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Saturday, December 6, 2014

बांस तो शाश्वत है भाई

लस्टम पस्टम
इन दिनों बांस चर्चा में है। बांस पहले भी चर्चा में हुआ करता था पर आज जैसी उसकी शोहरत नहीं थी। वरना हमारे एक मित्र हैं
 अक्सर मंचों पर कविता पढ़ते समय एक खास कविता सुनाते हैं:'बांस के व्यापारी हईं, बांस देहब जी...Ó। यही नहीं , वकीली महकमे में एक मसल तो बेहद मशहूर है कि 'एक बार एक वकील एक केस की बहस कर रहा था। जज साहेब अंग्रेज थे। वकील ने कहा, मी लॉर्ड, देयर वाज ए खूंटा। अब जज साहेब खूंटा पर अटक गये। पूछा , वॉट इज खंटा? वकील ने कहा, मी लार्ड, इट इज ए पीस ऑफ बंबू , हाफ भीतर हाफ बाहर।Ó या फिर आपने सुना होगा कि 'उल्टे बांस बरेली को।Ó या, फिर बंगला की वह मशहूर कविता- 'बांस तुमी केनो झाड़े...Ó। यानी बांस हमारे लोकजीवन में अरसे से है पर आज कल इस पर ज्यादा दबाव है। अरे भाई, हमारे एक कवि मित्र ने हाल के बांस विमर्श पर टिप्पणी की कि बांस उतनी बुरी चीज नहीं है अगर बुरी होती तो कोलकाता के एक आयकर कार्यालय का नाम 'बम्बू विलाÓ क्यों होता। अपने बांस से परेशान एक दूसरे दोस्त ने फरमाया, भाई वहां उस विला में केवल बम्बू है , छोटे बड़े सब वेराइटी के और उसे आयकर विभाग वाले यत्र तत्र डालते हैं। अब कौन उस विला की हेठी करे।
  प्रश्न है कि ,  बांस किसे कहते हैं? भाई मेरे , जिसे देख कर भूत भागते हैं, जिसके इशारे पर शेर नाचते हैं। जिससे बंद सीवर खोले जाते हैं। छोटा दीखता है, कुछ चिकना होता है, किंतु मारक होता है। वार कहीं करता है, घाव कहीं होता है। बांस ना हो तो बांसुरी ना बजे और बजे तो बेसुरी बजे। ... और मजे की बात है कि बांस यदि बॉस के हाथ में हो तो कितना कुछ होता है यह तो बॉसत्व के मारे लोग अच्छी तरह जानते होंगे। कहते भी हैं कि बांस नहीं तो बॉस नहीं। सच बात है। बांस रखना और बांसुरी बजाना बॉस का धर्म है। घनिष्ठ इस संबंध के अतिरिक्त बॉस और बांस के मध्य कुछ समानता भी हैं। मसलन, बॉस और बांस दोनों गांठ -गठीले होते है। प्रत्येक गांठ कुछ शंका, कुछ आशंकाओं, कुछ प्रश्न और कुछ रहस्यों से भरी होती हैं। एक गांठ का रहस्य सुलझाने का प्रयास करोगे, दूसरी गांठ पहली से ज्यादा मजबूत नजर आएगी। गांठें कच्चे धागे की गांठ के समान होती हैं, जो कभी खुलती ही नहीं हैं, प्रयास करने पर उलझती ही चली जाती हैं।
बॉस का और बांस का मुसकराना यदा-कदा ही होता है। सदियों में जाकर कभी बांस पर फूल खिलते हैं और जब खिलते हैं, तो अकाल साथ लेकर आते हैं। बॉस कभी मुस्कराते नहीं है और जब कभी मुस्कराते हैं तो किसी के लिए संकट के बादल लेकर आते हैं। ऐसी ही कुछ समानताओं के कारण बॉस और बांस कभी-कभी एक दूसरे के पर्यायवाची से लगते हैं। अंग्रेज बॉस और बांस के पारस्परिक संबंधों से भीलीभांति परिचित थे, इसलिए वे और उनके अधिकारी हाथ में सदैव बांस रखते थे। उनके लिए बांस बॉसिज्म का प्रतीक था, जिसे वे रूल कहते थे। उस रूल के ही सहारे रूलिंग चलती थी। रूल के सामने शेष सभी 'रूलÓ व्यर्थ थे। बांस के सहारे ही वे 150 वर्ष तक भारत के शानदार बॉस बने रहे। बांस रूपी रूल का ही कमाल था कि उनके राज्य में कभी सूरज डूबा ही नहीं। बांस कमजोर हुआ तो सूरज ऐसा डूबा की अब ब्रिटेन में भी उगने का नाम भी नहीं ले रहा है।
विश्व की समूची राजनीति के दो ही आधार हैं, बॉसिज्म और बांसिज्म। नटनी के समान विश्व राजनीति भी बांस के सहारे ही तो पतली रस्सी पर चल कर अपना सफर पूरा करती है। हो भी क्यों ना राजनीति और नटनी सगी बहने ही तो हैं। ऊंट किस करवट बैठेगा, प्रयास करने पर पता किया जा सकता है, मगर राजनीति और नटनी कब किस करवट लुढ़क जाएं किसे पता है। 'उसका बांस मेरे बांस से लंबा क्यों?Ó बांसिज्म के इसी दर्शन पर विश्व की राजनीति टिकी है। समस्या बंगाल की हो या  कश्मीर की हो या अफगान की अथवा इराक की, जड़ में सभी के बांस है। अमरीका आज अमरीका न होता यदि उसके हाथ में बांस न होता। आई एस आई एस इसलिये इतना कत्ले आम कर रहा है कि उसका बांस दूसरे से लम्बा हो जाय। झगड़ा बांस का ही है भाई। मेरे बांस से उसका बांस लंबा क्यों? आज बंगाल की समस्या भी यही है कि दिल्ली का बांस कोलकाता के  बांस से लम्बा क्यों है? हमारा मानना है कि तृतीय विश्वयुद्ध यदि कभी होगा भी तो, न तेल के लिए होगा और न ही पानी के लिए। होगा तो केवल बांस के लिए होगा, क्योंकि युद्ध जब कभी भी हुए हैं, बॉसिज्म और बांसिज्म को लेकर ही हुए हैं। मजबूत बांस वाला ही युद्ध में विजयी होगा और वही विश्व-बॉस कहलाएगा।

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