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Thursday, August 23, 2012

लोकचेतना को भ्रष्टï होने से रोके मीडिया



23.8
हरिराम पाण्डेय
विख्यात चिंतक एवं वेदवेत्ता डॉ. उमाकांत उपाध्याय ने सन्मार्ग को टेलीफोन कर सामाजिक विपर्यय और राष्टï्र भावना शून्यता पर भारी क्षोभ जाहिर किया और कहा कि भारतीयों के संस्कारों को जिनेटिकली भ्रष्टï करने का षड्यंत्र चल रहा है। उन्होंने उसे रोकने के लिये मीडिया से अनुरोध किया। वस्तुत: यह चिंता का विषय है क्योंकि भारत राष्टï्र वसुधा पर ऐसी संस्कृति का संवाहक है जो प्रेम, करुणा, संवेदना के भावों से भरा है और समूची मानवता के कल्याण की बात करता है। ऐसी महान संस्कृति हमारे लिए प्रेरणा का कारण होनी चाहिए। किंतु गुलामी के लंबे काल खंड और विदेशी विचारों ने हमारे गौरव ग्रंथों व मान बिंदुओं पर गर्द की चादर डाल दी। इस पूरे दृश्य को इतना धुंधला कर दिया गया कि हमें अपने गौरव का, मान का, ज्ञान का आदर ही न रहा। यह हर क्षेत्र में हुआ। हर क्षेत्र को विदेशी नजरों से देखा जाने लगा। हमारे अपने पैमाने और मानक भोथरे बना दिये गये। स्वामी विवेकानंद उसी स्वाभिमान को जगाने की बात करते हैं। महात्मा गांधी से जयप्रकाश नारायण तक ने हमें उसी स्वत्व की याद दिलायी। सोते हुए भारत को जगाने और झकझोरने का काम किया। ऐसे समय में जब एक बार फिर हमें अपने स्वत्व के पुन: स्मरण की जरूरत है तो पत्रकारिता बड़ा साधन बन सकती है। भारत के संदर्भ में पत्रकारिता लोकजागरण का ही अनुष्ठान है। स्वाधीनता आंदोलन के दौर में ही देश में तेजी से पत्रकारिता का विकास हुआ। देशभक्ति, जनजागरण और समाज सुधार के भाव इसकी जड़ों में हैं। आजादी के बाद इसमें कुछ बदलाव आये और आज इस पर बाजारवादी शक्तियों का काफी प्रभाव दिख रहा है। फिर भी सबसे प्रभावशाली संचार माध्यम होने के नाते मीडिया की भूमिका पर विचार करना होगा। तय करना होगा किस तरह मीडिया लोक संस्कारों को पुष्ट करते हुए अपनी जड़ों से जुड़ा रह सके। साहित्य हो या मीडिया, दोनों का काम है - लोकमंगल । राजनीति का भी यही काम है। लोकमंगल सबका ध्येय है। लोकतंत्र का भी यही उद्देश्य है। संकट तब खड़ा होता है जब लोक नजरों से ओझल हो जाता है। लोक हमारे संस्कारों का प्रवक्ता है। वह बताता है कि क्या करने योग्य है और क्या नहीं। इसलिए लोकमानस की मान्यताएं ही हमें संस्कारों से जोड़ती हैं और इसी से हमारी संस्कृति पुष्ट होती है। मीडिया दरअसल ऐसी ताकत के रूप में उभरा है जो प्रभु वर्ग की वाणी बन रहा है, जबकि मीडिया की पारंपरिक संस्कृति और इतिहास इसे आम आदमी की वाणी बनने की सीख देते हैं। समय के प्रवाह में समाज जीवन के हर क्षेत्र में गिरावट दिख रही है। किंतु मीडिया के प्रभाव के मद्देनजर इसकी भूमिका बड़ी है। उसे लोक का प्रवक्ता होना चाहिए ऐसे में इसकी सकारात्मक भूमिका पर विचार जरूरी है। भारतीय संस्कृति में सामाजिक संवाद की अनेक धाराएं हैं, परंपराएं हैं। हमें उन पर ध्यान देने की जरूरत है। मीडिया इसी संवाद का केंद्र है। वह हमें भाषा भी सिखाता है और जीवन शैली भी प्रभावित करता है। खासकर दृश्य मीडिया पर आज जैसी भाषा बोली और कही जा रही है, उससे सुसंवाद कायम नहीं होता, बल्कि तनाव बढ़ता है। असम की घटना के बाद देश भर में जो हुआ वह इसका प्रमाण है। हमारे जनमाध्यम ही समाज में मची होड़ और हड़बड़ी को सहज संवाद में बदल सकते हैं, लेकिन बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह लोक को नष्ट करने का षड्यंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं। इसे बचाने के लिए, संरक्षित करने के लिए और इसके विकास के लिए समाज और मीडिया दोनों को साथ आना होगा। तभी हमारे गांव बचेंगे, लोक बचेगा और लोक बच गया तो संस्कृति बचेगी।

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