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Wednesday, February 23, 2011

कसाब को फांसी लगे ही तो क्या होगा?



अजमल कसाब को फांसी दी ही जायेगी, यह तय है। लेकिन कब तक यह नहीं तय है। अभी तक अफजल गुरु के गले में फंदा नहीं पड़ सका। फांसी का फंदा डालने में इतनी तकनीकी गलियां हैं कि कम से कम दस साल तो वह जेल में भारतीय जनता के टैक्स की रोटियां तोड़ता रहेगा। क्योंकि पिछले दिनों कसाब की फांसी को लेकर किसी के प्रश्र पर माननीय गृह मंत्री ने कहा था कि कसाब की मर्सी पिटिशन पर 50 लोगों की याचिका के बाद ही विचार किया जाएगा। आखिर क्यों? पूरे देश की भावना को ताक पर रखकर कानून की दुहाई क्यों दी जा रही है? क्या सांसदों और मंत्रियों को अपना वेतन बढ़वाने के लिए अनिश्चितकाल तक राष्ट्रपति के दस्तखत का इंतजार करना पड़ता है? जब आतंकवादी इतना बड़ा कदम उठा सकते हैं तो क्या हम एक छोटा कदम भी नहीं उठा सकते कि किसी सुनसान में कसाब को पहले ही 'ठोंकÓ दिया जाता। सारा झगड़ïा ही खत्म। लेकिन ऐसा नहीं करके देश की समस्त भावना को ताक पर रख कानून की गलियों में सरकार उलझी पड़ी है। इसके बावजूद इस बात की गारंटी कौन लेगा कि कसाब को फांसी देने से पहले ही उसे छुड़ाने के लिए कोई प्लेन हाइजैक नहीं हो जाएगा, किसी जिले के डी एम या एस पी या किसी राज्य के मंत्री का अपहरण नहीं हो जायेगा? यहां यह लिखना लोकतंत्र की तौहीन और हो सकता है कानून का उल्लंघन माना जाय पर जन भावना की मांग तो यह है कि कसाब को उसी जगह पर पत्थर मार कर खत्म कर दिया जाय जहां उसने निर्दोष लोगों को गोलियों से भून डाला था।
अफजल गुरु जैसे अन्य आतंकियों की तरह कसाब ज्यादा दिन तक बच भी नहीं पाएगा। क्योंकि इस बार सरकार जनता के गुस्से की अनदेखी नहीं कर सकती। उसके गले में फांसी का फंदा कसने में सरकारी तंत्र हीला-हवाली करेगा इसमें भी कोई शक नहीं है। लेकिन इस गुस्से के बावजूद जरा ठंडे दिमाग से सोचें। कसाब तो आतंक के नाले का एक मामूली कीड़ा है। कीड़े को तो हम अपने पैरों तले दबा देंगे लेकिन क्या उससे नाले का बहना रुक जाएगा? एक कसाब मरेगा तो हजारों और पैदा हो जाएंगे। वैसे भी कसाब तो आतंक के 'हॉल ऑफ फेमÓ में दाखिल हो ही गया है। कड़वी सच्चाई यह है कि हम आतंक के पेड़ की जड़ में म_ा डालना तो दूर, उसकी शाखों को भी नहीं कतर पाते। इतिहास जो भी रहा हो, लेकिन 60 साल में हम कोई ऐसा रास्ता नहीं निकाल पाए कि आतंक पनपे ही नहीं। न तो डर दिखाकर, न ही प्यार जताकर। अगर सीमापार पैदा हो रहे आतंकवाद की वजह केवल कश्मीर है तो क्यों 6 दशकों में हम इसे सुलझाने में नाकाम रहे हैं?
इस बात की गारंटी कौन लेगा कि मुंबई पर दोबारा आतंकी हमला नहीं होगा? सीना ठोककर कौन यह कहेगा कि दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद, अजमेर , कोलकाता या देश का कोई भी भाग सुरक्षित रहेगा। क्या कोई माई का लाल आगे आकर कहेगा कि जंगल में घिरकर 76 जवान अब नहीं मरेंगे या किसी जिलाधिकारी का अपहरण अब नहीं होगा? कोई नहीं कहेगा, क्योंकि यह कहने के लिए कनविक्शन चाहिए, कुछ करने का जुनून चाहिए, हिम्मत चाहिए। कुर्सी और पद की होड़ से आगे जाने की इच्छाशक्ति चाहिए। सोचिये हमारी क्या दयनीयता है। अरब सागर में सैकड़ों किलोमीटर चलकर एक नाव कराची से मुंबई पहुंच गयी। न तो कोस्ट गाड्र्स ने देखा, न नेवी ने और न ही स्थानीय पुलिस को भनक लगी। सबने आंखें बंद कर लीं, इसके लिये कौन दोषी है? बात बुरी लगेगी पर असल में कसाब केवल एक प्रतीक है हमारी नाकामी का। कसाब नाम है उस ढीलीढाली व्यवस्था और सड़ी हुई नैतिकता का जिसका खामियाजा हम हर दिन भुगत रहे हैं। खबर है कि कसाब को फांसी लगने में लगभग दस साल लग जायेंगे। एक आदमी जिसने ए के 47 रायफल लेकर खुलेआम दर्जनों लोगों को भून डाला उसे फांसी देने में हमारी व्यवस्था को वर्षों लग जाते हैं और हमारे जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ता।
हम क्यों भूल जाते हैं आल्हा की वह पंक्ति
'जाके बैरी चैन से सोये
वाके जीवन पर धिक्कारÓ

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