हरिराम पाणेय
24.6.2011
भारत के इतिहास में तुर्की की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। हालांकि भारत का विभाजन भी तुर्की के कारण ही हुआ लेकिन कालांतर में धर्म निरपेक्षता की बुनियाद भी पड़ी। पहले विश्वयुद्ध में जब तुर्की के सुलतान पराजित हो गये तो उनकी खिलाफत को खतरा हो गया। चारों तरफ हवा फैल गयी कि ब्रिटिश हुकूमत येरुशलम के मुफ्ती को खलीफा की गद्दी सौंपना चाहती है। मुस्लिम विश्व में बड़ा आक्रोश था। महात्मा गांधी को लगा कि यह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारत में हिंदुओं मुसलमानों के संयुक्त आंदोलन का इक बढिय़ा मौका है अतएव उन्होंने तुर्की के खलीफा का समर्थन कर दिया। यहां भारत में व्यापक आंदोलन शुरू हो गया। यह देश का अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन था, यहां तक कि 1857के सिपाही विद्रोह से भी बड़ा। चौरा चौरी कांड के बाद गांधी जी ने इस आंदोलन को वापस ले लिया। यह मोहम्मद अली जिन्ना को बड़ा नागवार लगा और उन्होंने गांधी जी से मांग की कि मोती लाल नेहरू के प्रतिवेदन में मुसलमानों के अधिकारों की गारंटी होनी चाहिये। गांधी जी ने उनकी बात नहीं मानी। जिन्ना गुस्से में भारत से चले गये। 6 साल तक वे लंदन में रहे और बैरिस्टरी करते रहे। जब भारत लौटे तो मुसलमानों के अधिकारों की गारंटी की बात मुसलमानों के लिये अलग देश में बदल गयी। यहीं मांग आगे चल कर देश के विभाजन का आधार बनी। 1923 में जब कमाल अतातुर्क तुर्की की गद्दी पर आये तो उन्होंने धर्म को राजकाज से अलग कर दिया। उन्होंने राजनीति का आधार धर्मनिरपेक्षता को बनाया। उनके अनुसार धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अल्पसंख्यकों के धर्म की रक्षा करना या सभी धर्मों को समान दृष्टिï से देखना नहीं था। उनकी धर्मनिरपेक्षता मानवतावादी थी। उनका मानना था कि धर्म तुर्की को पिछड़ा हुआ रखेगा। धर्म आधुनिकता का निषेध है। अतएव संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी उन्होंने सेना को सौंपी। अब आठ दशक के बाद वर्ष के बाद एक नयी धार्मिक पार्टी ए के पी(न्याय और विकास पार्टी) ने सत्ता संभाली। यह पार्टी इस्लामी जरूर है पर इस्लामपंथी नहीं है। इसने विकास को अपना लक्ष्य बनाया है। लिहाजा यह वहां की फौज को बड़ा अजीब लग रहा है और वह एक तरह से पुरातनपंथी साबित होती जा रही है। वहां धर्म निरपेक्षता प्रासंगिक नहीं रह गयी है। वहां चुनौती आधुनिकीकरण की है। वह खिलाफत को लागू करने और तुर्की का प्राचीन धार्मिक गौरव वापस लाने जैसी बातें नहीं करती। भारत में लगभग सभी दल अपने को सेकुलर कहते हैं। लेकिन हमारे देश में कुछ दल जिनमें भाजपा भी शामिल है वह उन पुराने दिनों का सपना दिखाने से नहीं चूकती और इसे छोड़ भी दें तो राष्टï्रीय स्वयं सेवक संघ को कैसे नजरअंदाज कर दिया जाय। भारत में धर्म निरपेक्षता दकियानूसी का एक तंत्र बन गयी है और इसके कारण स्वरूप कांग्रेस पार्टी भी मुसलमानों के हितों की हिफाजत के बदले उन्हें वोटबैंक के रूप में देखती है। जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस सही मायनों में सेकुलर थे। उन्होंने राजनीति में धर्म के हर स्वरूप का विरोध किया। आज धर्म निरपेक्षता का अर्थ है हिंदू नेताओं द्वारा टोपी पहन कर इफ्तार पार्टियों में शामिल होना और हर तरह के बाबाओं के चरण छुना। वे अपने आचरण में आधुनिकताओं को भूल गये हैं। एक तरफ विज्ञान की बातें करते हैं और दूसरी तरफ मंत्री बनने पर सही समय में शपथ लेने के लिये ग्रहों का योग दिखाते हैं। आज जरूरत है कि राजनीतिक दल हिंदू और मुसलमान के खांचे में वोटरों को न रखें और उन्हें भारतीय समझे। धर्म निरपेक्षता आज के संदर्भ में अप्रासंगिक हो गयी है। सरकार को इसपर गंभीरता से विचार करना चाहिये और विकास की दिशा को उसी तरफ मोड़ें।
Friday, June 24, 2011
धर्म निरपेक्षता अप्रासंगिक हो गयी र्है
Posted by pandeyhariram at 3:41 AM
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