आपने सुना है न कि नयी बोतल में पुरानी शराब। या नयी पैकिंग में पुराना माल। वही हाल हमारे देश की राजनीति का है। चाहे वह भगवा पार्टी हो या तिरंगा या कोई और सभी दल बार-बार खुद को नये ढंग से लांच करते हैं। हमारे देश की राजनीति में नरेंद्र मोदी एक नई विभाजक रेखा के रूप में उभरे हैं। जो भी हो रहा है या तो इनके साथ आने के लिए हो रहा है या फिर इनके विरुद्ध खड़े होने के लिए। अगर मोदी न होते तो मुलायम सिंह यादव के घर छह राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि जमा नहीं होते। समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव, जनता दल युनाइटेड के नीतीश कुमार, शरद यादव, जनता दल सेकुलर से एचडी देवगौड़ा, आरजेडी से लालू प्रसाद यादव, इंडियन नेशनल लोकदल के दुष्यंत चौटाला , समाजवादी जनता पार्टी के कमल मोरारका ने अपनी संख्या को सहेजने का प्रयास किया। जिस वर्तमान परिस्थिति के कारण ये कभी अलग हुए होते हैं उसी वर्तमान परिस्थिति के नाम पर एक भी हो जाते हैं। बदली हुई परिस्थिति राजनीति की वो स्थिति है जो कभी भी किसी को भी बदलने की सहज अनुमति देती है। जेडीयू के नेता नीतीश कुमार ने कहा कि जो पुराने जनता परिवार के घटक हैं वो संसद में और बाहर भी विभिन्न मुद्दों पर मिलकर खड़े होंगे। इसके लिए 'जनता परिवारÓ 22 दिसंबर को दिल्ली में धरना प्रदर्शन का एक साझा कार्यक्रम करेगा। जिसमे यह सवाल उठेगा कि बीजेपी ने किसानों से वादा किया था कि पचास फीसदी मुनाफे की गारंटी के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाएगा। उसका क्या हुआ? इन छह नेताओं ने मुलायम सिंह यादव को जिम्मेदारी दी है कि वे इन सबको मिलाकर एक दल बनने की प्रक्रिया की देखरेख करें। नीतीश कुमार ने भी कहा है कि कंफ्यूजऩ न हो इसके लिए जरूरी है कि एक पार्टी बने। यहां यह बात गौर करने वाली है कि जनता परिवार चाहे जितनी बार बिखरा हो या अप्रासंगिक हो गया हो, लेकिन भारतीय राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व को तोडऩे में इनकी भूमिका बीजेपी से कम नहीं है बल्कि बीजेपी को भी सहारा इसी परिवार से मिला है। आज यह परिवार बीजेपी के वर्चस्व से मुकाबले के लिए एकजुट हो रहा है तो स्थितियां वैसी नहीं हैं जैसी सत्तर के दशक में थीं। आज जो हालात हैं उसमें क्या लोग लालू-नीतीश-मुलायम के नेतृत्व पर भरोसा कर सकेंगे। हमारी राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका का ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ। जबकि कई बार ये दल काम के आधार पर दोबारा भी चुन कर आते रहे फिर भी इनकी छवि 'बैड ब्वायÓ की ही है। बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव साथ आने पर आज भी मजबूत ताकत हैं, यह जाहिर हो चुका है। किंतु नई पार्टी के गठन से उत्तरप्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक में सामाजिक समीकरण का क्या लाभ होगा, कहना फिलहाल मुश्किल है। बहरहाल, ये छोटे मुद्दे हैं। असली सवाल है कि नई पार्टी जनता के सामने वास्तव में क्या नया विकल्प पेश करेगी? इन पार्टियों ने संसद में समन्वय के जो मुद्दे चुने, उन पर (भूमि अधिग्रहण कानून, मनरेगा, बीमा विधेयक आदि से संबंधित सरकारी कदमों का) विरोध करना था। ऐसे में यह सोचना निराधार नहीं है कि 'जनता परिवारÓ नकारात्मक एजेंडे पर एकजुट हो रहा है। यही इस राजनीतिक घटनाक्रम का सबसे बड़ा पेंच है। अक्तूबर 2013 और फरवरी 2014 में चार वाम दलों और एआईडीएमके, जेडीयू, सपा, एजीपी, जेडीएस और बीजेडी की बैठक हुई थी। लेकिन चुनाव आते आते तीसरे मोर्चा की चर्चा भी समाप्त हो गई। तब अरुण जेटली ने कहा था कि तीसरे मोर्चे को लेकर बीच-बीच में जो प्रयोग होते रहते हैं वो कभी सफल नहीं हुए हैं। थोड़े दिनों के बाद यह मोर्चा समाप्त हो जाता है। कई हारे हुए दलों के साथ गठबंधन बनाने का फार्मूला सफल नहीं हो सकता। लेकिन चुनाव के तुरंत बाद बिहार में जब उप-चुनाव हुए तो जेडीयू, आर जे डी ने कांग्रेस से मिलकर बीजेपी से थोड़ी बढ़त बना ली। समाजवादी पार्टी ने भी यू पी में सीटें जीत लीं। इसके बावजूद आप इस प्रयोग को फिलहाल गेम चेंजर नहीं कह सकते।
Saturday, December 6, 2014
जनता 'परिवारÓ का अब भार मुलायम पर
आपने सुना है न कि नयी बोतल में पुरानी शराब। या नयी पैकिंग में पुराना माल। वही हाल हमारे देश की राजनीति का है। चाहे वह भगवा पार्टी हो या तिरंगा या कोई और सभी दल बार-बार खुद को नये ढंग से लांच करते हैं। हमारे देश की राजनीति में नरेंद्र मोदी एक नई विभाजक रेखा के रूप में उभरे हैं। जो भी हो रहा है या तो इनके साथ आने के लिए हो रहा है या फिर इनके विरुद्ध खड़े होने के लिए। अगर मोदी न होते तो मुलायम सिंह यादव के घर छह राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि जमा नहीं होते। समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव, जनता दल युनाइटेड के नीतीश कुमार, शरद यादव, जनता दल सेकुलर से एचडी देवगौड़ा, आरजेडी से लालू प्रसाद यादव, इंडियन नेशनल लोकदल के दुष्यंत चौटाला , समाजवादी जनता पार्टी के कमल मोरारका ने अपनी संख्या को सहेजने का प्रयास किया। जिस वर्तमान परिस्थिति के कारण ये कभी अलग हुए होते हैं उसी वर्तमान परिस्थिति के नाम पर एक भी हो जाते हैं। बदली हुई परिस्थिति राजनीति की वो स्थिति है जो कभी भी किसी को भी बदलने की सहज अनुमति देती है। जेडीयू के नेता नीतीश कुमार ने कहा कि जो पुराने जनता परिवार के घटक हैं वो संसद में और बाहर भी विभिन्न मुद्दों पर मिलकर खड़े होंगे। इसके लिए 'जनता परिवारÓ 22 दिसंबर को दिल्ली में धरना प्रदर्शन का एक साझा कार्यक्रम करेगा। जिसमे यह सवाल उठेगा कि बीजेपी ने किसानों से वादा किया था कि पचास फीसदी मुनाफे की गारंटी के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाएगा। उसका क्या हुआ? इन छह नेताओं ने मुलायम सिंह यादव को जिम्मेदारी दी है कि वे इन सबको मिलाकर एक दल बनने की प्रक्रिया की देखरेख करें। नीतीश कुमार ने भी कहा है कि कंफ्यूजऩ न हो इसके लिए जरूरी है कि एक पार्टी बने। यहां यह बात गौर करने वाली है कि जनता परिवार चाहे जितनी बार बिखरा हो या अप्रासंगिक हो गया हो, लेकिन भारतीय राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व को तोडऩे में इनकी भूमिका बीजेपी से कम नहीं है बल्कि बीजेपी को भी सहारा इसी परिवार से मिला है। आज यह परिवार बीजेपी के वर्चस्व से मुकाबले के लिए एकजुट हो रहा है तो स्थितियां वैसी नहीं हैं जैसी सत्तर के दशक में थीं। आज जो हालात हैं उसमें क्या लोग लालू-नीतीश-मुलायम के नेतृत्व पर भरोसा कर सकेंगे। हमारी राजनीति में क्षेत्रीय दलों की भूमिका का ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ। जबकि कई बार ये दल काम के आधार पर दोबारा भी चुन कर आते रहे फिर भी इनकी छवि 'बैड ब्वायÓ की ही है। बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव साथ आने पर आज भी मजबूत ताकत हैं, यह जाहिर हो चुका है। किंतु नई पार्टी के गठन से उत्तरप्रदेश, हरियाणा और कर्नाटक में सामाजिक समीकरण का क्या लाभ होगा, कहना फिलहाल मुश्किल है। बहरहाल, ये छोटे मुद्दे हैं। असली सवाल है कि नई पार्टी जनता के सामने वास्तव में क्या नया विकल्प पेश करेगी? इन पार्टियों ने संसद में समन्वय के जो मुद्दे चुने, उन पर (भूमि अधिग्रहण कानून, मनरेगा, बीमा विधेयक आदि से संबंधित सरकारी कदमों का) विरोध करना था। ऐसे में यह सोचना निराधार नहीं है कि 'जनता परिवारÓ नकारात्मक एजेंडे पर एकजुट हो रहा है। यही इस राजनीतिक घटनाक्रम का सबसे बड़ा पेंच है। अक्तूबर 2013 और फरवरी 2014 में चार वाम दलों और एआईडीएमके, जेडीयू, सपा, एजीपी, जेडीएस और बीजेडी की बैठक हुई थी। लेकिन चुनाव आते आते तीसरे मोर्चा की चर्चा भी समाप्त हो गई। तब अरुण जेटली ने कहा था कि तीसरे मोर्चे को लेकर बीच-बीच में जो प्रयोग होते रहते हैं वो कभी सफल नहीं हुए हैं। थोड़े दिनों के बाद यह मोर्चा समाप्त हो जाता है। कई हारे हुए दलों के साथ गठबंधन बनाने का फार्मूला सफल नहीं हो सकता। लेकिन चुनाव के तुरंत बाद बिहार में जब उप-चुनाव हुए तो जेडीयू, आर जे डी ने कांग्रेस से मिलकर बीजेपी से थोड़ी बढ़त बना ली। समाजवादी पार्टी ने भी यू पी में सीटें जीत लीं। इसके बावजूद आप इस प्रयोग को फिलहाल गेम चेंजर नहीं कह सकते।
Posted by pandeyhariram at 1:46 AM
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