मास्को में दो मेट्रो स्टेशनों पर सोमवार की रात आतंकवादी हमला हुआ। इसमें लगभग 40 लोग मारे गए। इस तरह के हमले की चेतावनी पिछले महीने ही दी गयी थी। चेतावनी खूंखार गुरिल्ला डाकू उमेराव ने दी थी। इस चेतावनी को संभवत: उसी ने शायद यथार्थ में बदल दिया है। ये हमले मेट्रो स्टेशन, रूसी सरकार के विदेश मंत्रालय तथा पूर्व सोवियत संघ की कुख्यात जासूसी एजेंसी केजीबी का स्थान लेने वाली एफएसबी के मुख्यालय के करीब हुए। जाहिर है कि हमले बहुत योजनाबद्ध ढंग से किए गए जिनमें महिला आतंकवादियों के शामिल होने की खबर है। मास्को की मेट्रो विश्व की सबसे व्यस्त मेट्रो में से एक मानी है जिसके कार्यदिवसों में लगभग 70 लाख लोग प्रतिदिन सफर करते हैं। अत: आतंकवादियों के लिए अपना संदेश देने का इससे बेहतरीन तरीका नहीं हो सकता था। इस आतंकवादी हमले में ठीक-ठीक किसका हाथ है, यह तत्काल पता नहीं चला मगर सबकी नजर चेचन अलगाववादियों पर जाती है, जो अलग राष्ट्र की मांग करते रहे हैं। अतीत में रूस के तीन तनावग्रस्त क्षेत्रों चेचन्या, इंगुशेतिया और दागिस्तान से जुड़े अलगाववादी संगठनों ने मॉस्को और अन्य रूसी शहरों में भीड़ वाली जगहों पर विस्फोट किए हैं। संयोगवश ये तीनों ही इलाके मुस्लिम बहुल हैं और इनमें जारी अलगाववादी आंदोलनों की एक धारा वैचारिक रूप से अल कायदा के करीब है। इसके आधार पर इन विस्फोटों को अल कायदा की नवीनतम कार्रवाई की तरह भी देखा जा सकता है लेकिन रूस की ओर से हाल में न तो अल कायदा के, न ही चेचन्या, इंगुशेतिया और दागिस्तान के अलगाववादी आंदोलनों के खिलाफ ऐसी कोई कार्रवाई हुई है, जिसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया के साथ इस घटना को जोड़ा जा सके।
घटना का सबसे भयानक पहलू है कि इसका भूमिगत रेल स्टेशनों पर अंजाम दिया जाना, जहां लोगों के पास भागकर जान बचाने की तो बात ही दूर, खुलकर सांस लेने की भी जगह नहीं होती। बिल्कुल आम लोग, जिनका सरकार के फैसलों या उन पर अमल की प्रक्रिया से कुछ भी लेना-देना नहीं होता, एक बंद जगह में हुए विस्फोट की दहशत और चारों तरफ मची भगदड़ के बीच कुचल कर मर जाएं, इस तरह के पागलपन के जरिए कोई भला क्या हासिल करना चाहता है? बहरहाल, यह पागलपन ही हमारे समय की हकीकत है, लिहाजा भारत के जिन दो शहरों दिल्ली और कोलकाता में फिलहाल भूमिगत मेट्रो ट्रेनें चल रही हैं, उनके नीति नियंताओं को मॉस्को की घटना से तत्काल यह सबक लेना चाहिए कि ट्रेनों और स्टेशनों की सुरक्षा व्यवस्था को पूरी तरह अचूक बनाया जाय। इसके लिए अगर जरूरी हो तो मेट्रो विस्तार के अगले चरण का काम कुछ समय के लिए स्थगित रख कर भी सभी स्टेशनों पर बॉडी स्कैन का इंतजाम किया जाना चाहिए। अभी एक्स-रे स्कैनिंग की व्यवस्था सिर्फ सामानों के लिए है। लोगों की जांच हाथों से छूकर ही की जाती है और ज्यादा भीड़ वाले क्षणों में तो यात्रियों की सूरत देख कर ही उनकी सीरत का अंदाजा लगा लिया जाता है। ध्यान रहे, मॉस्को में मेट्रो 1935 से चल रही है और उस पर पहला आतंकवादी हमला आर्मीनियाई अलगाववादियों ने 1977 में, यानी अब से 33 साल पहले किया गया था। इसके सुपर पावर लेवल के सुरक्षा इंतजाम तभी से मौजूद हैं, इसके बावजूद पिछले 15 सालों में मॉस्को मेट्रो पर यह चौथा हमला है। घास में छिपे हरे सांप की तरह घात लगाए बैठे आतंकवादियों से बचाव का अकेला उपाय चौबीसों घंटे की सतर्कता के सिवाय और कुछ भी नहीं है।
Tuesday, March 30, 2010
मास्को मेट्रो पर हमला
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Sunday, March 28, 2010
ये कैसा कानून
आखिरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे को मंजूरी मिल ही गयी। पिछले सप्ताह की खबरों से साफ है कि जल्दी ही इसे कैबिनेट की भी मंजूरी मिल जाएगी और इसके बाद यूपीए सरकार इस बहुप्रतीक्षित विधेयक को संसद में पेश करके आम आदमी को भोजन का अधिकार देने की ऐतिहासिक उपलब्धि पर अपनी पीठ ठोंकती नजर आएगी, लेकिन प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के मसौदे के बारे में मिली जानकारी के अनुसार भोजन के संवैधानिक अधिकार के लिए लड़ रहे जनसंगठनों, बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में गहरी निराशा का माहौल है क्योंकि यह विधेयक खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के बजाय भूख के साम्राज्य को और मजबूत करता दिखता है।
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा विधेयक में सरकार गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) गुजर करने वाले हर परिवार को तीन रुपए प्रति किलोग्राम की दर से हर महीने 25 किलोग्राम गेहूं या चावल देगी लेकिन तथ्य यह है कि इस विधेयक के कानून बनने के बाद गरीबों और भुखमरी के शिकार लोगों को दो तरह से नुकसान होगा। पहला, अभी लगभग 6.52 करोड़ बीपीएल परिवारों को हर महीने 35 किलो गेहूं या चावल मिलता है जिसमें 4.10 रुपए प्रति किलो की दर से गेहूं और 6.65 रुपए किलो की दर से चावल मिलता है। नये कानून के आधार पर इन परिवारों को गेहूं या चावल तो पहले की तुलना में सस्ते मिलेंगे लेकिन उसमें दस किलो की कटौती हो जाएगी।
दूसरे, इन बीपीएल परिवारों में जो दरिद्रतम (गरीबों में भी गरीब) परिवार हैं, उन्हें अभी अंत्योदय अन्न योजना के तहत हर महीने दो रुपए किलो की दर से 35 किलोग्राम गेहूं या चावल मिलता है। लेकिन नये खाद्य सुरक्षा कानून के बनने के बाद उन्हें न सिर्फ पहले की तुलना में अनाजों की अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी, बल्कि गरीबों में भी गरीब माने जाने वाले इन दरिद्रतम परिवारों को भी दस किलो कम अनाज मिलेगा। यह हैरान करने वाला तथ्य है कि नये कानून की सबसे अधिक गाज दरिद्रनारायण पर गिरने वाली है। यही नहीं, सभी बीपीएल परिवारों के मासिक अनाज कोटे में दस किलो की कटौती का नतीजा यह होगा कि ये परिवार या तो आधा पेट खाने और भूखे रहने के लिए मजबूर होंगे या फिर अनाज की अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए बाजार के भरोसे रहेंगे। सवाल यह है कि यह खाद्य सुरक्षा का अधिकार देने वाला कानून होगा या खाद्य असुरक्षा बढ़ाने वाला कानून?
सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह उस नवउदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के दायरे से बाहर नहीं निकल पाता है जिसकी बुनियाद में ही यह सोच मौजूद है कि यहां कुछ भी मुफ्त नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि यूपीए सरकार भी इस सैद्धांतिकी की बड़ी मुरीद रही है और सरकार में सर्वोच्च पदों पर बैठे कई मंत्री और अफसर इसके मुखर पैरोकार रहे हैं। इससे पहले वामपंथी पार्टियों के दबाव के कारण यूपीए सरकार ने गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों को राहत पहुंचाने वाली नरेगा, किसानों को कर्जमाफी जैसी कुछ योजनाएं शुरू की थीं।
लेकिन यूपीए- दो सरकार के ताजा आम बजट और अब प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक से यह संकेत साफ है कि मनमोहन सिंह सरकार एक बार फिर खुलकर नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने की दिशा में बढ़ रही है। यही कारण है कि वह भोजन का अधिकार पूरी ईमानदारी और उसकी वास्तविक भावना से देने के बजाय खाद्य सब्सिडी में कमी करने को लेकर ज्यादा चिंतित दिखाई देती है। जाहिर है कि उसका सबसे अधिक जोर वित्तीय घाटे को कम करने पर है जो कि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की सबसे बड़ी पहचान है।
यही कारण है कि भोजन के संवैधानिक अधिकार को सार्वभौम और हर भारतीय नागरिक का अधिकार बनाने के बजाय इसे सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) परिवारों तक सीमित कर दिया गया है। सबसे अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों की संख्या के निर्धारण का अधिकार योजना आयोग के पास होगा जबकि गरीबी रेखा और उसके नीचे रहने वाले परिवारों की संख्या के बारे में योजना आयोग के अनुमानों को लेकर काफी गंभीर और तीखे विवाद रहे हैं। हाल ही में खुद योजना आयोग की प्रो. सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाली समिति ने आयोग के बीपीएल अनुमानों पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए यह कहा है कि देश में गरीबी रेखा के नीचे 27 प्रतिशत के सरकारी दावों के विपरीत 37 प्रतिशत लोग गुजर-बसर कर रहे हैं।
लेकिन योजना आयोग ने इस रिपोर्ट के मद्देनजर अब भी बीपीएल लाभार्थियों की संख्या में कोई फेरबदल नहीं किया है और वह खाद्य सुरक्षा के प्रस्तावित विधेयक में उन्हीं 27 प्रतिशत लोगों को इसका सीमित लाभ देने पर अड़ा हुआ है जिनकी संख्या लगभग 6.52 करोड़ है, लेकिन दूसरी ओर कई राज्य सरकारों ने इस संख्या को खुली चुनौती दी है। उदाहरण के लिए बिहार सरकार का कहना है कि केंद्र सरकार राज्य में सिर्फ 65.23 लाख बीपीएल परिवारों का अस्तित्व स्वीकार करती है और उन्हें खाद्य सुरक्षा का लाभ देने के लिए तैयार है जबकि राज्य सरकार के मुताबिक बीपीएल परिवारों की संख्या लगभग 1.40 करोड़ है। इसका अर्थ यह हुआ कि नये खाद्य सुरक्षा कानून के लागू होने के बाद बिहार में कोई 75 लाख बीपीएल परिवार खाद्य असुरक्षा के शिकार बने रहेंगे।
हरिराम पांडेय
लेखक कोलकाता(पश्चिम बंगाल)से प्रकाशित दैनिक अखबार में संपादक हैं
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Wednesday, March 24, 2010
सरकार को जोखिम उठाना ही होगा
इन दिनों कांग्रेस लम्बे मुबाहिसों में ज्यादा उलझी सी दिख रही है। आखिर उसके इस बदले नजरिये का कारण क्या है? क्या वह अपने सहयोगी दलों की विश्वसनीयता आजमा रही है? लेकिन ऐसा नहीं लगता, क्योंकि कांग्रेस रहे या जाये घटक दलों की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है और जहां तक द्रमुक का सवाल है तो वह इसलिये चिपका हुआ है कि कहीं कोई मंत्रिपद ही हाथ लग जाय। बाकी सब या तो कांग्रेस से भितरघात करने में जुटे हैं या अविश्वसनीय हैं। इसके बाद भी कांग्रेस जोखिम पर जोखिम उठा रही है। इससे उसके संसदीय दल में खिंचाव भी आ सकता है। आखिर क्यों? यह अच्छा है कि संसद में लम्बी बहसें होती हैं और बाद में स्थायी समितियों द्वारा बीच बचाव करके उन पर रुख नरम नहीं किया जाता, क्योंकि यही तरीका है जिससे कांग्रेस के सांसद यह सीख सकें कि सांसदों का आचरण कैसा हो। सांसदों को साप्ताहिक निर्देशों का अध्ययन करना होगा और अगर किसी मौके पर वे गैरहाजिर होते हैं तो उन्हें मुख्य सचेतक से इसका स्पष्टीकरण देना होगा। उन्हें मतदान के लिये उपस्थित रहना होगा। अगर कांग्रेस 200 मतों के बारे में आश्वस्त हो तो अन्य घटकों से वह बातें कर सकती है। उन्हें बांटना भी सहज हो जायेगा। आखिर फूट डाल कर राज करने की इजारेदारी केवल अंग्रेजों की थोड़े ही है। इसके अलावा आगे जो आने वाला है उसके लिये एक अनुशासित और सुगठित कांग्रेस की जरूरत भी है। राहुल गांधी पार्टी को अपना आधार बनाना चाह रहे हैं। उनकी योजना है कि सन् 2012 में उत्तरप्रदेश पर कब्जा कर लिया जाय और लगे हाथ हो के तो बिहार पर भी। पश्चिम बंगाल को कब्जा करने में थोड़ा समय लग सकता है। क्योंकि ममता बनर्जी को पहले वहां से जीतने देना होगा फिर उनकी अक्षमता को प्रचारित करना होगा तब कहीं जाकर इसके आगे वाले चुनाव में कुछ हाथ लग सकता है। सन् 2014 में जब आम चुनाव होगा तब कांग्रेस उसी शर्त पर अकेले बहुमत में आ सकती जब विपक्ष कमजोर हो और कांग्रेस मजबूत हो। इसे विकसित देश की आधुनिक पार्टी की तरह होना होगा बस फर्क केवल इतना होगा कि इसके शीर्ष पद किसी खास के लिये आरक्षित होंगे। इसीलिये पार्टी ने राजनीति को नयी दिशा देने के लिये महिलाओं को जोडऩे का प्रयास किया है। सपा, राजद ओर बसपा अभी मंडल से चिपके हुए हैं और भविष्य में उन्हें बड़ी चुनौतियों का सामना कर पड़ सकता है। आने वाली सरकार को यदि जनता की आकांक्षाएं पूरी करनी हैं तो उसे जनता को साफ-साफ बताना होगा कि उसकी सीमाएं क्या हैं वरना वह कामयाब नहीं हो सकती है। जनता को बताने का यह रास्ता बेशक जोखिम भरा है।
हरिराम पांडेय
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हेडली और 'स्टुपिड कॉमन मैन
डेविड कोलमैन हेडली के मामले में सभी सरकारें लोगों को बरगलाने में लगी हैं, इसलिये अकेले मनमोहन सिंह की सरकार पर यह दोष नहीं मढ़ा जा सकता है। कुछ विशिष्ट पत्रकारों के माध्यम से मनमोहन सिंह की सरकार, खास कर हमारे माननीय गृह मंत्री महोदय, लगातार बताने की कोशिश कर रहे हैं कि एफ बी आई के समक्ष हेडली का कबूलनामा हमारी कूटनीति की बड़ी भारी विजय है। हमारे गृह सचिव ने बिल्कुल विजयी अंदाज में बताया कि बेशक इस मामले में हेडली का प्रत्यर्पण नहीं हो सकता है लेकिन अन्य मामले में उसके प्रत्यर्पण के रास्ते खुले हैं। लेकिन उन्होंने यह बताने की कृपा नहीं की कि वे अन्य मामले क्या हैं? गृहमंत्री का कहना है कि हम कोशिश जारी रखेंगे और 'इस बीच आतंकियों के हाथों आम भारतीयों का खून जारी रहेगा।
देश के एक बहुत बड़े अंग्रेजी अखबार ने लिखा कि हेडली के कबूलनामे से जो भारत को विजय मिली है वह चार प्रकार से महत्वपूर्ण है। पहला कि, पहली बार अल कायदा और लश्कर में रिश्ते की पोल अमरीकी अदालत में खुली। क्या सचमुच? जी नहीं अमरीकी अदालत में इस तरह की पहली घटना सन् 2003 में तब हुई थी, जब जार्ज बुश राष्ट्रपति थे। इसके बाद भी पाकिस्तानी, अफगान और सऊदी मूल के कई अमरीकी नागरिक इन मामलों में गिरफ्तार किये गये। उन पर अमरीकी भूमि से भारत के खिलाफ जंग करने के आरोप थे। दूसरा कारण उस पत्र ने यह बताया है कि हेडली पर मृत्युदंड का खतरा कायम है। अब उन्हें कौन बताये अमरीकी कानून के अंतर्गत एफ बी आई अगर किसी मामले में मृत्युदंड का विकल्प त्याग देता है तो किसी भी नये सबूत के उद्घाटित होने पर वह उस मामले में मृत्युदंड की मांग नहीं कर सकता है। ... और तीसरा कि भारत अभी भी अमरीका जाकर हेडली से पूछताछ कर सकता है। अब क्या बताया जाय कि अपनी हिरासत में पूछताछ और एफ बी आई की हिरासत में पूछताछ में क्या फर्क है। पहले तो एफ बी आई को लिखित प्रश्न सौंपने होंगे और वह उनकी समीक्षा करेगा, तब ही पूछताछ करने की अनुमति मिलेगी। चौथा कारण है कि लश्कर के खिलाफ भारत का दावा और मजबूत हो गया। अब ये, बता सकते हैं कि क्या भारत लश्कर के अमीर प्रो. हाफिज सईद को पाकिस्तान के हाथों गिरफ्तार करवा सकता है और सजा दिलवा सकता है? या, भारत यह देख सकता है कि पाकिस्तान में लश्कर के शिविर बर्बाद किये गये अथवा नहीं? क्या भारत ऐसा कुछ कर सकता है जिससे 26 / 11 जैसी घटना दुबारा ना हो? अगर ऐसा नहीं हो सकता है। तो दावा मजबूत होने से क्या लाभ? एक ओर बड़े अंग्रेजी अखबार ने अपने ज्ञान के जोम में यह बताया है कि हेडली के अपराध कबूले जाने से बेशक मृत्युदंड उसे नहीं मिलेगा पर जो मिलेगा वह क्या कम है? क्या वे यह कहना चाहते हैं कि भारत की निरीह जनता, दैट स्टुपिड कॉमन मैन, आतंक के नाम पर जो झेल रही है वह बहुत कम है। 26/11 मसले पर भारत की जांच दो समानांतर रेखाओं पर चल रही है। पहला कि यह सरासर लश्कर का काम है और इसका पाकिस्तान सरकार से कोई लेना-देना नहीं है और दूसरा कि इसके प्रति पाकिस्तान सरकार की कोई जिम्मेदारी भी नहीं है। इस कबूलनामे से अमरीका अपना दो उद्देश्य सफल करना चाहता है। पहला कि भारत सबको बताये कि इसमें लश्कर दोषी है और दूसरा कि इसमें पाकिस्तान की कोई भूमिका नहीं है। यहां मुख्य बात यही है।
अब देखिये कि एफ बी आई के हलफनामे के अनुसार हेडली को क्या मालूम है? हेडली की दोस्ती इलियास कश्मीरी से थी। इलियास 313 ब्रिगेड से ताल्लुक रखता है और ओसामा बिन लादेन का करीबी है। उसने ही हाल में आई पी एल मैचों और कामनवेल्थ खेलों पर हमले की धमकी दी थी। हेडली की उससे अंतिम मुलाकात सन् 2009 के आरंभ में उत्तरी वजीरिस्तान में हुई थी। वह लश्कर के कई नेताओं को जानता है और पाकिस्तानी सेना के कई आला अफसरों से उसका दोस्ताना है। इसके अलावा वह जो जानता है वह एफ बी आई ने बताया नहीं। वह जरूर जानता होगा कि भारत में लश्कर के कौन-कौन लोग हैं और उसके संगठन कहां-कहां हैं ? अगर अमरीका ने भारतीय अफसरों को पूछताछ की इजाजत दी होती तो कम से कम पुणे कांड नहीं हुआ होता। एफ बी आई यह समझता है कि हम (भारत) अगर सीधे पूछताछ करें तो वह कुछ नहीं जान पायेगा। यह हमारे आत्मसम्मान पर सीधा आघात है। हममें दम है पर हम सीधे खड़े होने में न जाने क्यों हिचक रहे हैं? जो लोग इसे अपनी विजय बता रहे हैं उन्हें मालूम होना चाहिये कि अगर कोई तालिबान अफगानिस्तान में पकड़ाता है तो पाकिस्तान उसे अपनी हिरासत में लेकर पूछताछ करता है। अगर अफगानिस्तान को आपत्ति भी होती है तो अमरीका उसे घुड़क देता है। और बाद में अमरीका भी उससे पूछताछ करता है। अगर पाकिस्तान आनाकानी करता है तो उसे परिणाम भुगतने को तैयार रहने को कहा जाता है।
हरिराम पांडेय
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Thursday, March 4, 2010
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस - खुशी मनाएँ या गम
सामाजिक मामलों में खुशी और गम का अद्भुत मेल होता है। पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी की तरह अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस भी एक मुट्ठी में खुशी और दूसरी मुट्ठी में गम लेकर आता है। अगस्त और जनवरी के पर्व हमारे पुरखों के संघर्ष की यादगार बन कर आते हैं और हमें स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों और आदर्शों की याद दिलाते हैं। वह समय इतना दूर भी नहीं कि उसकी अनुगूंजें हमें झंकृत न कर दें। देश में अभी भी ऐसे हजारों लोग जीवित हैं, जिन्होंने इस संघर्ष में हिस्सा लिया था और अपना बहुत कुछ गंवाया था। यही वजह है कि स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर देश की उपलब्धियों का मूल्यांकन करते समय हमारा मन उदास हो जाता है। हमें लगता है कि हमारे साथ धोखा हुआ है और इन दोनों दिवसों पर होनेवाले समारोह बिलकुल रस्मी हैं।
क्या अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का चरित्र भी कुछ ऐसा ही है? जब राष्ट्रसंघ ने हर साल 8 मार्च को 'विश्व महिला दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय किया, तब तक दुनिया भर में स्त्री चेतना का संघर्ष एक निर्णायक दौर तक पहुंच चुका था। लेकिन इस संघर्ष को पश्चिमी देशों में जैसी सफलता और मान्यता मिली, वह विश्व के अन्य भूखंडों में रहने वाली आधी आबादी को नहीं मिल सकी। जहां तक हमारे अपने देश का सवाल है, हमने अपने संविधान में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर जगह देने में जरा भी कृपणता नहीं की। हमारा संविधान बनाने वालों ने उन परिस्थितियों में जितना आदर्श संविधान बनाना संभव था, उसकी पूरी कोशिश की। उस विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी उन महानुभावों की थी, जिन पर इस दस्तावेज को लागू करने की लोकतांत्रिक जिम्मेदारी थी। यह काम कितना हुआ और कितना नहीं हुआ, यह हमारे सामने है। किसी भी देश के सांस्कृतिक विकास को आंकने का यह एक विश्वसनीय पैमाना हो सकता है कि वहां स्त्रियों की हालत कैसी है। इस मामले में हम भारतीय अपने आप पर बहुत ज्यादा इतरा नहीं सकते।
यही कारण है कि भारत में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस स्त्रियों का 'कोप दिवस' बन जाता है। वे तरह -तरह के तथ्य और आंकड़े जुटा कर यह साबित करती हैं कि देखो, आज भी हमारे साथ कितना अन्याय हो रहा है। इस दिन हर मुखर स्त्री समाज के विरुद्ध अपने एफआईआर को फिर से लिखती है और उसमें नई घटनाएं जोड़ती है। महिला दिवस पर गाना -बजाना कम होता है और दुखड़ा ज्यादा रोया जाता है। यह स्वाभाविक भी है। साल भर में हम जितनी समस्याओं से फारिग होते हैं, उससे ज्यादा नयी समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। इसलिए भारत में नारी संघर्ष के कम से कम दो चेहरे हैं। एक चेहरा मध्यवर्गीय महिलाओं का है, जिसकी मुख्य मांग 'नारी की स्वतंत्रता' की है। वह अपने शरीर, अपनी आत्मा और अपनी पारिवारिक तथा सामाजिक भूमिका को लेकर बहुत ही सचेत है और अपने सारे अधिकार हासिल करना चाहती है। दूसरा चेहरा ग्रामीण महिलाओं या शहर में रहने वाली गरीब महिलाओं का है। उनके लिए स्वतंत्रता से ज्यादा मूल्य दैनंदिन जीवन की सुविधाओं का है। उन्हें देह की आजादी से ज्यादा प्यारी है कई किलोमीटर दूर से पानी लाने और ढिबरी या लालटेन की मद्धिम रोशनी में चूल्हा -चौका करने के बोझ से आजादी।
वे मूर्ख या पागल हैं जो इन दोनों आजादियों को एक-दूसरे के विकल्प के रूप में देखते हैं। जीवन में इस तरह का बंटवारा नहीं होता और न चलता है। यही कारण है कि भारत में महिला आंदोलन तेज नहीं हो पा रहा है। ऐसा लगता है जैसे स्त्रियों के दो अलग -अलग लोक हैं और उनके बीच कोई संवाद नहीं है। मध्यवर्गीय औरत अपने लिए जिस आजादी की मांग करती है, वह आजादी गरीब औरतों को भी चाहिए और उन्हें भी तुरंत चाहिए -कल या परसों नहीं। लेकिन इस आजादी का उपभोग एक ऐसे ढांचे में ही किया जा सकता है, जिसमें मूलभूत भौतिक स्वतंत्रता सभी को हासिल हो। सच तो यह है कि आर्थिक सुरक्षा की चिंता भारत की मध्यवर्गीय महिलाओं के लिए भी उतना ही बड़ा मुद्दा है, जितना निर्धन महिलाओं के लिए। कोई औरत नौकरी करने जाती है, महज इससे यह अनुमान नहीं लगा लेना चाहिए कि उसे आर्थिक सुरक्षा प्राप्त हो गई है। असली सवाल यह है कि वह जो पैसा कमा रही है, उसे खर्च करने का अधिकार किसके पास है। हमारे परिवारों में अभी भी लोकतंत्र कायम नहीं है। लोकतांत्रिक माहौल बनाए बिना परिवार में या समाज में किसी भी वर्ग के वास्तविक अधिकारों की रक्षा नहीं की जा सकती।
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर शहरों में और मीडिया में तरह -तरह के रंगारंग आयोजन होते हैं तथा धरना -प्रदर्शनों का तांता लग जाता है, लेकिन कोई भी समूह अपने शहर के रेड लाइट इलाके में जाकर उन औरतों को मुक्त कराने के बारे में नहीं सोचता, जो शोषण और दमन की सबसे बुरी शिकार हैं? यहां शहरी और ग्रामीण का कोई भेद नहीं रह जाता। ये औरतें रहतीं तो शहरों में हैं, पर गांवों और कस्बों से भगाई और उठाई जाती हैं। यह औरतों का तीसरा वर्ग है, जिसके प्रति औरतों के बाकी दोनों वर्गों में पूर्ण उदासीनता देखी जाती है।
इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर एक प्रयोग किया जाना चाहिए। पुरुषों को, पितृसत्तात्मकता को और व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करने के बजाय महिला समूह अपनी अब तक की गतिविधियों पर विचार करें और अपने विश्वासों का वस्तुपरक परीक्षण करें। सिर्फ मांगने से जो मिलता है, वह अकसर सांकेतिक होता है, वास्तविक नहीं। इसी तरह, मांग रखने वालों को तभी कुछ हासिल होता है जब उनमें कुछ दम हो। सवाल है यह दम कैसे हासिल किया जाए। इसके लिए साफ समझ, आत्मीय सामूहिकता और संघर्ष का ठोस कार्यक्रम होना चाहिए।
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