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Sunday, July 17, 2011

भूमि अधिग्रहण शोषण का साधन ना बने


हरिराम पाण्डेय
7जुलाई 2011
कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश के भट्टा पारसौल में मायावती सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण के मुद्दे ने तूल पकड़ा है तबसे ऐसा लगने लगा है, जैसे भारतीय राजनीति में कई लोगों के सिंहासन डँवाडोल करने वाली आँधी यही है। बात सिर्फ इतनी नहीं है कि उत्तर प्रदेश सरकार के भ्रष्टाचार और अत्याचार के खिलाफ आंदोलनकारियों को समर्थन देने के लिए राहुल गाँधी धरने पर बैठ गए थे और उनके साथ-साथ कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी गिरफ्तारी दी। यह बात रेखांकित करना जरूरी है कि भूमि अधिग्रहण सरकार के लिए संकट सिर्फ उत्तरप्रदेश में ही नहीं बना है।
पश्चिम बंगाल में चार दशक तक निरंकुश राजपाट करने के बाद माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को जिस करारी हार का सामना करना पड़ा उसका एक प्रमुख कारण खुद को किसानों का मित्र कहने वाली सरकार द्वारा नंदीग्राम और सिंगुर में औद्योगिक विकास के बहाने किसानों की भूमि का अधिग्रहण था। ममता बनर्जी ने अपने चुनाव अभियान के दौरान यह ऐलान किया था कि जीतने के बाद किसानों को वामपंथी सरकार द्वारा ली गयी जमीन वे तत्काल लौटा देंगी। फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें ऐसा करने से रोकते हुए टाटा घराने के पक्ष में एक स्थगन आदेश जारी किया है पर साथ ही यह टिप्पणी भी की है कि मामला उच्च न्यायालय के विचाराधीन है और यह स्थगन आदेश उसके फैसले को प्रभावित करने वाला नहीं समझा जाना चाहिए। इसी आधार पर ममता बनर्जी ने फैसले का स्वागत किया है।
हकीकत यह है कि दोनों ही पक्ष इसे अपनी जीत बताने की कोशिश भले ही करें, अभी यह लड़ाई लंबी चलने वाली है। इस बारे में दो राय नहीं हो सकती कि उपजाऊ जमीन को किसानों को बहला-फुसलाकर जिस तरह अंतत: जबरन टाटा समूह के हवाले किया गया था, वह प्रक्रिया अपारदर्शी तानाशाही ही थी। इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि माक्र्सवादियों के भरोसे, उनके वादे और करार पर एतबार कर टाटा समूह ने कई हजार करोड़ रुपयों का निवेश वहाँ अपनी फैक्टरी में किया। रतन टाटा को आशंका है कि अगर ममता ने हारूं अल रशीद वाले अंदाज में इस जमीन के पट्टे फिर से किसानों को सौंप दिए तो उन्हें कीमती मशीनरी आदि वहाँ से सही-सलामत निकालने का मौका नहीं मिलेगा।
ओडिशा में भी भूमि अधिग्रहण का मामला नवीन पटनायक के गले की हड्डी बन चुका है। पहले नियमगिरी में आदिवासियों ने उनकी जान सांसत में डाल दी। वहाँ भी राहुल गाँधी ने ही उत्पीडि़तों, विस्थापितों के बीच मसीहा वाली भूमिका अपनाई और उस घड़ी केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय भी बड़े जोशो-खरोश के साथ ओडिशा सरकार के विरुद्ध हमले में जुट गया पर कुछ ही समय बाद वेदांत-पोस्को वाले भूमि अधिग्रहण के मसले में वह पलटी खाता नजर आया।
उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल की तरह ही ओडिशा में भी गैर कांग्रेसी सरकार शासन कर रही है। इसलिए भूमि अधिग्रहण को लेकर उसे घेरने का प्रयत्न कांग्रेस करती रही है पर गुत्थी काफी उलझी हुई है।
मनमोहन सिंह की केंद्र सरकार उन आर्थिक सुधारों को तेजी से लागू करने पर आमादा है, जो भारत को भूमंडलीकरण का अपने हित में दोहन करने के लिए परमावश्यक बतलाए जाते हैं। इस बारे में देश में आम सहमति नहीं है पर तब भी कुल मिलाकर केंद्र सरकार के लिए उद्योगपति लाड़ले और खेतिहर किसान सौतेली संतानें हैं। विकास का जो मॉडल मनमोहन-मोंटेक, प्रणव-चिदंबरम आदि को रास आता है, उसमें उपजाऊ जमीन का औद्योगिक विकास के लिए अधिग्रहण सर्वोच्च प्राथमिकता पर नजर आता है। यह विषय विदेशी पूँजी के निवेश के साथ भी जुड़ा हुआ है और केंद्र सरकार की चिंता का विषय यह भी है कि अगर इस काम में ढिलाई हुई तो भारत में पूँजी लगाने वाले विदेशी रूठ कर पलट जाएँगे। गैर कांग्रेसी सरकारों के खिलाफ मोर्चाबंदी तो ठीक है पर कहीं न कहीं आंदोलनकारियों पर लगाम लगानी ही होगी। एक विडंबनापूर्ण स्थिति कुछ समय पहले कर्नाटक में भी देखने को मिली थी। उस वक्त भी भूमि अधिग्रहण का सवाल उद्योग बनाम खेती, शहर बनाम देहात वाली बहस के साथ जोड़ा जा रहा था मगर यह बात किसी से छिपी नहीं थी कि असली झगड़ा सरकारी लूट में अपना हिस्सा वसूल करने का था। यदि भूमि अधिग्रहण आपका अपना दल करता है तो सब कुछ जायज है लेकिन यदि यह मौका विपक्ष को मिलता है तो अत्याचार का हाहाकार ही सुनने को मिलता है।
असली समस्या यह है कि खेती की यह जमीन का उपयोग माफिया और नेता अपनी निजी आमदनी के लिए करना चाह रहे हैं। हमारी सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि भूमि अधिग्रहण का वर्तमान कानून उस समय बना, जब अँग्रेज हमारे देश के शासक थे और उन्होंने प्रजा के हितों के नाम पर अपना हित साधने की गरज से यह कानून बनाया था। आज जरूरी है कि सरकार देश में व्याप्त जनभावना को ध्यान में रख कर जमीन का अधिग्रहण करे और उससे जुड़े कानून बनाए। हमारे देश में जमीन निजी प्रतिष्ठा का साधन हैं। इतिहास में जितनी भी जंग हुई हैं और जितनी भी बरबादियां हुई हैं वे सब जमीन से ही जुड़ी रही हैं। फिलहाल सरकार को सोच समझ कर ही कोई कदम उठना चाहिए।

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