक्टिवेट करने के लिये किया जायेगा। उन्होंने अपनी योजना को कार्यरूप देने के लिये मई के मध्य का समय चुना है, क्योंकि जितनी तेज हवायें होंगी बम का प्रभाव उतना ज्यादा होगा। उन्होंने एक साथ दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता, वाराणसी, चेन्नई, बेंगलूर, हैदराबाद, अहमदाबाद और जयपुर में विस्फोट की योजना बनायी है। सभी स्थानों पर लगाये गये सभी बमों में एक ही नम्बर के क्लोन सिम होंगे और उन्हें एक साथ एस एम एस भेज कर विस्फोट करा दिया जायेगा।
जिहादी कोलकाता के कुछ बड़े अफसरों, नेताओं और व्यापारियों के इंटरनेशनल मोबाइल सब्सक्राइबर आइडेंटिफायर (आई एम एस आई) नम्बर तथा ऑथेंटिकेशन की (के आई) नम्बर पता करने में जुटे हैं। इन नम्बरों को ई मेल के जरिये भेज दिया जा रहा है। यह जिम्मेदारी युवकों और छात्रों को जोड़ कर बनाये गये नये संगठन 'वाहदात- ए- इस्लाम को सौंपी गयी है। यह संगठन प्रतिबंधित संगठन इस्लामिक स्टूडेंट मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) के अधिकांश सदस्यों को लेकर बनाया गया है। चूंकि ये लोग यहां के स्थानीय हैं और कहीं भी आने -जाने में पाबंदी नहीं है। ये लोग अलग -अलग वाहनों में सुबह 10 बजे से शाम के पांच बजे तक घूमते रहते हैं। उनकी गाडिय़ों में एक खास किस्म का एंटीना लगा होता है, जो 10 मीटर तक की दूरी पर मोबाइल के बातचीत के लिये ऑन होते ही उसके सिग्नल को रिसीव करता है और उस एंटीना से जुड़े लैपटॉप कम्प्यूटर में उसके नम्बर और कई विवरण आ जाते हैं। उस लैपटॉप में लगे सॉफ्टवेयर की मदद से वे युवक उस फोन का मोबाइल सब्सक्राइबर आइडेंटिफायर (आई एम एस आई) नम्बर तथा ऑथेंटिकेशन की (के आई) नम्बर जान लेते हैं और उसे तत्काल ई मेल कर देते हैं। ई मेल को पाने वाला उन नम्बरों की मदद से उसी मोबाइल फोन का इच्छित संख्या में नया सिम तैयार कर लेता है। इसे क्लोन कहते हैं। इस सिम की खूबी होती है कि इससे कॉल नहीं किया जा सकता है पर एस एम एस भेजा जा सकता है और रिसीव किया जा सकता है। वह एस एम एस मूल सिम वाले फोन के खाते में दर्ज होगा। यानी, जब विवरण खोजा जायेगा तो पता चलेगा कि जिसके नाम से मोबाइल है, उसी ने यह एस एम एस किया है अथवा प्राप्त किया है। अब डर्टी बम में इसी तरह के एक सिम वाला एक्टीवेटर लगा रहता है। जैसे ही वह एस एम एस प्राप्त करता है एक्टिवेट हो जाता है। एक्टिवेट होते ही बम फट पड़ता है।
क्या है डर्टी बम : यह एक रेडियो धर्मी हथियार है और इससे होने वाले विकिरण से भारी क्षति होती है। विशेषज्ञों के अनुसार 2 औंस सीजियम 137 से बना एक बम पूरे बड़ाबाजार जैसे इलाके को रिहाइश के अयोग्य बना देगा। इसे दुबारा रहने लायक बनाने में कई बरस लग जायेंगे और अरबों रुपये खर्च होंगे। 2 औंस सीजियम- 137 में लगभग 3500 क्यूरी रेडियोधर्मिता पैदा होती है, जबकि कुछ दर्जन क्यूरी ही भारी विनाश के लिये काफी है। सीजियम- 137 या उस स्तर के रेडियोधर्मी पदार्थ एक्स रे मशीनों और डाक्टरी के काम आने वाली अन्य रेडियोलॉजिकल मशीनों में पाये जाते हैं। विस्फोट जितना जोरदार होगा और उस समय हवा जितनी तेज होगी इसकी रेडियोधर्मिता का विस्तार उतना ज्यादा होगा। इस विस्फोट से मृत्युदर बहुत कम होती है। विस्फोट की चपेट में आकर जो मर गये वही संख्या अधिक होगी। इसीलिये इसमें पेंटा एथिनो ट्राई नाईट्रोल (पी ई टी एम) जैसे खतरनाक विस्फोटक का उपयोग किया जाता है। इन्होंने मई का महीना इसलिये चुना है कि उस समय हवा में नमी नाममात्र होती है और हवाएं औसतन 16-18 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलती हैं। ऐसी स्थिति में इसका प्रभाव भयानक होगा।
सूत्रों के अनुसार इनकी योजना हर शहर में सात या आठ विस्फोट कराने की है और इसके लिये कम से कम दो सौ लोगों की जरूरत है। सिमी को छोड़ कर एक साथ इतने शहरों में इस संख्या में लोग कोई मुहैय्या नहीं करा सकता है। इसी उद्देश्य से पाकिस्तान की कुख्यात खुफिया एजेंसी आई एस आई तथा लश्कर -ए- तय्यबा के सहयोग से नया संगठन बनाया गया है।
Posted by pandeyhariram at 1:23 AM 0 comments