हरिराम पाण्डेय
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने चुनावी मौसम में जनता को सौगात दी है। लोकसभा में वित्त वर्ष 2011-12 का बजट पेश करते हुए प्रणब मुखर्जी ने वेतनभोगियों, उद्यमियों, किसानों के साथ आम उपभोक्ताओं को कुछ-कुछ राहत दी है। यह उनका छठा बजट है। वित्त मंत्री की नजर देश के पांच राज्यों में जल्दी ही होने वाले विधानसभा चुनावों पर है। इसके मद्देनजर इनकम टैक्स छूट की सीमा मौजूदा 1.60 लाख से बढ़ा कर 1.80 लाख रुपये की गयी है।असम, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी, केरल और पश्चिम बंगाल में जल्द ही विधानसभा चुनाव होना हैं। माना जा रहा है कि बजट में नौकरीपेशा लोगों और किसानों को इसी लिये राहत मिली है। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने इनकम टैक्स देने वालों के लिए बजट में कई सुविधाओं की घोषणा की है। अब ऐसे वेतनभोगी जिनको किसी अन्य स्रोत से आमदनी नहीं है, उन्हें इंडिविजुअल टैक्स रिटर्न भरने की जरूरत नहीं होगी। वित्त मंत्री ने इनकम टैक्स छूट की सीमा बढ़ा दी है। महिलाओं के लिए इस सीमा में कोई बदलाव नहीं किया गया है। वहीं सीनियर सिटिजन के लिए टैक्स छूट की सीमा 2,40,000 से बढ़ाकर 2,50,000 रुपये कर दिया गया। साथ ही अब 60 साल से ऊपर के लोग सीनियर सिटिजन के दायरे में आएंगे। इसके साथ ही 80 साल से ऊपर के सीनियर सिटिजन के लिए एक नया टैक्स स्लैब बनाया गया है।वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में कहा कि मंहगाई अभी भी चिंताजनक स्तर पर है लेकिन आने वाले वित्तीय वर्ष में मंहगाई दर कम होने की संभावना है और आर्थिक तरक्की की दर नौ प्रतिशत पर बनी रहेगी।आर्थिक विश्वलेषकों ने अपनी आरंभिक प्रतिक्रिया में कहा है कि इस बजट में विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखा गया है, बजट घाटे में कमी करने के लिए खास कदम नहीं उठाए गए हैं, भ्रष्टाचार और काले धन पर लगाम कसने के लिए भी कुछ ठोस उपाए नहीं सुझाए गए हैं।
गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए केरोसिन तेल और रसोई गैस में मिलनेवाली रियायतें नकद राशि के तौर पर दी जाएगी। इसे सरकार की सब्सिडी पॉलिसी में एक बड़े परिवर्तन और एक बोल्ड कदम के तौर पर देखा जा रहा है।
वित्तमंत्री ने इस प्रक्रिया को जल्द से जल्द लागू करने के लिए एक टास्क फोर्स बनाने की भी घोषणा की है।
वित्त मंत्री का मानना है कि अभी मुख्य चुनौतियां हैं उच्च विकास दर बनाए रखने की, विकास में पूरे देश को शामिल करने की और सरकारी कायक्रमों को बेहतर करने की। जहां ग्रामीण इलाकों में घरों के लिए मिलनेवाले कर्ज कोष को अब 3,000 करोड़ रूपए तक बढ़ाया जा रहा है। पहले ये 2,000 करोड़ का था। वहीं कमजोर वर्गों को दिए गए कर्ज के इंश्योरेंस के लिए मार्गेज रिस्क गारंटी फंड की स्थापना की जा रही है।
वित्त मंत्री ने भुखमरी और कुपोषण जैसी समस्याओं से निपटने के लिए एक राष्टï्रीय फूड बिल को संसद में पेश करने का आश्वासन दिया है। वित्त मंत्री ने सकल घरेलू उत्पाद की दर 8.6 प्रतिशत रहने की संभावना जाहिर की है। वहीं उम्मीद जतायी है कि कृषि क्षेत्र में वृद्धि की दर 5.4 प्रतिशत होगी. सेवा क्षेत्र में वृद्धि 9.6 प्रतिशत की होगी। उद्योग क्षेत्र में वृद्धि दर 8.1 प्रतिशत होने की संभावना है। इन सारे सुनहले सपनों के बीच इस कठोर सच्चई को देखना जरूरी है। वह हकीकत है कि हमसे वसूले गये रूपयों को सरकार खर्च कैसे करती है।
लोगों को टैक्स अदा करने के लिए प्रेरित करने के लिए बनवाए विज्ञापन में सरकार यही कहती है कि टैक्स का इस्तेमाल उन्हीं की भलाई में होगा, पर सच कुछ और है। सरकार आम लोगों से सीधे तौर पर वसूले जा रहे कर (प्रत्यक्ष कर) की आधी रकम भी सामाजिक क्षेत्र में खर्च नहीं कर रही है। सरकार ने वित्त वर्ष 2010-11 के दौरान अप्रैल से जनवरी तक 3,17,501 करोड़ रुपये का राजस्व सिर्फ प्रत्यक्ष कर के रूप में हासिल किया है। जबकि सरकार लोगों के हित में, सामाजिक क्षेत्र में सीधे तौर पर महज 1.37 लाख करोड़ रुपये (प्रत्यक्ष कर राजस्व का एक तिहाई से थोड़ा ज्यादा) ही खर्च कर रही है। देश को कर के तौर पर मिलने वाले राजस्व का एक बड़ा हिस्सा रक्षा बजट में चला जाता है। प्रत्यक्ष कर में व्यक्तिगत आयकर, कंपनियों से मिलने वाला कर, सेक्योरिटीज ट्रांजैक्शन टैक्स, फ्रिंज बेनेफिट टैक्स और बैंकिंग लेनदेन से जुड़े टैक्स शामिल होते हैं।
बीते अप्रैल से जनवरी तक इसकी वसूली छले साल की तुलना में 20 फीसदी बढ़ी है। लेकिन इस दौरान इससे कहीं ज्यादा रकम घोटाले की भेंट चढऩे की जानकारी उजागर हुई। भारत सरकार सामाजिक क्षेत्र पर मात्र 1.37 लाख करोड़ रुपये (1370 अरब रुपये) खर्च कर रही है, जो वित्त वर्ष 2010-11 के लिए तय सालाना बजट का करीब 37 फीसदी है। इसमें स्वास्थ्य पर करीब छह फीसदी और शिक्षा पर करीब 9 फीसदी खर्च किया जा रहा है। यह कई देशों द्वाराइन्हीं मदों में किये जा रहे व्यय से बहुत कम है।
Monday, February 28, 2011
आम बजट : सबके लिये थोड़ा-थोड़ा
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अरब की क्रांति : लोकतंत्र का दावानल
हरिराम पाण्डेय
लीबिया में अंतरिम सरकार की घोषणा हो चुकी है और आज नहीं तो कल वह कथित रूप से आजाद भी हो जायेगा। मध्य पूर्व के देशों में भड़की क्रांति की लपटों का सीधा अर्थ है सर्वसत्तावाद, कुनबापरस्ती और अत्याचारपूर्ण शासन का अंत और लोकतंत्र की स्थापना। पूरा मध्य पूर्व देश वर्तमान में बेकारी, अत्याचार , भ्रष्टïाचार, मानवाधिकारों के हनन और व्यापक कुनबापरस्ती का शिकार है। लेकिन हमारे ज्यादा ज्ञानी लोग और मीडिया इस क्रांति पर नाक भौं सिकोड़ रहा है तथा शासकों को ही बता रहे हैं कि कैसे प्रभावशाली लोकतंत्र की स्थापना करें। लेकिन अरब विश्व के साथ उसकी सबसे बड़ी दिक्कत उसका सामाजिक 'साइकÓ है। अरब के सामाजिक संस्कारों में सर्वसत्तावाद घुला हुआ है इसलिये यह कहना अभी मुश्किल है कि इस क्रांति का भविष्य क्या होगा और उसका राजनीतिक प्रतिफल कैसा स्वरूप ग्रहण करेगा। अब इस्लामी धर्मग्रंथों की आधुनिक नजरिये से व्याख्या नहीं की जा सकी है और ना इस्लाम इसे बर्दाश्त करेगा ऐसे में आधुनिक लोकतंत्र के बारे में सोचना बड़ा कठिन है। क्योंकि शरिया कानूनों और आधुनिक लोकतंत्र के आदर्शों में बड़ा अंतर है, खासकर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिये स्वतंत्र चुनाव आयोग की स्थापना, औरत और मर्द को समान अधिकार , मानवाधिकार का सम्मान , स्वतंत्र न्यायपालिका और मानव जाति के लिये समग्र विकास। अल्लाह की सर्वोच्च सत्ता के नाम पर वहां लोगों को अपना शासक चुनने के अधिकार नहीं हैं। यही नहीं मध्य इसराइल में बीसवीं सदी में स्थापित हिज्ब- ए- तहरीर उस जैसे कई संगठन, जिनकी शाखाएं दुनिया के कई भागों में हैं, अब भी लोकतंत्र को कुफ्र मानते हैं और शरिया कानून भी इसकी मान्यता नहीं देता। 'द इकोनोमिस्टÓ ने हाल में एक सर्वे प्रकाशित किया था कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र की क्या स्थिति है। इसमें एक सूचकांक दिया गया था जिसके अनुसार पूरी दुनिया में सम्पूर्ण लोकतंत्र 26 देशों में है जबकि दोषपूर्ण लोकतंत्र 53 देशों में , मिश्रित सत्ता 33 और सर्वसत्तावाद 55 देशों में है। जिन इस्लामी देशों में इस समय आंदोलन हो रहे हैं वे सूचकांक के अंतिम पायदान पर हैं। सच तो यह है कि जिस देश में भी मुस्लिम आबादी का प्रतिशत ज्यादा है वहां दोषपूर्ण लोकतंत्र भी नहीं है पूर्ण लोकतंत्र की बात क्या कहें। दरअसल दुनिया के आठ देश ऐसे हैं जहां चुनाव तो होते हैं पर वहां भी संविधान का आधार इस्लामी कानून ही है। विकीपीडिया के मुताबिक ये आठ देश हैं अफगानिस्तान, बहरीन, ईरान, मॉरितानिया , ओमान, पाकिस्तान, यमन और सऊदी अरब। अन्य 14 देशों - अल्जीरिया, बंगलादेश, मिस्र, इराक, कुवैत, लीबिया, मलेशिया, मालदीव, मोरक्को, सूडान , सोमालिया और सोमाली लैंड - ने आधिकारिक तौर पर सरकारी धर्म ही इस्लाम मान लिया है। बाकी 19 मुल्क जिनमें तुर्की भी शामिल हैं खुद को धर्मनिरपेक्ष राष्टï्र बताते हैं। इन देशों में खिलाफत शासन दरअसल आधुनिक नजरिये से लोकतांत्रिक नहीं था लेकिन इसे ही वे आदर्श शासन व्यवस्था मानते थे। इसी तरह इन देशों में लागू शासन व्यवस्था राजा या अमीर या राष्टï्राध्यक्ष के नेतृत्व में मस्जिद तथा सेना के मेलजोल से शासन चलता है और ये शासक आधुनिक लोकतंत्र का समर्थन नहीं करते। इस्लामी देशों के मनमाने शासकों में से अधिकांश ने अपनी सत्ता को कायम रखने के लिये शक्तिशाली सैन्य और खुफिया तंत्र को विकसित कर लिया है साथ ही कई पश्चिमी देशों से समझौता भी किया हुआ है। अब ऐसी स्थिति में इन देशों में लोकतंत्र का भविष्य बड़ा खराब लगता है। इन देशों के आंदोलनकारी अपने नेताओं से मोटामोटी स्वतंत्रता तथा आजादी की अपेक्षा करते हैं लेकिन स्पष्टï 'रोडमैपÓ के अभाव में राजनीतिक लक्ष्य की प्राप्ति में संदेह है।
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Saturday, February 26, 2011
विकासोन्मुख रेल बजट
हरिराम पाण्डेय
तमाम अटकलों और विरोधों के बावजूद रेल मंत्री सुश्री ममता बनर्जी ने भारत जैसे महंगाई पीडि़त देश के लिये प्रशंसनीय बजट पेश किया है। अटकलें थीं कि वे बंगाल पर ज्यादा जोर देंगी और देश के शेष भाग को नजरअंदाज कर देंगी। विपक्ष इसके लिये तैयार भी था। लेकिन आम आदमी को सीधा प्रभावित करने वाला रेल भाड़ा और यात्री किराये में कोई वृद्धि न कर ममता जी ने अच्छा काम किया। हालांकि यह लगातार आठवां साल था कि यात्री किराया नहीं बढ़ाया गया। रेल माल ढुलाई भाड़ा और यात्री किराया नहीं बढ़ाये जाने से महंगाई पर रेलवे का असर नहीं होगा और जैसा कि कहा जा रहा था कि महंगाई बढ़ जायेगी वैसा नहीं हुआ। ममता जी ने ढांचागत सुधार के लिये निवेश का प्रस्ताव कर रेलवे की क्षमता में सुधार की ओर कदम उठाया है। आरक्षण की दर में कमी करना भी अच्छा कदम है। यही नहीं ममता जी ने जो तोहफा दिया है उसमें सबसे महत्वपूर्ण है 700 किलोमीटर नयी रेल लाइनें बिछाये जाने की योजना और सात साल में सिक्किम को छोड़ कर सभी राज्यों की राजधानियों को रेल से जोड़े जाने की योजना। इन सारी सौगातों के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण बात सामने आती है वह है यात्री सुरक्षा और वित्त प्रबंधन। वित्त मंत्रालय और योजना आयोग ने रेल मंत्रालय को कहा था कि किराये के ढांचे में बदलाव करें लेकिन इस बजट में रेल मंत्री ने यह नजर अंदाज कर दिया। दूसरी तरफ उन्होंने खर्चे बढ़ा दिये, साथ ही वेतन वृद्धि , डीजल की कीमतों में वृद्धि के खर्चे बढ़ गये, ममता जी ने ऐसा कुछ नहीं कहा कि आय कैसे बढ़ेगी। यात्रियों पर जितना खर्च होता है वह किराया नही बढ़ाने के कारण 2006-7 के 6042 करोड़ से 2009-10 में बढ़कर 19120 करोड़ हो गया। यह साल तो रेलवे के लिये और कठिन साबित होगा क्योंकि इस साल वेतन वृद्धि और उड़ीसा तथा कर्नाटक से बाहर लौह अयस्क की ढुलाई पर रोक के कारण आय और कम हो गयी है। इस वित्त वर्ष में ही खर्च 1,330 करोड़ रुपये बढ़ गया है, जबकि कमाई 1,142 करोड़ रुपये के करीब घट गयी है। आज रेलवे को सौ रुपये कमाने केलिए 95 रुपये खर्च करने पड़ते हैं, जबकि वित्त वर्ष 2007-08 के दौरान यह अनुपात (ऑपरेटिंग रेशियो) इससे काफी कम (75.9/100) था। जाहिर है, ऐसे में रेलवे से बेहतर सुविधा की अपेक्षा रखना बेमानी है। रेल के खजाने में अब सिर्फ 5,000 करोड़ रुपये बतौर रिजर्व राशि जमा है जो हाल के दौर में सबसे कम राशि है। रेलवे के पास इतना पैसा नहीं है कि वह इसे कैपिटल फंड और विकास फंड में जमा कर सके ताकि नयी चीजें खरीदी जा सकें और यात्री सुविधाओं में बढ़ोतरी की जा सके। पिछले साल रेलवे कैपिटल फंड में एक रुपये भी नहीं जमा कर पायी जो किसी भी संगठन की खस्ताहाली का पहला सबूत है।
अब बात आती है कि इस बजट में जो लंबी-चौड़ी घोषणाएं की गयी हैं, उन्हें लागू कौन करेगा। यह तो जग जाहिर है कि ममता बनर्जी की निगाह बंगाल के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर टिकी है। सवाल है कि अगले चंद महीनों में अगर देश को एक नया रेल मंत्री मिल जाता है, तो क्या आज के बजट में जिन बड़ी- बड़ी योजनाओं का एलान किया गया है उसे ठीक ढंग से लागू किया जा सकेगा? सवाल इस बात को भी लेकर उठाये जा रहे हैं कि ऐसे समय में जबकि रेलवे की माली हालत बेहद खस्ता है और रेलमंत्री खुद भी इस बात को कबूल कर रही हैं तो इन योजनाओं के लिए पैसा कहां से आएगा? यह भी कहा जा रहा है कि रेलवे की जो पुरानी परियोजनाएं पिछड़ गयी हैं, उनको लेकर मंत्रालय का रुख बहुत स्पष्ट नहीं है। इस सिलसिले में एक कमीशन तो बना दिया गया है, जो इस बात का ब्योरा तैयार करेगा कि जिन पुरानी परियोजनाओं का काम पिछड़ गया है, उसे लेकर आवंटित राशि में से कितनी रकम बची है। लेकिन उन योजनाओं में कैसे तेजी लायी जाएगी, इसको लेकर बजट में कुछ साफ-साफ नहीं बताया गया है। लेकिन अभी जो ताजा स्थिति है उसे देखकर कहा जा सकता है कि बजट विकासोन्मुख है और हमें सकारात्मक सोचना चाहिये।
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Wednesday, February 23, 2011
कलेक्टर के अपहरण से उपजे सवाल
माओवादियों ने गत 16 फरवरी को मलकानगिरी के कलेक्टर को अगवा कर लिया था। उनके साथ एक इंजीनियर का भी अपहरण हुआ था। किसी जिलाधिकारी का अपहरण भारत के इतिहास की शायद पहली घटना है। कांधार जैसी एक डील के बाद उन्हें रिहा करा लिया गया। एक बार फिर हमारी व्यवस्था और अस्मिता बंदूकों के सामने झुक गयी। इसके साथ ही हिंसा पर भरोसा रखने वालों के लिए यह घटना एक नयी राह के रूप में सामने आयी है। नक्सली अथवा माओवादी या लाल आतंकी शब्द चाहे जो गढ़ लें और आदर्श चाहे जो बना लें पर हकीकत यह है कि नक्सली आतंकवाद की नयी व्याख्या कर रहे हैं। विकास के अभाव में उपजे आक्रोश के कारण हथियार उठाने पर बाध्य हुए लोगों के छद्म में पूंजीपतियों और राजनीतिज्ञों के ये मददगार लोग असल में व्यवस्था को घुटनों पर बैठा कर अपने 'स्वामियोंÓ के निहित स्वार्थों को पूरा करने की कोशिश में हैं। आप पूछेंगे कैसे? इस सवाल के उत्तर पर बातें करने के पहले माओवाद के चंद सूत्रों को समझना होगा। माओ ने कहा था कि दुनिया की हर पूंजी का एक एक हिस्सा धूल और खून से अटा पड़ा है। माओ ने चाहे जिस कारण यह बात कही हो पर इसका एक अर्थ सामाजिक विस्थापन की ओर इशारा करता है। पूंजीवाद अपने शोषण को बनाए रखने के लिए सामाजिक संबंधों और सामाजिक समूहों को विस्थापित करता है। सामाजिक तौर पर वैकल्पिक व्यवस्था किए बगैर किया गया विस्थापन हिंसा को जन्म देता है। अब सवाल उठता है कि विकास होगा तो विस्थापन होना ही है। सड़कें बनेंगी, कारखाने लगेंगे या खानेें खोदी जायेंगी तो यकीनन विस्थापन होगा। गांवों से शहरों की ओर हुआ विस्थापन और स्थानान्तरण विश्वव्यापी फिनोमिना है। यह पूंजीवादी व्यवस्था की हिंसा है। माओवादी हिंसा पर जब भी बात होती है तो बड़ी सफाई से इस बात को पर्दे के पीछे डाल दिया जाता है। माओवादी हिंसा विकास के क्रम में अवरोध है। माओवादी हिंसा के पक्ष में हो सकता जेनुइन तर्क हों, लेकिन माओवादी हिंसा अंतत: बड़ी पूंजी की सेवा कर रही है। मसलन माओवादी हिंसाचार से आदिवासियों के इलाकों के विकास का प्रश्न केन्द्रीय सवाल नहीं बन पाया है बल्कि माओवादियों से इलाके को मुक्त कराने का लक्ष्य प्रमुख हो गया है। अब आपसे कोई सवाल पूछता है कि मलकानगिरी या झारखंड या छत्तीसगढ़ की जनता को शांति चाहिये या विकास तो जवाब होगा कि शांति। इस पॉपुलर डिमांड के नाम सरकार वहां अद्र्धसैनिक बलों को तैनात कर देती है। शोषक वर्ग के रुपये में से हिस्सा माओवादियों को भी मिलता है और सरकारी अफसरों - नेताओं को भी। मलकानगिरी के कलेक्टर का अपहरण एक सीधा माओवादी ताकत का सवाल नहीं है। माओवादियों और नेताओं को मिलने वाली 'चौथÓ में गड़बड़ी और जिन्हें जेलों से रिहा किया गया उनकी 'पोल खेलÓ की धमकियां संभवत: इस अपहरण के कारणों में प्रमुख हैं। जब तक इन निहित कारकों का विश्लेषण कर उन्हें खत्म नहीं किया जायेगा तब तक न ऐसे अपहरणों की पुनरावृत्ति रोकी जा सकेगी और ना माओवाद का प्रसार।
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हंसी आती है उनकी अक्ल पर
हंसी आती है उनकी अक्ल पर
अभी हाल में मिस्र, ट्यूनिशिया, बहरीन यमन, लीबिया, चीन इत्यादि देशों में आंदोलन हुये तख्ता पलट हुआ। उस आंदोलन की आंच हमारे देश में भी लगने लगी। कुछ बड़े जानकार नेता कहने लगे कि यहां भी वैसी ही क्रांति सुलग रही है और कभी भी शोलों में भड़क सकती है। कई नेता यह भी सफाई देने में लग गये है कि उनकी सरकार और होस्नी मुबारक की सरकार में कोई समानता ही नहीं है। बातें बड़ी - बड़ी होने लगी हैं। सुनकर ऐसा लगता है कि कहीं सुबह- सुबह खबर ना मिले कि ब्रिगेड मैदान या रामलीला मैदान या कफ परेड या गांधी मैदान या देश का कोई और मैदान कहीं रात में तहरीर मैदान में बदल गया। लेकिन जिस तहरीर यानी आजादी को हासिल करने के लिए वे अपनी जान दे रहे हैं, वह 60 साल हो गए हमें हासिल हुए। यहां भी 60 साल पहले कुछ जुनूनी लोगों ने उनकी तरह जंग लड़कर हमें वोट देने का, अपनी सरकार बनाने का और मुल्क को जनता की सोच के हिसाब से चलाने का हक दिया था। लेकिन हम उसे इस्तेमाल करने में कोई नहीं रुचि रखते हैं। जिन नेताओं को वैसी ही क्रांति की उम्मीद नजर आ रही है और जो लोग इससे हमारे देश की स्थिति की तुलना कर रहे हैं उनकी अक्ल पर हंसी आती है। अगर इस आंदोलन को समाज वैज्ञानिक नजरिये से देखें तो लगेगा कि सारे आंदोलनों या क्रांतियों में एक खास ट्रेंड है वह है डेमोग्राफी यानी आबादी के अनुपात का ट्रेंड। मध्य पूर्व और अफ्रीकी देशों में जो इंकलाब हुये उनके पीछे के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कारणों को असर दार बनाने में और उससे क्रांति का स्वरूप प्रदान करने में आबादी के अनुपात का बड़ा हाथ था। इन देशों की आबादी में युवाओं का हिस्सा बढ़ते-बढ़ते ऐसी हदों में पहुंच गया है, जहां मौका पाते ही सत्ता का हिसाब गड़बड़ा जाता है। ट्यूनीशिया (जहां से बगावत की लहर शुरू हुई) में 52 फीसदी आबादी 30 साल से कम उम्र की है। मिस्र की तो 61 प्रतिशत आबादी इस श्रेणी में आती है, इसीलिए वहां इंकलाब का ऐसा नाटकीय चेहरा दिखाई दिया। यमन में यह अनुपात एक-तिहाई का है, लेकिन वहां कुछ बरसों पहले तक यह ज्यादा ही था, जब जन्म दर काफी ऊंची थी। दरअसल अरब देश अपनी जवानी की इस बहार को बस पार ही करने वाले हैं। अगर वहां इस वक्त बगावत नहीं होती या नाकाम हो जाती, तो उसका मौका गुजर जाता। लेकिन डेमोग्रफी के इस मोड़ पर, जिसे अंग्रेजी में 'यूथ बल्जÓ और हिंदी में 'जवानी का दौरÓ कहा जा सकता है, इंकलाब का बहाना क्यों बन जाता है? इसका कारण हैं कि नौजवान, अगर वे दुनिया से वेल कनेक्टेड हैं, जोकि आज की इंटरनेट, मोबाइल फोन और टीवी की दुनिया में सरल है, तो वे तरक्की, सहूलियत, शौक, तालीम और रोजगार की मांग करेंगे और अगर उन्हें मनमाफिक विकास नहीं मिल रहा है, तो वे ऐसे शासक के खिलाफ बगावत किए बिना नहीं रहेंगे, जो उन्हें दुनिया से बराबरी का मौका नहीं देता हो। अब बात आती है भारत की। भारत का युवा क्या सोचता है, इस बारे में तस्वीर पूरी तरह साफ नहीं है। वह शिक्षा, तरक्की और तनख्वाह चाहता है, यह तो मानी हुई बात है, लेकिन दूसरी चीजों पर उसका नजरिया क्या है। अगर युवा अपनी बेहतरी को लेकर इतने कमिटेड हैं, तो उन्हें अमन-चैन, राजनीतिक स्थिरता की दरकार होगी, लिहाजा वे मंदिर-मस्जिद के झगड़े, भारत-पाक लफड़े और आइडियॉलजी की तकरारों में नहीं पड़तेे होंगे। उनके पास जाति और वे ऐसी पाटिर्यों और नेताओं का साथ देंगे, जो सिर्फ तरक्की की जबान बोलते हों। हाल के एक सर्वे में यह बात खुल कर सामने आयी है। दिक्कत यह है कि भारत के युवा सियासत को लेकर उदासीन हैं। राजनीति से उन्हें उकताहट होती है, वे नेताओं को गालियां देते हैं और वोट नहीं डालते। हमें वोट देकर सरकार बदलने, ईमानदार आदमी को सत्ता में लाने, भ्रष्टï नेता को धूल चटाने जैसी आसान ताकत मिली है, उसका तो हम इस्तेमाल नहीं करते, और वे हैं इंकलाब की बात करते हैं।
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कसाब को फांसी लगे ही तो क्या होगा?
अजमल कसाब को फांसी दी ही जायेगी, यह तय है। लेकिन कब तक यह नहीं तय है। अभी तक अफजल गुरु के गले में फंदा नहीं पड़ सका। फांसी का फंदा डालने में इतनी तकनीकी गलियां हैं कि कम से कम दस साल तो वह जेल में भारतीय जनता के टैक्स की रोटियां तोड़ता रहेगा। क्योंकि पिछले दिनों कसाब की फांसी को लेकर किसी के प्रश्र पर माननीय गृह मंत्री ने कहा था कि कसाब की मर्सी पिटिशन पर 50 लोगों की याचिका के बाद ही विचार किया जाएगा। आखिर क्यों? पूरे देश की भावना को ताक पर रखकर कानून की दुहाई क्यों दी जा रही है? क्या सांसदों और मंत्रियों को अपना वेतन बढ़वाने के लिए अनिश्चितकाल तक राष्ट्रपति के दस्तखत का इंतजार करना पड़ता है? जब आतंकवादी इतना बड़ा कदम उठा सकते हैं तो क्या हम एक छोटा कदम भी नहीं उठा सकते कि किसी सुनसान में कसाब को पहले ही 'ठोंकÓ दिया जाता। सारा झगड़ïा ही खत्म। लेकिन ऐसा नहीं करके देश की समस्त भावना को ताक पर रख कानून की गलियों में सरकार उलझी पड़ी है। इसके बावजूद इस बात की गारंटी कौन लेगा कि कसाब को फांसी देने से पहले ही उसे छुड़ाने के लिए कोई प्लेन हाइजैक नहीं हो जाएगा, किसी जिले के डी एम या एस पी या किसी राज्य के मंत्री का अपहरण नहीं हो जायेगा? यहां यह लिखना लोकतंत्र की तौहीन और हो सकता है कानून का उल्लंघन माना जाय पर जन भावना की मांग तो यह है कि कसाब को उसी जगह पर पत्थर मार कर खत्म कर दिया जाय जहां उसने निर्दोष लोगों को गोलियों से भून डाला था।
अफजल गुरु जैसे अन्य आतंकियों की तरह कसाब ज्यादा दिन तक बच भी नहीं पाएगा। क्योंकि इस बार सरकार जनता के गुस्से की अनदेखी नहीं कर सकती। उसके गले में फांसी का फंदा कसने में सरकारी तंत्र हीला-हवाली करेगा इसमें भी कोई शक नहीं है। लेकिन इस गुस्से के बावजूद जरा ठंडे दिमाग से सोचें। कसाब तो आतंक के नाले का एक मामूली कीड़ा है। कीड़े को तो हम अपने पैरों तले दबा देंगे लेकिन क्या उससे नाले का बहना रुक जाएगा? एक कसाब मरेगा तो हजारों और पैदा हो जाएंगे। वैसे भी कसाब तो आतंक के 'हॉल ऑफ फेमÓ में दाखिल हो ही गया है। कड़वी सच्चाई यह है कि हम आतंक के पेड़ की जड़ में म_ा डालना तो दूर, उसकी शाखों को भी नहीं कतर पाते। इतिहास जो भी रहा हो, लेकिन 60 साल में हम कोई ऐसा रास्ता नहीं निकाल पाए कि आतंक पनपे ही नहीं। न तो डर दिखाकर, न ही प्यार जताकर। अगर सीमापार पैदा हो रहे आतंकवाद की वजह केवल कश्मीर है तो क्यों 6 दशकों में हम इसे सुलझाने में नाकाम रहे हैं?
इस बात की गारंटी कौन लेगा कि मुंबई पर दोबारा आतंकी हमला नहीं होगा? सीना ठोककर कौन यह कहेगा कि दिल्ली, जयपुर, अहमदाबाद, अजमेर , कोलकाता या देश का कोई भी भाग सुरक्षित रहेगा। क्या कोई माई का लाल आगे आकर कहेगा कि जंगल में घिरकर 76 जवान अब नहीं मरेंगे या किसी जिलाधिकारी का अपहरण अब नहीं होगा? कोई नहीं कहेगा, क्योंकि यह कहने के लिए कनविक्शन चाहिए, कुछ करने का जुनून चाहिए, हिम्मत चाहिए। कुर्सी और पद की होड़ से आगे जाने की इच्छाशक्ति चाहिए। सोचिये हमारी क्या दयनीयता है। अरब सागर में सैकड़ों किलोमीटर चलकर एक नाव कराची से मुंबई पहुंच गयी। न तो कोस्ट गाड्र्स ने देखा, न नेवी ने और न ही स्थानीय पुलिस को भनक लगी। सबने आंखें बंद कर लीं, इसके लिये कौन दोषी है? बात बुरी लगेगी पर असल में कसाब केवल एक प्रतीक है हमारी नाकामी का। कसाब नाम है उस ढीलीढाली व्यवस्था और सड़ी हुई नैतिकता का जिसका खामियाजा हम हर दिन भुगत रहे हैं। खबर है कि कसाब को फांसी लगने में लगभग दस साल लग जायेंगे। एक आदमी जिसने ए के 47 रायफल लेकर खुलेआम दर्जनों लोगों को भून डाला उसे फांसी देने में हमारी व्यवस्था को वर्षों लग जाते हैं और हमारे जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ता।
हम क्यों भूल जाते हैं आल्हा की वह पंक्ति
'जाके बैरी चैन से सोये
वाके जीवन पर धिक्कारÓ
Posted by pandeyhariram at 5:51 AM 0 comments
सरकार ने घोटालों की जांच के लिये विपक्ष की मांग को मानते हुए संयुक्त संसदीय समिति (जे पी सी) के गठन की मांग को मान लिया है और इसके लिए आज घोषणा होगी। भ्रष्टïाचार को दूर करने में इससे कितना लाभ होगा और कितना हिस्सा राजनीति के शोर में गुम हो जायेगा यह तो समय बतायेगा पर इससे ऐसा तो महसूस होता है कि भ्रष्टïाचार एक मुद्दा है और उसे यूं ही नहीं छोड़ï देना चाहिये। अगर अपने देश में भ्रष्टïाचार के खिलाफ कोई मुहिम शुरू होती है तो उसे इस आधार पर खारिज करना बुद्धिमानी नहीं कि अब भ्रष्टïाचार कोई मुद्दा नहीं रह गया है। यह बात इसलिए कह रहा हूं कि कई लोगोंं ने भी बातचीत में कहा कि भ्रष्टïाचार पर अब सिर्फ वही लोग कह-सुन रहे हैं जिनके पास कोई काम-धंधा नहीं रह गया है। इन साथियों के मुताबिक जो जहां जिस सीमा तक भ्रष्टïाचार का फायदा उठा सकता है, उठा रहा है। जो और कुछ नहीं कर सकता, वह वोटों का ही सौदा कर लेता है। इसलिए अब भ्रष्टïाचार आम लोगों की नजर में कोई मुद्दा नहीं है। सच है कि एक के बाद एक कई चुनावों ने इस तथ्य को स्थापित कर दिया है कि भ्रष्टïाचार अब कोई चुनावी मुद्दा नहीं है, लेकिन, हमें भूलना नहीं चाहिए कि चुनाव सब कुछ नहीं है। चुनाव में अगर भ्रष्टïाचार मुद्दा नहीं बनता तो उसकी एक वजह यह भी है कि पक्ष-विपक्ष सब उसमें एक जैसे होते हैं। तो, उस मुद्दे पर आखिर वोटर किसके खिलाफ किसे समर्थन दे? लिहाजा वह उदासीन हो जाता है।
यहां एक बात पर गौर करें भ्रष्टïाचार सिर्फ नैतिकता का मसला नहीं है। भ्रष्टïाचार का मतलब अवसर भी है। सच है कि अपवादों को छोड़ दें तो जो जहां जिस सीमा तक भ्रष्टïाचार का फायदा उठा सकता है, उठा रहा है लेकिन यह बात भी ध्यान देने लायक है कि कौन कितना फायदा उठा पा रहा है? इसका मतलब यह नहीं है कि आम वोटर भ्रष्टïाचार को बर्दाश्त करता रहेगा जिसके चलते उसे वृद्धावस्था पेंशन से लेकर बीपीएल कार्ड तक - हर चीज के लिए तरसते रहना पड़ता है?
बहरहाल, भ्रष्टïाचार चुनावी मुद्दा भले न हो, पर एक मुद्दा है और बड़ा मसला है। यह ऐसा मुद्दा है जिसे परिस्थितियों का साथ मिले तो दौलत और ताकत के नशे में चूर हो रहे लोगों को रातोंरात सड़क पर ला सकता है। लेकिन सवाल है कि जो लोग भ्रष्टïाचार के खिलाफ अभियान चलाने की बात कर रहे हैं क्या वे आम आदमी की उम्मीदों को समझ रहे हैं? अफसोस वे नहीं समझ रहे हैं।
अगर वे समझ रहे होते तो भ्रष्टïाचार जैसे मुद्दे को महज एक बिल (लोकपाल बिल) या एक कमिटी के गठन से नहीं जोड़ देते। बेशक, सीबीआई और पुलिस से लोगों का विश्वास टूट चुका है। अब सवाल उठता है कि कोई भी क्या करेगा? जनता और विपक्षी दल क्या कानून बनावायेंगे? वह कानून कितना ताकतवर होगा? प्रधानमंत्री से ज्यादा ताकतवर तो नहीं। जब एक ईमानदार प्रधानमंत्री भ्रष्ट तंत्र के सामने इतना लाचार हो सकता है तो भला किसी एक पदाधिकारी की क्या बिसात?
कहने वाले कहते हैं कि एक शेषन ने कैसे पूरे चुनाव तंत्र को कस दिया था पर शेषन अपनी पूरी ताकत लगाकर भी चुनाव में अच्छे प्रत्याशियों को नहीं ला पाए थे, न उन्हें जिता पाए थे। और यह सवाल भी है कि चुनाव आयुक्त बनने से पहले शेषन ने इसी नौकरशाही में पूरी जिंदगी बिताई थी। यानी उनके रहते, उनके देखते ही यह तंत्र मौजूदा हाल में पहुंचा था। सौ बातों की एक बात यह कि जब तंत्र सड़ चुका है तो तंत्र में पलने वाला कोई एक अधिकारी उसे ठीक नहीं कर सकता। वह पूरी ताकत लगाकर अपने आपको ठीक रख ले यह भी बहुत बड़ी बात होती है।
तंत्र को सिर्फ जन ही ठीक कर सकता है । इसीलिए जब हम जन की शरण में जाते हैं तो उसे पूरे तंत्र को ठीक करने का कार्यभार सौंपना चाहिए। एक कमिटी , एक बिल, एक कानून या एक सरकार को बदलने का कार्यभार देकर हम उसे मौजूदा तंत्र के उसी खूंटे से बांध देते हैं जिससे मुक्त होने की हसरत लेकर वह अपनी बिखरी ताकत को समेट रहा होता है। जब जन चाहे तो तंत्र को बदल दे। इसकी मिसाल ट्यूनीशिया में मिली। एक शिक्षित बेरोजगार युवक (जिसका ठेला पुलिस ने तोड़ दिया था) की खुदकुशी ने विरोध की वह आंधी पैदा कर दी कि राष्टï्रपति को देश छोड़कर भागना पड़ा। देखते-देखते मिस्र में जनविरोध की वह लहर उठी कि राष्टï्रपति होस्नी मुबारक ने घुटने टेक दिये। फिर हमारे देश में ऐसा क्यों नहीं हो सकता?
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बिगड़ते हालात, मजबूर सरकार
आर्थिक उदारीकरण के 20 साल हो गये। सचमुच भारत में भारी बदलाव आया है। दिल्ली और मुम्बई को सरकार विश्वस्तरीय महानगर बता रही है। बेशक ऐसा ही है और उदारीकरण के कारण ही ऐसा ही हुआ है। लेकिन इस विकास का लाभ अधिकांश अमीरों को ही मिला है। देश में 52 खरबपति हैं और लाख से ऊपर करोड़पति। शहरों में बड़े बड़े मॉल्स खुल गये और उनमें विश्वस्तरीय सामान बिकते हैं और सड़कों पर आयातित कारों का काफिला तो आम बात है। कुल मिला कर बहुत बड़े और रसूख वाले लोगों को इस आर्थिक सुधार से भारी लाभ हुआ है। जहां तक आम आदमी का सवाल है वह तो बेचारा अभी कन्फ्यूज्ड है और इस चमक- दमक से चुंधियाया हुआ है। आज भी एक आदमी के लिये बढिय़ा टी वी सेट या मोबाइल फोन या गरीब रिहाइशी इलाके में एक कमरा पाना मुश्किल है। ये हालात नहीं बताते कि हमारी तरक्की हुई है। अभी भी दस करोड़ लोग झुग्गी- झोपडिय़ों में जीवन गुजार रहे हैं, लगभग 15 करोड़ लोगों को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं है। अच्छी नौकरियां उच्च शिक्षित लोगों के लिये हैं और बढिय़ा व्यवसाय के लिये पूंजी की बाध्यता है। दूसरी तरफ विशाल मध्य वर्ग का एक हिस्सा जिसकी आबादी लगभग 30 करोड़ है वह खुशहाल तो है पर धीरे- धीरे एक बड़े बाजार के रूप में बदलता जा रहा है। पिछले तीन वर्षों में खाद्य पदार्थों की महंगाई का इस समुदाय पर उतना असर नहीं पड़ा है पर गरीब तबके के लोगों के लिये तो एक कठिन स्थिति पैदा हो रही है। उन्हें जीने के लिये कई जरूरियातों की कटौती करनी पड़ रही है जिसमें बच्चों की शिक्षा भी शामिल है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक विगत तीन वर्षों में लगभग 80 लाख बच्चे स्कूलों से अलग हो गये। महंगाई के कारण ग्रामीण गरीबों और मजदूरों की हालत और खराब है। उनकी क्रयशक्ति तेजी से घटती जा रही है। यही नहीं एक बहुत बड़ा वर्ग है जो असंगठित क्षेत्र में काम करता है और उसकी आमदनी बढऩे के बजाय तेजी से घटती जा रही है और उसके बढऩे की कोई उम्मीद भी नहीं है। पिछले दो वर्षों से मानसून के अच्छा होने के बावजूद खाद्य पदार्थों के दाम बढ़ते जा रहे हैं, क्योंकि हमारे वितरण और आपूर्ति के नेटवर्क में भ्रष्टïाचार का कीड़ा लग चुका है। शासन में चुस्ती और सख्ती नहीं रहने के कारण भारी घोटाले और फिजूलखर्ची हो रही है। व्यापारिक क्षेत्र ज्यादा मुनाफे के लालच में जमाखोरी में लगा है और कीमतों को बढ़ाने की साजिश का पुर्जा बना हुआ है। इन सबके कारण आर्थिक सुधारों का लाभ सब तक नहीं पहुंच पाया। नेता, व्यवसायी और पत्रकारों की साठ गांठ की गाथा अब सबके लिये पुरानी हो गयी है। लाखों करोड़ों के घोटालों की खबरें अब चौंकाती नहीं हैं। हमारी नैतिकता दिनों दिन घटती जा रही है। यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी माना है कि हमारा 'नैतिक व्योमÓ सिकुड़ता जा रहा है। तिसपर औद्योगिक उत्पादन में गिरावट के कारण अद्र्ध कुशल और अकुशल मजदूरों में बेकारी बढ़ती जा रही है जो भविष्य में एक भारी समस्या बन जायेगी। जिसकी झलक माओवादी हिंसा में साफ दिखायी पड़ रही है। श्रम मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 9.4 प्रतिशत श्रमिक बेकार हैं इनमें सबसे ज्यादा बेकारी ग्रामीण मजदूरों की है। यह हालत तबतक नहीं सुधरेगी जबतक बेकार मजदूरों को प्रशिक्षित नहीं किया जाता और उन्हें सहानुभूति पूर्र्वक रोजगार नहीं मुहय्या कराये जाते। अगर ऐसा नहीं होता है तो देश को एक भारी विप्लव का सामना करना होगा।
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Friday, February 18, 2011
काला धन + सफेद माफी = दाल में काला
काला धन के मामले में सोनिया गांधी और राजीव गांधी का नाम भाजपा के वरिष्ठï नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने घसीटा और चारों तरफ फैला दिया कि सोनिया जी और राजीव गांधी के स्वीस बैंकों में बड़ा खजाना जमा है। सोनिया जी ने आडवाणी जी लिखा और बताया कि यह दुष्प्रचार ना करें उनका किसी विदेशी बैंक में कोई खाता नहीं है। इस पत्र के जवाब में आडवाणी जी चट से माफी मांग ली। यह बड़ा अजीब माजरा है और कम से कम भाजपा जैसे दल के आडवाणी जैसे तपे तपाये लौह पुरूष की जुबान से ऐसी हल्की बातों का निकलना काफी शर्मसार करता है। क्योंकि आडवाणी जी इतने कच्चे खिलाड़ी नहीं हैं कि स्वीस बैंक के खातों और उसके बारे में असांजे के खुलासे की हकीकत क्या है? जहां तक स्वीस बैंक के खातों की उस सूची का मामला है उसमें पता नहीं क्या है लेकिन सबको लग रहा है कि बड़े कायदे से रहस्य के किले में छिपाकर रखे गए स्विस बैंक के बहुत सारे भेद सामने आने वाले हैं।
भारत में यह उत्साह कुछ ज्यादा है। इसकी वजह यह है कि अभी तक के आंकड़ों के मुताबिक स्विस बैंक में सबसे ज्यादा काली कमाई भारत की ही जमा है। 1947 से अब तक बेईमानों ने भारत से 1546 अरब डॉलर लूटकर जमा किए हैं।
यह आंकड़े प्रामाणिक नही हैं और न ही इनकी पुष्टि की कोई व्यवस्था हो पाई है। आप गौर करेंगे कि दुनिया के सबसे रईस देशों में से एक अमरीका का नाम इस सूची में नहीं है, जबकि 280 अरब डॉलर का हिसाब अमरीका स्विस बैंक एसोसिएशन से आज से तीन साल पहले ले चुका है। हिसाब इसलिए मिल पाया कि एक हाथ में डंडा था और दूसरे में थैली। डंडे से जानकारी ली गई और थैली में और संस्थानों की रकम इन बैंकों में डाल दी गई। जिन अमरीकी नागरिकों का हिसाब-किताब मिला था, उनसे अमरीका ने टैक्स वसूल लिया।
भारत में रामजेठमलानी से लेकर रामदेव तक स्विस बैंकों में जमा भारतीय रकम को एक बड़ा मुद्दा बनाए हैं। रकम इतनी बड़ी है और सस्पेंस इतना सम्मोहक कि बहुत सारे लोग इस अभियान में जुड़ गए हैं और वे वास्तव में देशभक्त हैं। इनके हिसाब के अनुसार, अगर स्विस बैंकों में जमा पूरा पैसा भारत आ जाता है, तो उसका सारा कर्ज खत्म हो जाएगा, अगले 30 साल तक टैक्स फ्री बजट आएगा और हर परिवार के हिस्से में यानी उसके भारतीय बैंक खाते में ढाई लाख रुपये जमा हो जाएंगे। 'दिल बहलाने को यह ख्याल अच्छा है।Ó लेकिन एक रहस्य की बात है कि असांजे ने जिस बैंक का हवाला दिया है उसका नाम है जूलियस बेयर बैंक। बैंक के एक भूतपूर्व अधिकारी ने विकिलीक्स को इतना बता दिया है कि दुनिया भर के अरबों डॉलर के हिसाब सामने आ जाएंगे। सूची में 33 भारतीय नाम भी हैं। अब बैंक की इस साल की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि 2010 के अक्टूबर महीने तक इस बैंक के पास 271 अरब स्विस फ्रैंक के खाते थे, जिनमें से 175 अरब स्विस फ्रैंक के खाते चल रहे थे। रिपोर्ट बताती है कि 3500 कर्मचारियों वाले इस बैंक की स्थापना 1891 में हुई थी और इसकी शाखाएं दुनिया के चालीस देशों में हैं जिसमें भारत के सबसे करीब की शाखाएं दुबई और सिंगापुर में हैं। जब हम भारत के अरबों डॉलर वापस लाने की बात करते हैं तो यह ध्यान भी रखना चाहिए कि एक अमरीकी डॉलर में लगभग 9500 स्विस फ्रैंक आते हैं, जबकि भारतीय रुपया पैंतालीस रुपये प्रति डॉलर के आसपास रहता है। ऐसे में सिर्फ भारत के अरबों डॉलर के सपने का क्या होगा जरा सोचिये। इस सवाल का जवाब किसी राम के पास नहीं है। स्विस बैंकों में पड़ी भारत की रकम अगर भारत वापस आती है तो हर हाल में देश में विकास ही होगा। पहले तो इस काले धन की असाध्य बीमारी से निपटारा हो। यह निपटारा कानूनी तरीकों से होगा।
ऐसा नहीं कि आडवाणी जी इस हकीकत से वाकिफ नहीं हैं। उन्हें आम आदमी से ज्यादा जानकारी है। लेकिन यह सियासी लाभ का साधन है। अगर आडवाणी जी ऐसा नेता इस तरीके लाभ हासिल करना चाहे तो औरों की क्या कहेंगे।
Posted by pandeyhariram at 4:17 AM 0 comments