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Wednesday, January 23, 2013

चिंतन नहीं चुनाव शिविर

हरिराम पाण्डेय 22 जनवरी 2013 कांग्रेस का तीन दिवसीय चिंतन शिविर समाप्त हो गया। शिविर में विचार- विमर्श के बाद जो घोषणाएं हुईं वे चारित्रिक तौर पर आत्ममंथन कम और 'युद्ध की हुंकारÓ ज्यादा महसूस हुई। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। क्योंकि चुनाव सिर पर आ गये हैं और 2009 के बाद पार्टी की झोली में ऐसा कुछ नहीं है जिससे वह किसी तरह की खुशफहमी पाल सके। इसके अलावा इधर कुछ दिनों से पार्टी और सरकार दोनों आरोपों , भ्रष्टïाचार और नीतिगत शैथिल्य के महापंक में फंसी हुई है। इसलिये अपने कार्यकर्ताओं में नैतिक बल का संचार करने के लिए इस तरह की सियासी लंतरानियां जरूरी होती हैं। इस आत्ममंथन के क्रम में जो भी हुआ उसकी वैचारिक आपाधापी में पार्टी खुद से एक सवाल करना भूल गयी कि उसमें इतना ज्यादा वैचारिक रीतापन कैसे आ गया है। एक विचारशून्यता उसमें घर कर गयी है। पूरा अधिवेशन वैचारिक तौर पर निराश करता हुआ सा दिखा है लेकिन उसमें एक सुनहरी किरण भी दिखायी पड़ती है कि पार्टी ने हाल के कठोर सरकारी निर्णयों को मंजूरी दे दी, यही नहीं आगे भी सरकार का समर्थन करने का आश्वासन दिया। यही नही, पार्टी ने सरकार को ताकीद की कि वह जनता से बेहतर संवाद बनाये और महिलाओं तथा नौजवानों को अपने सिद्धांतों से प्रभावित कर उन्हें अपने साथ चलने के लिये प्रेरित करे। इनके अलावा चिंतन शिविर में जो भी हुआ वह तो बस राहुल के पद की औपचारिकता पूरी करनी थी। जैसे राहुल पहले भी पार्टी में नम्बर दो थे और उसी हैसियत से सारा काम देखते - करते थे बस उस पर पार्टी ने औपचारिकता की मुहर लगा दी। लेकिन इससे एक बात तो हो गयी कि राहुल को पद के साथ अब जिम्मेवारी भी सौंप दी गयी। अब सफलताओं का श्रेय उन्हें मिलेगा साथ ही असफलताओं की जिम्मेदारी भी उन्हें अपने सर लेनी होगी। अब उन्हें यह सहूलियत हासिल नहीं है कि वे किसी स्थिति में जब चाहें कूद नहीं सकते और वहां से इच्छानुसार बाहर नहीं निकल सकते हैं। अब उनकी नियुक्ति जिस कार्य के लिए हुई है उस काम को यदि वे सही ढंग से अंजाम देते हैं तो यह सब सार्थक होगा, वरना सब व्यर्थ है। शिविर के दौरान आतिशबाजियां एक मजाक और बचकानापन बन कर रह जाएंगी। फिलहाल कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह स्वीकार नहीं कर पा रही कि 'अब के दौर में खेल के नियम बदल चुके हैं।Ó पहले की तरह तुष्टीïकरण और नफरत प्रदर्शन के दिन नयी सियासत में लद गये और अब जो नयी पीढ़ी है उनकी आशाएं - आकांक्षाए भिन्न हैं। आने वाले दिनों में वक्त के हाकिमों के इन नये मतदाताओं का ख्याल करना पड़ेगा ही। राहुल को पद दिया जाना संभवत: इसी नयी पीढ़ी से संवाद का प्रयास है।

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