आखिरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे को मंजूरी मिल ही गयी। पिछले सप्ताह की खबरों से साफ है कि जल्दी ही इसे कैबिनेट की भी मंजूरी मिल जाएगी और इसके बाद यूपीए सरकार इस बहुप्रतीक्षित विधेयक को संसद में पेश करके आम आदमी को भोजन का अधिकार देने की ऐतिहासिक उपलब्धि पर अपनी पीठ ठोंकती नजर आएगी, लेकिन प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे के बारे में मिली जानकारी के अनुसार भोजन के संवैधानिक अधिकार के लिए लड़ रहे जनसंगठनों, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में गहरी निराशा का माहौल है क्योंकि यह विधेयक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के बजाय भूख के साम्राज्य को और मजबूत करता दिखता है।
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक में सरकार गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) गुजर करने वाले हर परिवार को तीन रुपए प्रति किलोग्राम की दर से हर महीने 25 किलोग्राम गेहूं या चावल देगी लेकिन तथ्य यह है कि इस विधेयक के कानून बनने के बाद गरीबों और भुखमरी के शिकार लोगों को दो तरह से नुकसान होगा। पहला, अभी लगभग 6.52 करोड़ बीपीएल परिवारों को हर महीने 35 किलो गेहूं या चावल मिलता है जिसमें 4.10 रुपए प्रति किलो की दर से गेहूं और 6.65 रुपए किलो की दर से चावल मिलता है। नये कानून के आधार पर इन परिवारों को गेहूं या चावल तो पहले की तुलना में सस्ते मिलेंगे लेकिन उसमें दस किलो की कटौती हो जाएगी।
दूसरे, इन बीपीएल परिवारों में जो दरिद्रतम (गरीबों में भी गरीब) परिवार हैं, उन्हें अभी अंत्योदय अन्न योजना के तहत हर महीने दो रुपए किलो की दर से 35 किलोग्राम गेहूं या चावल मिलता है। लेकिन नये खाद्य सुरक्षा कानून के बनने के बाद उन्हें न सिर्फ पहले की तुलना में अनाजों की अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी, बल्कि गरीबों में भी गरीब माने जाने वाले इन दरिद्रतम परिवारों को भी दस किलो कम अनाज मिलेगा। यह हैरान करने वाला तथ्य है कि नये कानून की सबसे अधिक गाज दरिद्रनारायण पर गिरने वाली है। यही नहीं, सभी बीपीएल परिवारों के मासिक अनाज कोटे में दस किलो की कटौती का नतीजा यह होगा कि ये परिवार या तो आधा पेट खाने और भूखे रहने के लिए मजबूर होंगे या फिर अनाज की अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए बाजार के भरोसे रहेंगे। सवाल यह है कि यह खाद्य सुरक्षा का अधिकार देने वाला कानून होगा या खाद्य असुरक्षा बढ़ाने वाला कानून?
सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह उस नवउदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के दायरे से बाहर नहीं निकल पाता है जिसकी बुनियाद में ही यह सोच मौजूद है कि यहां कुछ भी मुफ्त नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि यूपीए सरकार भी इस सैद्धांतिकी की बड़ी मुरीद रही है और सरकार में सर्वोच्च पदों पर बैठे कई मंत्री और अफसर इसके मुखर पैरोकार रहे हैं। इससे पहले वामपंथी पार्टियों के दबाव के कारण यूपीए सरकार ने गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों को राहत पहुंचाने वाली नरेगा, किसानों को कर्जमाफी जैसी कुछ योजनाएं शुरू की थीं।
लेकिन यूपीए- दो सरकार के ताजा आम बजट और अब प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक से यह संकेत साफ है कि मनमोहन सिंह सरकार एक बार फिर खुलकर नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने की दिशा में बढ़ रही है। यही कारण है कि वह भोजन का अधिकार पूरी ईमानदारी और उसकी वास्तविक भावना से देने के बजाय खाद्य सब्सिडी में कमी करने को लेकर ज्यादा चिंतित दिखाई देती है। जाहिर है कि उसका सबसे अधिक जोर वित्तीय घाटे को कम करने पर है जो कि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की सबसे बड़ी पहचान है।
यही कारण है कि भोजन के संवैधानिक अधिकार को सार्वभौम और हर भारतीय नागरिक का अधिकार बनाने के बजाय इसे सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) परिवारों तक सीमित कर दिया गया है। सबसे अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों की संख्या के निर्धारण का अधिकार योजना आयोग के पास होगा जबकि गरीबी रेखा और उसके नीचे रहने वाले परिवारों की संख्या के बारे में योजना आयोग के अनुमानों को लेकर काफी गंभीर और तीखे विवाद रहे हैं। हाल ही में खुद योजना आयोग की प्रो. सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली समिति ने आयोग के बीपीएल अनुमानों पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए यह कहा है कि देश में गरीबी रेखा के नीचे 27 प्रतिशत के सरकारी दावों के विपरीत 37 प्रतिशत लोग गुजर-बसर कर रहे हैं।
लेकिन योजना आयोग ने इस रिपोर्ट के मद्देनजर अब भी बीपीएल लाभार्थियों की संख्या में कोई फेरबदल नहीं किया है और वह खाद्य सुरक्षा के प्रस्तावित विधेयक में उन्हीं 27 प्रतिशत लोगों को इसका सीमित लाभ देने पर अड़ा हुआ है जिनकी संख्या लगभग 6.52 करोड़ है, लेकिन दूसरी ओर कई राज्य सरकारों ने इस संख्या को खुली चुनौती दी है। उदाहरण के लिए बिहार सरकार का कहना है कि केंद्र सरकार राज्य में सिर्फ 65.23 लाख बीपीएल परिवारों का अस्तित्व स्वीकार करती है और उन्हें खाद्य सुरक्षा का लाभ देने के लिए तैयार है जबकि राज्य सरकार के मुताबिक बीपीएल परिवारों की संख्या लगभग 1.40 करोड़ है। इसका अर्थ यह हुआ कि नये खाद्य सुरक्षा कानून के लागू होने के बाद बिहार में कोई 75 लाख बीपीएल परिवार खाद्य असुरक्षा के शिकार बने रहेंगे।
हरिराम पांडेय
लेखक कोलकाता(पश्चिम बंगाल)से प्रकाशित दैनिक अखबार में संपादक हैं
Sunday, March 28, 2010
ये कैसा कानून
Posted by pandeyhariram at 4:01 AM
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