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Tuesday, July 26, 2011

इक्कीसवीं सदी में दूसरी हरित क्रांति लानी होगी


हरिराम पाण्डेय
18 जुलाई 2011
प्रधानमंत्री ने शुक्रवार को एक और हरित क्रांति का आह्वïान किया है। प्रधानमंत्री ने कहा है कि देश में वर्ष 2010-11 में अन्न का रेकॉर्ड 241 मिलियन टन उत्पादन हुआ, लेकिन भविष्य में अन्न की बढ़ती मांग देखते हुए दूसरी हरित क्रांति की जरूरत है। प्रधानमंत्री ने कहा कि महत्वपूर्ण फसलों का उत्पादन बीते वर्ष में रेकार्ड स्तर तक पहुँच गया है।
गेहूं , मक्का और दालों के बेहतर उत्पादन की वजह से 2010-11 के दौरान 241 मिलियन टन का उत्पादन हुआ।
प्रधानमंत्री ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के एक समारोह में भाषण देते हुए कहा कि तिलहन उत्पादन में भी रेकार्ड वृद्धि हुई है। मनमोहन सिंह ने किसानों और वैज्ञानिकों के प्रयासों की भरपूर सराहना करते हुए कहा कि उनकी वजह से ही ये संभव हो पाया है। वैसे वर्तमान हालात में हरित क्रांति जरूरी है, क्योंकि खाद्यान्न की बढ़ती कीमत का रोना सभी रो रहे हैं। सबका मानना है कि अनाज की बढ़ती कीमत एक दिन आम आदमी की पहुंच से बाहर हो जाएगी और उसके बाद शुरू होगी भुखमरी, जिसके संकेत अभी से मिलने शुरू हो गये हैं। इसका प्रमुख कारण है उपभोक्ताओं की बढ़ती तादाद और लगातार घटता खेतों का उत्पादन और खेती में बढ़ती लागत। योजना आयोग के लिए देश के भूगर्भ जल की ताजा स्थिति पर एक रपट (सिनॉप्सिस ऑफ ग्राउंड वाटर रिसोर्सेज इन इंडिया) बता रही है कि खुश्क इलाकों में जमीनी जल के दोहन व रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से अब हर जगह जमीन बांझ, खेती महंगी और भूमिगत जल का स्तर कम हो रहा है। ग्लोबल वार्मिंग ने भी बारिश का मिजाज असंतुलित बना दिया है।
वर्षा की अनियमित चाल देखते हुए गेहूं के साथ कम से कम पानी में भी पेट भरने लायक अन्न उपजा सकने वाली फसलों का चक्र बना, जिससे कम बारिश वाले इलाकों के किसान भी गेहूं के साथ ज्वार, बाजरा और दालों की अनेक सस्ती स्थानीय किस्में उगाकर अनावृष्टि के सालों में भी पोषाहार पाते रहे। जल व वनस्पति संरक्षण से जुड़े सामाजिक - धार्मिक नियमों के असर से न तो इन इलाकों के सीमित जल स्रोत नष्ट हुए, न पशुपालन, जिसके वास्ते जंगलों व गोचरों में पर्याप्त चारा और जल स्रोतों में पर्याप्त पानी हमेशा बचाया गया। साठ के दशक में जब बौने गेहूं और धान की अधिक उपज देने वाली किस्मों के साथ अधिकाधिक जल और उर्वरकों के इस्तेमाल का संदेश लेकर हरित क्रांति देश में आई, तो उसने अन्न के मामले में भारत को आत्मनिर्भर ही नहीं बनाया, बल्कि खाद्य सुरक्षा की शुरुआत भी की, जिससे अकाल का डर कम हुआ। लेकिन हरित क्रांति से कुछ पेचीदा समस्याएं भी पैदा हुईं। नहरों से सिंचित राज्यों में इस क्रांति के परिणाम देख धीमे-धीमे वर्षा सिंचित इलाकों में भी किसानों का मन बदलने लगा। वे अब पेट भरने वाले लोकल मोटे अनाज के बजाय गेहूं, चावल, कपास या सोयाबीन सरीखी भरपूर दाम देने वाली फसलों की तरफ झुकने लगे, जो काफी अधिक जल और भरपूर रासायनिक खाद मांगती थीं। अपने मतदाता बैंक की तुष्टि के लिए सरकारों ने भी चुनाव-दर-चुनाव खुश्क इलाकों के किसानों को हैंडपंप और नलकूप लगाने के लिए लगातार सब्सिडी और मुफ्त या सस्ती बिजली और रासायनिक उर्वरक दिए। साथ ही हरित क्रांति को देश के हर कोने तक फैलाने को कृषि शोध कार्यक्रमों से लेकर समर्थन मूल्य, सब्सिडियां और विस्तार कार्यक्रम भी रचे गए। इसके तात्कालिक नतीजे भले सुखद निकले हों, लेकिन दबाव और हड़बड़ी में कई बार अकुशल और अप्रशिक्षित किसानों के हाथों में बिना पर्याप्त हिदायतों के नए बीज, उर्वरक और बिजली के पंप थमाए गये। उनके नासमझ इस्तेमाल से अब हरित क्रांति की सीमा और दुष्परिणाम सतह पर आ रहे हैं। बदले गए फसल चक्र, बिजली चालित गहरे जलकूपों से सिंचाई और मौसम में आई भारी तब्दीलियों का सबसे बुरा असर पहले-पहल उन इलाकों में दिखा, जहां पारंपरिक रूप से मौसम खुश्क और जल का भंडार सीमित रहा है। 1960-61 में इन इलाकों में सिंचाई के लिए 61 फीसदी पानी नहरों और जलाशयों से आता था और ट्यूबवेल कुल जल का सिर्फ 0.6 फीसदी हिस्सा मुहैया कराते थे, पर सन् 2002-2003 तक आते-आते नहरों और जलाशयों से मिलने वाला जल सिर्फ 33 फीसदी जरूरत निपटा पा रहा था, 39 फीसदी पानी ट्यूबवेलों से खींचा जाने लगा था। योजना आयोग की ग्यारहवीं योजना के मसौदे के अनुसार हर जगह जबरन गेहूं, धान और कपास तथा सोयाबीन सरीखी फसलें उगाने की जिद से एक तरफ तो जमीन को उर्वरा बनाए रखने वाले पारंपरिक मोटे अनाज, फसलों से आने वाला चारा और जैविक खाद गायब हो गए हैं, दूसरी तरफ रासायनिक खाद के भरपूर प्रयोग से दो-तिहाई जमीन की उर्वरा शक्ति छीज गयी है। कपास, आलू या दलहन जैसी फसलों में रेडीमेड को पसंद करने वाला नया बाजार और नए उद्योग जो गुण तलाश रहे हैं, पारंपरिक कृषि उनको नहीं दे पा रही। नतीजतन लोन लेकर इनकी खेती करने वाले किसान दिवालिया होकर आत्महत्या कर रहे हैं। हरित क्रांति ने हमारी जरूरत के वक्त हमको बहुत मदद दी, यह तो सोचना भी घातक होगा कि खेती का कोई विकल्प हो सकता है। हां, खेती के ढंग को बदलना होगा। कुछ ऐसी विधि खोजनी होगी जो कम लागत में ज्यादा उत्पादन को बढ़ावा दे सके। सरकार को कृषि विज्ञानियों को इस क्षेत्र में खोज करने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। अब समय आ गया है कि हमारे कृषि वैज्ञानिक सिर्फ खेती और पूंजी को तवज्जो देने की बजाय देश की नयी समग्र सामाजिक - आर्थिक स्थिति के मद्देनजर शोध करें। वरना यह तय है कि अब कुछ सालों में ही खाने के लिए हिंसा होगी और इतिहास हमें माफ नहीं करेगा। इक्कीसवीं सदी में दूसरी हरित क्रांति लानी हो तो असिंचित क्षेत्रों की प्रमुखता, जल संचयन तकनीकी और भंडारण के पारंपरिक तरीकों और खाद से सरकारी खरीदी तक के लिए नए मानकों पर नयी तरह से योजनाबद्ध काम करना जरूरी है। यह लंबी व कठिन डगर है, पर अब इसकी अनदेखी करना आत्मघाती होगा।

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