हरिराम पांडेय
माओवादी नेता किशन जी ने सरकार के समक्ष वार्ता की शर्त रखी हे। उनकी शर्त हे कि सरकार माओवाद प्रभावित इलाकों से हथियारबंद पुलिस बल हटा ले, जेलों में बंद माओवादी नेताओं और कार्यकर्ताओं को रिहा कर दे और पुलिस ज्यादती के लिये क्षमा मांगे तथा 72 दिनों तक दोनों ओर से हमले बंद कर दिये जाएं। एक आपराधिक कृत्य को या यों कहें एक विद्रोही आंदोलन को राजनीतिक स्वरूप देने का यह प्रयास माओवादियों की समाज के एक बड़े हिस्से पर पकड़ और अपने प्रभाव क्षेत्र के बाशिंदों के गुस्से का भावात्मक शोषण करने की क्षमता का स्पष्ट उदाहरण है। माओवादियों ने पुलिस जुल्म के खिलाफ एक जन समिति (कमिटी ऑफ पीपल अगेन्स्ट पुलिस एट्रोसीटीज) का गठन कर पुलिस जुल्म के विरुद्ध आंदोलन आरंभ किया और उसे एक हिंसक आंदोलन में बदल दिया और अब उस हिंसक आंदोलन को सियासी जामा पहनाने की कोशिश शुरू हो गयी है। वामपंथी या ऐसा कहें धुर वामपंथी विचारधारा के चुनिंदा वामपंथियों को जोड़ कर खड़े किये गये इस संगठन के खिलाफ वोटों के भय से सरकार कार्रवाई करने में हिचक रही है।
... और ये स्वयंभू बुद्धिजीवी बार-बार झूठ को दोहरा कर सच का आभास कराने में 'गोयबलिज्म'तकनीक में इतने प्रवीण हैं कि यदि इन पर विश्वास करें तो भारतीय राजसत्ता द्वारा 1 नवंबर, 2009 से जनता के खिलाफ शुरू हो चुके इस युद्ध के कई हफ्ते बीत चुके हैं। और तो और, इस युद्ध में मारे जानेवाले आदिवासियों की संख्या रोज-ब-रोज बढ़ रही है। उसी तरह जलाये गये गांवों, विस्थापितों, घायलों और गिरफ्तार लोगों की संख्या भी बढ़ रही है। इस झूठ और किशन जी के बड़बोलेपन का पर्दाफाश करने के लिये जरूरी आम लोगों को यह बताना कि सरकार खासकर केंद्र सरकार माओवादियों की कारगुजारियों को आतंकवाद नहीं मानती हे। बेशक वे आंतरिक सुरक्षा के लिये खतरा हैं पर आतंकवादी इसलिये नहीं हैं कि उनका आंदोलन स्थानीय मसलों पर उपजे गुस्से से आरंभ हुआ और हालात के दबाव से चंद शातिर और हिंसक विचारधारा के लोगों के हाथों में चला गया। माओवादी हथकंडों (जिसे ये जनसंघर्ष कहते हैं) से सत्ता अपनाने के लोलुप इन लोगों के लिये गुस्से में गुमराह हो गये चंद युवक लड़ते हैं, मरते हैं।
इस समस्या से मुकाबले के लिये वार्ता से ज्यादा जरूरी है सरकार को अपनी समरनीति में बदलाव लाना। उसे विकास कार्य और राजनीतिक अप्रोच के बने बनाये व्यूह को किनारा कर ग्रामीण पुलिस व्यवस्था और ग्रामीण खुफियागीरी को विकसित करने के साथ - साथ ग्राम आधारित या वनपंथी अभियानों की क्षमता बढ़ानी होगी एवं प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा चौकियों के तादाद में इजाफा कर हिफाजती बंदोबस्त को पुख्ता करना होगा। इसके बाद अगर वार्ता होती हे तो बराबरी के स्तर पर होगी वरना शांति या बातचीत से कोई लाभ नहीं होने वाला।
Tuesday, February 23, 2010
हालात को बदले बगैर माओवादियों से वार्ता व्यर्थ
Posted by pandeyhariram at 12:15 AM
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