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Monday, December 1, 2014

अब अगले छ: महीने और


1.12.2014
नरेंद्र मोदी ने अपने शासन काल के छह महीने पूरे कर लिये। हालांकि उन्होंने कई काम करने के लिए 100 दिनों का वादा किया था पर क्या वे वायदे पूरे हुए। उन्होंने  जिन अच्छे दिनों का वायदा किया था, क्या वे आए हैं, या वे बस आने ही वाले हैं? या इन वायदों के पूरे होने की कोई उम्मीद  नहीं है। क्या मोदी भी उन नेताओं की तरह हैं, जो चुनावों से पहले तो वायदे करते हैं, लेकिन बाद में कुछ नहीं करतेे? इन छह महीनों में मोदी ने भारत को कितना बदला है? इस छ: महीने के काल को प्रशासन के लिहाज से अगर देखें तो कुछ भी नहीं बदला है। दूर दूर तक नीतिगत बदलाव नजर नहीं आ रहे हैं। हां अगर दलीलों की मानें तो सरकार को कुशलता से चलाने की कोशिश की गयी है। वह कोशिश कितनी कारगर हुई यह तो भगवान ही जानते हैं।
वैचारिक रूप से, भारतीय राष्टï्रवाद की परिभाषा बदली है और राष्ट्रवाद को क्षेत्रीय आधार पर परिभाषित करने के बजाय अब हम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सरकारी स्तर पर बढ़ावा देते देख रहे हैं। भाजपा नेताओं ने  हिंदू संस्कृति को बढ़ावा देने का प्रयास करते हुए यह समझाना चाहा है कि इस संस्कृति में  तमाम चीजों की व्याख्या निहित है। कुछ सप्ताह पहले नरेंद्र मोदी ने यह दावा किया था कि आधुनिक विज्ञान और पुनर्जागरण से बहुत पहले प्राचीन भारत में जेनेटिक इंजीनियरिंग और प्लास्टिक सर्जरी का चलन था। पिछले पखवाड़े राजनाथ सिंह ने यह दावा कर श्रोताओं को चौंका दिया कि वॉर्नर हेजेनवर्ग का 'अनिश्चितता का सिद्धांतÓ वेदों पर आधारित था। यह अतीत का पुनराविष्कार है। किसी संस्कृति के लिये यह अच्छी चीज है पर विश्व को देखने का यह तरीका विवेकपूर्ण नहीं है जिसमें कहा जाता हो कि  आधुनिकता का हर पहलू हिंदू अतीत से जुड़ा है। इससे वैश्विक पटल पर हम भारतीय हंसी के पात्र बन रहे हैं। मोदी के कार्यकाल के छह महीने का यही सबसे बड़ा असर है। भारत के हिंदू अतीत को लगातार सामने रखना दरअसल अपनी  मिली-जुली संस्कृति को खारिज करना  है। यह विचार एक समुदाय को दूसरे समुदाय के खिलाफ खतरनाक ढंग से खड़ा कर देगा। संघ परिवार के नेता या तो बारह सौ वर्ष की गुलामी की बात कर रहे हैं या इस पर अभिमान कि आठ सौ वर्ष बाद देश की सत्ता में एक हिंदू सरकार आई है। नरेंद्र मोदी बनारस की गंगा-जमनी तहजीब की बात तो करते हैं, लेकिन इस बहुलतावादी संस्कृति को आगे बढ़ाने में अभी तक उन्होंने कुछ खास नहीं किया है। उन्हें बनारस की मिली-जुली संस्कृति और वहां पैदा हुईं दोनों समुदायों की अनेक महान विभूतियों के बारे में सोचना चाहिये जिन्होंने बनारस के रस को तैयार कर इसे  विशिष्ट पहचान दी। मोदी सरकार को एक ऐसी सामाजिक नीति लेकर आना होगा, जिसमें समाज के सभी वर्गों की बेहतरी का आश्वासन हो।  आप गौर करेंगे तो पता चलेगा कि  धार्मिक विवाद और सामाजिक अलगाव के हर अवसर पर प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों ने चुप्पी साधी है। ओबामा की 26 जनवरी की यात्रा को काफी बड़ा करके भुनाने की कोशिश की जा रही है जबकि यह तो कूटनीति और राजनय का हिस्सा है। मोदी सरकार का संसद में बहुमत है, लिहाजा अमरीका अपने कारोबारी हितों के लिए इस सरकार से बेहतर रिश्ता बनाए रखना चाहेगा ही। सरकार ने अगले छह महीने में कई और मोर्चे पर बेहतर काम करने का वायदा किया है, जिन्हें पूरा करना होगा। अगर इसमें सुस्ती दिखी, तो आगे का रास्ता उतना आसान नहीं भी हो सकता है।

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