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Saturday, September 19, 2009

वाममोर्चे को एक और झटका

पश्चिम बंगाल में माकपा सत्ता में तो है पर उसका अधिकार छीजता जा रहा है। सिलीगुड़ी नगर निगम के चुनाव के नतीजों को देखकर अजीब विभ्रम की स्थिति पैदा होती जा रही है। सियासी हवा का रुख समझ में नहीं आ रहा है। चुनाव के नतीजे यदि अब तक के चुनावों के कारण राज्य के राजनीतिक सोच के खास रुख की ओर इशारा करते हैं तो वर्तमान चुनाव राज्य की ताजा मनोस्थिति के बारे में भी बताता है। अगर इसी चश्मे से सिलीगुड़ी के चुनाव परिणामों की समीक्षा करें तो महसूस होगा कि राज्य में वाममोर्चे का आधार कमजोर होता जा रहा है, लेकिन शायद कट्टर माक्र्सवादी और पार्टी के काडर इस पराजय को आसानी से से स्वीकार नहीं करेंगे। वाममोर्चा की स्तम्भित कर देने वाली इस पराजय के तीन कारण हैं। राज्य भर के आबादी के अनुपातों से अलग सिलीगुड़ी में पूर्ववर्ती पूर्व पाकिस्तान और वर्तमान बंगलादेश के हिंदू शरणार्थियों की संख्या कुछ ज्यादा ही है। ये लोग पारम्परिक तौर पर वाममोर्चे या ऐसा कहें माकपा के वोटर हैं, क्योंकि इन्हें यकीन है कि कांग्रेस शरणार्थी मसलों को लेकर थोड़ा कठोर है और मुस्लिमों के मामले में ज्यादा ही नरम। दूसरा कि सिलीगुड़ी और डुआर्स चाय उत्पादक क्षेत्र हैं और यहां आरंभिक दिनों से माकपा का वर्चस्व रहा है। तीसरा कि यह राज्य का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र है और माकपा का व्यावसायियों पर प्रभाव रहा है और इससे हमेशा उन्हें चुनाव में लाभ मिला है। ... और पार्टी यहीं से यानी अपनी 'कोर कंस्टीटृ्येंसी में हार गयी। माकपा की यह पराजय लोकसभा चुनाव की पराजय के बाद हुई है। हालांकि वाममोर्चा राज्य में सत्ता में है लेकिन उसका प्रभाव क्षेत्र बड़े नाटकीय ढंग से सिकुड़ रहा है और विपक्षी दल का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। संक्षेप में अब वाममोर्चे का प्रभाव मिटता जा रहा है और इसके बिना उसका नियंत्रण खत्म हो जायेगा और यह सचिवालय (राइटर्स बिल्डिंग) में ही कैद हो कर रह जायेगा। माकपा को यह हकीकत मालूम है इसलिये उसने मतदाताओं में विश्वास बढ़ाने के अपने प्रयासों को छोड़ दिया। 30 वर्षों से सत्ता में बने रहने के कारण पार्टी में हरारत आ गयी है और सियासी तौर पर इसका दिवाला निकल गया है। मंत्रिगण अब समय काट रहे हैं और मुख्य मंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य पार्टी की बैठकों से गायब रहने लगे हैं। इससे वाममोर्चे को हानि हुई और ममता बनर्जी को लाभ। वाममोर्चे का 2011 तक सत्ता में रहना हे और उस समय विधानसभा चुनाव होंगे और पूरी आशंका है कि पार्टी हार जायेगी। गद्दी छोडऩे का माकपा के पास सबसे अच्छा विकल्प है कि वह मध्यावधि चुनाव करवा दे। यह नैतिक रूप से अच्छा होगा।

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