सरकार ने घोटालों की जांच के लिये विपक्ष की मांग को मानते हुए संयुक्त संसदीय समिति (जे पी सी) के गठन की मांग को मान लिया है और इसके लिए आज घोषणा होगी। भ्रष्टïाचार को दूर करने में इससे कितना लाभ होगा और कितना हिस्सा राजनीति के शोर में गुम हो जायेगा यह तो समय बतायेगा पर इससे ऐसा तो महसूस होता है कि भ्रष्टïाचार एक मुद्दा है और उसे यूं ही नहीं छोड़ï देना चाहिये। अगर अपने देश में भ्रष्टïाचार के खिलाफ कोई मुहिम शुरू होती है तो उसे इस आधार पर खारिज करना बुद्धिमानी नहीं कि अब भ्रष्टïाचार कोई मुद्दा नहीं रह गया है। यह बात इसलिए कह रहा हूं कि कई लोगोंं ने भी बातचीत में कहा कि भ्रष्टïाचार पर अब सिर्फ वही लोग कह-सुन रहे हैं जिनके पास कोई काम-धंधा नहीं रह गया है। इन साथियों के मुताबिक जो जहां जिस सीमा तक भ्रष्टïाचार का फायदा उठा सकता है, उठा रहा है। जो और कुछ नहीं कर सकता, वह वोटों का ही सौदा कर लेता है। इसलिए अब भ्रष्टïाचार आम लोगों की नजर में कोई मुद्दा नहीं है। सच है कि एक के बाद एक कई चुनावों ने इस तथ्य को स्थापित कर दिया है कि भ्रष्टïाचार अब कोई चुनावी मुद्दा नहीं है, लेकिन, हमें भूलना नहीं चाहिए कि चुनाव सब कुछ नहीं है। चुनाव में अगर भ्रष्टïाचार मुद्दा नहीं बनता तो उसकी एक वजह यह भी है कि पक्ष-विपक्ष सब उसमें एक जैसे होते हैं। तो, उस मुद्दे पर आखिर वोटर किसके खिलाफ किसे समर्थन दे? लिहाजा वह उदासीन हो जाता है।
यहां एक बात पर गौर करें भ्रष्टïाचार सिर्फ नैतिकता का मसला नहीं है। भ्रष्टïाचार का मतलब अवसर भी है। सच है कि अपवादों को छोड़ दें तो जो जहां जिस सीमा तक भ्रष्टïाचार का फायदा उठा सकता है, उठा रहा है लेकिन यह बात भी ध्यान देने लायक है कि कौन कितना फायदा उठा पा रहा है? इसका मतलब यह नहीं है कि आम वोटर भ्रष्टïाचार को बर्दाश्त करता रहेगा जिसके चलते उसे वृद्धावस्था पेंशन से लेकर बीपीएल कार्ड तक - हर चीज के लिए तरसते रहना पड़ता है?
बहरहाल, भ्रष्टïाचार चुनावी मुद्दा भले न हो, पर एक मुद्दा है और बड़ा मसला है। यह ऐसा मुद्दा है जिसे परिस्थितियों का साथ मिले तो दौलत और ताकत के नशे में चूर हो रहे लोगों को रातोंरात सड़क पर ला सकता है। लेकिन सवाल है कि जो लोग भ्रष्टïाचार के खिलाफ अभियान चलाने की बात कर रहे हैं क्या वे आम आदमी की उम्मीदों को समझ रहे हैं? अफसोस वे नहीं समझ रहे हैं।
अगर वे समझ रहे होते तो भ्रष्टïाचार जैसे मुद्दे को महज एक बिल (लोकपाल बिल) या एक कमिटी के गठन से नहीं जोड़ देते। बेशक, सीबीआई और पुलिस से लोगों का विश्वास टूट चुका है। अब सवाल उठता है कि कोई भी क्या करेगा? जनता और विपक्षी दल क्या कानून बनावायेंगे? वह कानून कितना ताकतवर होगा? प्रधानमंत्री से ज्यादा ताकतवर तो नहीं। जब एक ईमानदार प्रधानमंत्री भ्रष्ट तंत्र के सामने इतना लाचार हो सकता है तो भला किसी एक पदाधिकारी की क्या बिसात?
कहने वाले कहते हैं कि एक शेषन ने कैसे पूरे चुनाव तंत्र को कस दिया था पर शेषन अपनी पूरी ताकत लगाकर भी चुनाव में अच्छे प्रत्याशियों को नहीं ला पाए थे, न उन्हें जिता पाए थे। और यह सवाल भी है कि चुनाव आयुक्त बनने से पहले शेषन ने इसी नौकरशाही में पूरी जिंदगी बिताई थी। यानी उनके रहते, उनके देखते ही यह तंत्र मौजूदा हाल में पहुंचा था। सौ बातों की एक बात यह कि जब तंत्र सड़ चुका है तो तंत्र में पलने वाला कोई एक अधिकारी उसे ठीक नहीं कर सकता। वह पूरी ताकत लगाकर अपने आपको ठीक रख ले यह भी बहुत बड़ी बात होती है।
तंत्र को सिर्फ जन ही ठीक कर सकता है । इसीलिए जब हम जन की शरण में जाते हैं तो उसे पूरे तंत्र को ठीक करने का कार्यभार सौंपना चाहिए। एक कमिटी , एक बिल, एक कानून या एक सरकार को बदलने का कार्यभार देकर हम उसे मौजूदा तंत्र के उसी खूंटे से बांध देते हैं जिससे मुक्त होने की हसरत लेकर वह अपनी बिखरी ताकत को समेट रहा होता है। जब जन चाहे तो तंत्र को बदल दे। इसकी मिसाल ट्यूनीशिया में मिली। एक शिक्षित बेरोजगार युवक (जिसका ठेला पुलिस ने तोड़ दिया था) की खुदकुशी ने विरोध की वह आंधी पैदा कर दी कि राष्टï्रपति को देश छोड़कर भागना पड़ा। देखते-देखते मिस्र में जनविरोध की वह लहर उठी कि राष्टï्रपति होस्नी मुबारक ने घुटने टेक दिये। फिर हमारे देश में ऐसा क्यों नहीं हो सकता?
Wednesday, February 23, 2011
Posted by pandeyhariram at 5:42 AM
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