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Wednesday, February 23, 2011

कलेक्टर के अपहरण से उपजे सवाल




माओवादियों ने गत 16 फरवरी को मलकानगिरी के कलेक्टर को अगवा कर लिया था। उनके साथ एक इंजीनियर का भी अपहरण हुआ था। किसी जिलाधिकारी का अपहरण भारत के इतिहास की शायद पहली घटना है। कांधार जैसी एक डील के बाद उन्हें रिहा करा लिया गया। एक बार फिर हमारी व्यवस्था और अस्मिता बंदूकों के सामने झुक गयी। इसके साथ ही हिंसा पर भरोसा रखने वालों के लिए यह घटना एक नयी राह के रूप में सामने आयी है। नक्सली अथवा माओवादी या लाल आतंकी शब्द चाहे जो गढ़ लें और आदर्श चाहे जो बना लें पर हकीकत यह है कि नक्सली आतंकवाद की नयी व्याख्या कर रहे हैं। विकास के अभाव में उपजे आक्रोश के कारण हथियार उठाने पर बाध्य हुए लोगों के छद्म में पूंजीपतियों और राजनीतिज्ञों के ये मददगार लोग असल में व्यवस्था को घुटनों पर बैठा कर अपने 'स्वामियोंÓ के निहित स्वार्थों को पूरा करने की कोशिश में हैं। आप पूछेंगे कैसे? इस सवाल के उत्तर पर बातें करने के पहले माओवाद के चंद सूत्रों को समझना होगा। माओ ने कहा था कि दुनिया की हर पूंजी का एक एक हिस्सा धूल और खून से अटा पड़ा है। माओ ने चाहे जिस कारण यह बात कही हो पर इसका एक अर्थ सामाजिक विस्थापन की ओर इशारा करता है। पूंजीवाद अपने शोषण को बनाए रखने के लिए सामाजिक संबंधों और सामाजिक समूहों को विस्थापित करता है। सामाजिक तौर पर वैकल्पिक व्यवस्था किए बगैर किया गया विस्थापन हिंसा को जन्म देता है। अब सवाल उठता है कि विकास होगा तो विस्थापन होना ही है। सड़कें बनेंगी, कारखाने लगेंगे या खानेें खोदी जायेंगी तो यकीनन विस्थापन होगा। गांवों से शहरों की ओर हुआ विस्थापन और स्थानान्तरण विश्वव्यापी फिनोमिना है। यह पूंजीवादी व्यवस्था की हिंसा है। माओवादी हिंसा पर जब भी बात होती है तो बड़ी सफाई से इस बात को पर्दे के पीछे डाल दिया जाता है। माओवादी हिंसा विकास के क्रम में अवरोध है। माओवादी हिंसा के पक्ष में हो सकता जेनुइन तर्क हों, लेकिन माओवादी हिंसा अंतत: बड़ी पूंजी की सेवा कर रही है। मसलन माओवादी हिंसाचार से आदिवासियों के इलाकों के विकास का प्रश्न केन्द्रीय सवाल नहीं बन पाया है बल्कि माओवादियों से इलाके को मुक्त कराने का लक्ष्य प्रमुख हो गया है। अब आपसे कोई सवाल पूछता है कि मलकानगिरी या झारखंड या छत्तीसगढ़ की जनता को शांति चाहिये या विकास तो जवाब होगा कि शांति। इस पॉपुलर डिमांड के नाम सरकार वहां अद्र्धसैनिक बलों को तैनात कर देती है। शोषक वर्ग के रुपये में से हिस्सा माओवादियों को भी मिलता है और सरकारी अफसरों - नेताओं को भी। मलकानगिरी के कलेक्टर का अपहरण एक सीधा माओवादी ताकत का सवाल नहीं है। माओवादियों और नेताओं को मिलने वाली 'चौथÓ में गड़बड़ी और जिन्हें जेलों से रिहा किया गया उनकी 'पोल खेलÓ की धमकियां संभवत: इस अपहरण के कारणों में प्रमुख हैं। जब तक इन निहित कारकों का विश्लेषण कर उन्हें खत्म नहीं किया जायेगा तब तक न ऐसे अपहरणों की पुनरावृत्ति रोकी जा सकेगी और ना माओवाद का प्रसार।

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