हरिराम पांडेय
मेदिनीपुर जिले के शिल्दा में माओवादियों द्वारा ई एफ आर के जवानों की हत्या के बाद पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री( गृहमंत्री भी) बुद्धदेव भट्टाचार्य ने स्वीकार कर लिया कि सुरक्षा में खामी थी। एक दिन पहले राज्य के पुलिस महानिदेशक ने भी लगभग ऐसा ही कुछ कहा था। राज्य की आम जनता की हिफाजत के लिये जिम्मेदार; ये पछताते लोग आखिर क्या कहना चाहते हैं? इन दोनों महानुभावों को शर्म आनी चाहिये जो अपने कर्तव्य का मूल्यांकन करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। क्या ये लोग अब भी मानते हैं कि उनकी पुलिस उनके कहे पर यकीन करेगी? यह मान भी लिया जाय कि हमला अचानक हुआ, तब भी क्या कारण है कि आला अफसरों की जवाबदेही क्यों नहीं तय की गयी? क्यों नहीं वहां साहसी ओर जांबाज अफसरों की कमान में कुमुक भेजी गयी? इसे निराशाजनक निकम्मापन के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता है। आखिर क्या कारण है कि परिष्कृत हथियारों, सक्षम वाहनों और आधुनिक उपकरणों के बिना चंद नौजवानों के सिर पर कफन बांध कर जंगलों में भेज दिया गया, वहां के लोगों की हिफाजत के नाम पर मरने के लिये। एक ऐसी सरकार, जो पिछली चौथाई सदी से पुलिस का पार्टी के तंत्र के रूप में उपयोग करती आ रही थी, को अब माओवादियों से मुकाबले में मानसिक तालमेल बैठाने में दिक्कत आ रही है।
दूसरी तरफ इस घटना के तुरंत बाद इस पर सियासत शुरू हो गई। सीपीएम ने फिर दोहराया कि तृणमूल कांग्रेस एक जनतांत्रिक दल होते हुए भी माओवादियों को मदद कर रही है। दूसरी तरफ तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने हादसे के लिए राज्य सरकार को जवाबदेह ठहराते हुए यहां तक कह दिया कि यह जांच का विषय है कि हमले के लिए माओवादी जिम्मेदार हैं या माक्र्सवादी। सियासी टकराव से समस्या और उलझी है। राजनीतिक दलों के रवैये का फायदा उठाकर माओवादियों ने लगातार अपना विस्तार किया और खुलेआम प्रशासनिक मशीनरी को चुनौती दे रहे हैं।
पिछले दिनों केंद्रीय गृहमंत्री चिदंबरम ने प्रस्ताव रखा कि अगर माओवादी हिंसा छोड़ दें तो उनसे बातचीत की जा सकती है। लेकिन माओवादियों की दलील है कि सरकार पहले नक्सल विरोधी अभियान बंद करे, तभी वे वार्ता की मेज पर आएंगे। दोनों में से कोई पक्ष एक-दूसरे पर भरोसा करने के लिए तैयार नहीं है। केंद्र यह कहकर निश्चिंत हो लेता है कि सारे अभियान तो राज्य सरकारें चला रही हैं, वह तो उन्हें बस मदद कर रहा है। राज्य सरकारें दुविधा में हैं। वे कानून-व्यवस्था बनाए रखना चाहती हैं, लेकिन नक्सलियों से सीधे टकराव से बचना भी चाहती हैं क्योंकि इसमें उन्हें सियासी नुकसान दिखाई देता है।
लेकिन इन हालात का खामियाजा असंख्य गरीब - गुरबों को झेलना पड़ रहा है, जिन्हें आज तक इस व्यवस्था से कुछ नहीं मिला और जो अब नक्सलियों का मोहरा बनने को अभिशप्त हैं। सरकार भले ही माओवाद को आतंकवाद के समकक्ष माने, पर यह बेहद जटिल समस्या है, जिसका कोई एक सरल समाधान नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारें जब तक साफ मन से इस पर एकजुट नहीं होंगी, तब तक कोई रास्ता नहीं निकलेगा। यह पश्चिम बंगाल की जनता का दुर्भाग्य है कि उसे अपने जान-ओ- माल के लिये एक ऐसे समूह पर भरोसा करना पड़ रहा है जो पछताने अथवा हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं कर सकता।
Friday, February 19, 2010
दुर्भाग्य है!
Posted by pandeyhariram at 12:52 AM
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