हरिराम पाण्डेय
19 जुलाई 2011
सोमवार को गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन (जी टी ए) के नाम से दार्जिलिंग समझौता कलमबंद हो जाने के बाद अब उम्मीद की जा सकती है कि पहाड़ के तीन सबडिविजनों, दार्जिलिंग, कर्सियांग और कलिम्पोंग में अमन रहेगा। अब से दो दशक पहले भी इसी तरह का एक समझौता हुआ था। दार्जिलिंग पर्वतीय अनुमंडल में अमन और स्वशासन के लिये मंडल गोरखालैंड पार्वत्य परिषद नाम का वह समझौता उसके नेता सुवास घीसिंग और उनके चंद करीबी लोगों की नालायकी से बुरी तरह नाकाम हो गया। अब इस नये समझौते का भी वही हश्र ना हो इसके लिये समझौता में शामिल गोरखा युवा मोर्चा, जो पूर्ववर्ती गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट से ही टूट कर बना है, के नेताओं को चाहिये कि सत्ता का मनमाना या बेलगाम दुरुपयोग ना करें। नये समझौते में यह ज्यादा जरूरी है क्योंकि इसने पूर्ववर्ती गोरखा पार्वत्य परिषद से कहीं अलग कई मामलों में ज्यादा स्वायत्तता का वायदा किया है। जिन मामलों में ज्यादा स्वायत्तता है उनमें कर वसूली से लेकर पर्यटन, वन, सड़क , कृषि , शिक्षा, सिंचाई , उद्योग, महिला और बाल विकास , संस्कृति और क्रीड़ा तक कई हैं। प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा और सम्पन्न मानवसंसाधन के बावजूद बुरी तरह पिछड़े उस क्षेत्र में विकास की बेहद संभावना है। अब अगर निर्वाचित सदस्य विवेकपूर्ण, ईमानदार और स्वशासन के लिये प्रतिबद्ध होंगे तो वहां सामाजिक और भौतिक स्तर पर बहुत विकास हो सकता है। पश्चिम बंगाल सरकार ने जी टी ए को केंद्र से तीन वर्ष तक धन मुहय्या कराने का वादा किया है और इसके बाद जी टी ए के नेता खुद केंद्र से धन पाने का प्रयास करेंगे, जैसा अन्य राज्य करते हैं। यह एक अच्छी व्यवस्था है। क्योंकि पूर्ववर्ती गोरखा पार्वत्य परिषद के नाकाम होने का मुख्य कारण यही था कि उसके लिये धन की व्यवस्था पश्चिम बंगाल सरकार करती थी और उसे हमेशा कोलकाता का मुंह जोहना पड़ता था। ऐसे में सियासी चालबाजियों की भारी गुंजाइश होती है। अगर सुवास घीसिंग ने अपने लोगों से कथित तौर पर दगा दी तो इसके पीछे जितनी उनकी भ्रष्टï मानसिकता थी उससे कहीं ज्यादा माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका थी। अगहर इस परिप्रेक्ष्य में पूरी स्थिति का आकलन करें तो पता चलेगा कि इस मामले में कोलकाता का जितना कम हस्तक्षेप होगा उतना ही दार्जिलिंग के लिये लाभ होगा। ऐसे में अगर समझौता नाकाम होता है तो गोरखा युवा मोर्चा के नेता दूसरे पर उंगली नहीं उठा सकेंगे, वे खुद इसके लिये जिम्मेदार होंगे। यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि जीटी ए के नेताओं को सिलीगुड़ी और डुआर्स के मैदानी इलाके को अपने में शामिल करने के लिये अडऩा नहीं चाहिये। उन्हें अछूता छोड़ देना चाहिये। हालांकि मुख्य मंत्री ममता बनर्जी ने इसका जनसांख्यिकी अध्ययन कर अपनी रपट पेश करने के लिये एक कमिटी का गठन किया है। हालांकि यह काम अभी रुक सकता है पर सबसे जरूरी है कि जी टी ए अपना अधिकार स्थपित करे। उसके काम काज से जितनी जल्दी यह जाहिर होगा कि वहां शासन है उतनी जल्दी सकारात्मक परिवर्तन आयेगा। क्योंकि कुछ वर्षों से दार्जिलिंग में कानून और व्यवस्था के हालात बहुत खराब रहे हैं। अब जी टी ए के नेताओं को यह प्रमाणित करना होगा कि वे अपने लोगों के साथ मिलकर स्वशासन चला सकते हैं और आलोचक।ें की जुबान बंद कर सकते हैं। जो कुछ भी सकारात्मक हो सकता था ममता जी ने कर दिया, अब आगे काम जी जे एम के नेताओं और जी टी ए का है, देखना है कि वे अपने लोगों की उम्मीदों पर कितने खरे उतरते हैं।
Tuesday, July 26, 2011
पहाड़ों पर अमन की उम्मीद
Posted by pandeyhariram at 3:53 AM
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