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Thursday, March 4, 2010

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस - खुशी मनाएँ या गम

सामाजिक मामलों में खुशी और गम का अद्भुत मेल होता है। पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी की तरह अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस भी एक मुट्ठी में खुशी और दूसरी मुट्ठी में गम लेकर आता है। अगस्त और जनवरी के पर्व हमारे पुरखों के संघर्ष की यादगार बन कर आते हैं और हमें स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों और आदर्शों की याद दिलाते हैं। वह समय इतना दूर भी नहीं कि उसकी अनुगूंजें हमें झंकृत न कर दें। देश में अभी भी ऐसे हजारों लोग जीवित हैं, जिन्होंने इस संघर्ष में हिस्सा लिया था और अपना बहुत कुछ गंवाया था। यही वजह है कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर देश की उपलब्धियों का मूल्यांकन करते समय हमारा मन उदास हो जाता है। हमें लगता है कि हमारे साथ धोखा हुआ है और इन दोनों दिवसों पर होनेवाले समारोह बिलकुल रस्मी हैं।
क्या अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का चरित्र भी कुछ ऐसा ही है? जब राष्ट्रसंघ ने हर साल 8 मार्च को 'विश्व महिला दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय किया, तब तक दुनिया भर में स्त्री चेतना का संघर्ष एक निर्णायक दौर तक पहुंच चुका था। लेकिन इस संघर्ष को पश्चिमी देशों में जैसी सफलता और मान्यता मिली, वह विश्व के अन्य भूखंडों में रहने वाली आधी आबादी को नहीं मिल सकी। जहां तक हमारे अपने देश का सवाल है, हमने अपने संविधान में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर जगह देने में जरा भी कृपणता नहीं की। हमारा संविधान बनाने वालों ने उन परिस्थितियों में जितना आदर्श संविधान बनाना संभव था, उसकी पूरी कोशिश की। उस विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी उन महानुभावों की थी, जिन पर इस दस्तावेज को लागू करने की लोकतांत्रिक जिम्मेदारी थी। यह काम कितना हुआ और कितना नहीं हुआ, यह हमारे सामने है। किसी भी देश के सांस्कृतिक विकास को आंकने का यह एक विश्वसनीय पैमाना हो सकता है कि वहां स्त्रियों की हालत कैसी है। इस मामले में हम भारतीय अपने आप पर बहुत ज्यादा इतरा नहीं सकते।
यही कारण है कि भारत में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस स्त्रियों का 'कोप दिवस' बन जाता है। वे तरह -तरह के तथ्य और आंकड़े जुटा कर यह साबित करती हैं कि देखो, आज भी हमारे साथ कितना अन्याय हो रहा है। इस दिन हर मुखर स्त्री समाज के विरुद्ध अपने एफआईआर को फिर से लिखती है और उसमें नई घटनाएं जोड़ती है। महिला दिवस पर गाना -बजाना कम होता है और दुखड़ा ज्यादा रोया जाता है। यह स्वाभाविक भी है। साल भर में हम जितनी समस्याओं से फारिग होते हैं, उससे ज्यादा नयी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। इसलिए भारत में नारी संघर्ष के कम से कम दो चेहरे हैं। एक चेहरा मध्यवर्गीय महिलाओं का है, जिसकी मुख्य मांग 'नारी की स्वतंत्रता' की है। वह अपने शरीर, अपनी आत्मा और अपनी पारिवारिक तथा सामाजिक भूमिका को लेकर बहुत ही सचेत है और अपने सारे अधिकार हासिल करना चाहती है। दूसरा चेहरा ग्रामीण महिलाओं या शहर में रहने वाली गरीब महिलाओं का है। उनके लिए स्वतंत्रता से ज्यादा मूल्य दैनंदिन जीवन की सुविधाओं का है। उन्हें देह की आजादी से ज्यादा प्यारी है कई किलोमीटर दूर से पानी लाने और ढिबरी या लालटेन की मद्धिम रोशनी में चूल्हा -चौका करने के बोझ से आजादी।
वे मूर्ख या पागल हैं जो इन दोनों आजादियों को एक-दूसरे के विकल्प के रूप में देखते हैं। जीवन में इस तरह का बंटवारा नहीं होता और न चलता है। यही कारण है कि भारत में महिला आंदोलन तेज नहीं हो पा रहा है। ऐसा लगता है जैसे स्त्रियों के दो अलग -अलग लोक हैं और उनके बीच कोई संवाद नहीं है। मध्यवर्गीय औरत अपने लिए जिस आजादी की मांग करती है, वह आजादी गरीब औरतों को भी चाहिए और उन्हें भी तुरंत चाहिए -कल या परसों नहीं। लेकिन इस आजादी का उपभोग एक ऐसे ढांचे में ही किया जा सकता है, जिसमें मूलभूत भौतिक स्वतंत्रता सभी को हासिल हो। सच तो यह है कि आर्थिक सुरक्षा की चिंता भारत की मध्यवर्गीय महिलाओं के लिए भी उतना ही बड़ा मुद्दा है, जितना निर्धन महिलाओं के लिए। कोई औरत नौकरी करने जाती है, महज इससे यह अनुमान नहीं लगा लेना चाहिए कि उसे आर्थिक सुरक्षा प्राप्त हो गई है। असली सवाल यह है कि वह जो पैसा कमा रही है, उसे खर्च करने का अधिकार किसके पास है। हमारे परिवारों में अभी भी लोकतंत्र कायम नहीं है। लोकतांत्रिक माहौल बनाए बिना परिवार में या समाज में किसी भी वर्ग के वास्तविक अधिकारों की रक्षा नहीं की जा सकती।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर शहरों में और मीडिया में तरह -तरह के रंगारंग आयोजन होते हैं तथा धरना -प्रदर्शनों का तांता लग जाता है, लेकिन कोई भी समूह अपने शहर के रेड लाइट इलाके में जाकर उन औरतों को मुक्त कराने के बारे में नहीं सोचता, जो शोषण और दमन की सबसे बुरी शिकार हैं? यहां शहरी और ग्रामीण का कोई भेद नहीं रह जाता। ये औरतें रहतीं तो शहरों में हैं, पर गांवों और कस्बों से भगाई और उठाई जाती हैं। यह औरतों का तीसरा वर्ग है, जिसके प्रति औरतों के बाकी दोनों वर्गों में पूर्ण उदासीनता देखी जाती है।
इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर एक प्रयोग किया जाना चाहिए। पुरुषों को, पितृसत्तात्मकता को और व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करने के बजाय महिला समूह अपनी अब तक की गतिविधियों पर विचार करें और अपने विश्वासों का वस्तुपरक परीक्षण करें। सिर्फ मांगने से जो मिलता है, वह अकसर सांकेतिक होता है, वास्तविक नहीं। इसी तरह, मांग रखने वालों को तभी कुछ हासिल होता है जब उनमें कुछ दम हो। सवाल है यह दम कैसे हासिल किया जाए। इसके लिए साफ समझ, आत्मीय सामूहिकता और संघर्ष का ठोस कार्यक्रम होना चाहिए।

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