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Wednesday, July 14, 2010

हमारे शहर पर खतरे बढ़ रहे हैं


हरिराम पांडेय
कोलकाता नगरनिगम के चेयरमैन सच्चिदानंद बनर्जी ने माना है कि यदि झमाझम बारिश हो तो यह शहर डूब जायेगा। यही नहीं दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली नगरनिगम को इसलिये डांटा है कि सड़कें इतनी खस्ता हाल हैं कि आने वाली बरसात में केवल पानी ही पानी रहेगा। कुछ साल पहले मुम्बई में बाढ़ की खबर सबने पढ़ी देखी या सुनी होगी जरूर। प्राकृतिक आपदा हो तो अलग बात है। अभी दो दिन पहले कोलकाता पुलिस ने चेताया कि शहर पर आतंकी हमला हो सकता है। पिछले दिनों अखबारों की सुर्खियों में था कि कामन वेल्थ गेम्स के दौरान दिल्ली आतंकियों का निशाना बन सकती है।
कितने खतरे गिनाएं जाएं, पिछले पांच तारीख को बंद के दौरान पूरा शहर असहाय सा पड़ा रहा। ऐसा कभी भी हो सकता है और कोई भी इस तरह की कोशिश कर सकता है।
यानी आप किसी भी शहर में हैं बेशक खतरे में हैं और किसी भी रूप में कहर कभी भी बरपा हो सकता है। शहरों में रहना खतरनाक लगने लगा है। पहले देहातों में 50 तरह के खतरे थे- कुदरत से भी और बुरे लोगों से भी। देहात का आदमी किसी-न-किसी बात से डरा हुआ रहता था। इस डर के खिलाफ जो आंदोलन शुरू हुआ उसी को हम सभ्यता कहते हैं। पहले जिंदगी को असुरक्षित बनाने वाली चीजों को कमजोर किया गया और इस कोशिश में शहरी जिंदगी का जन्म हुआ। शहरी जिंदगी जीने का एक नया अंदाज है। शहर एक खोज है, जो हमें रोजमर्रा के डरों से मुक्ति दिलाता है। यही कारण है कि हजारों बरसों से इंसान का सफर एक ही दिशा में जारी है - गांवों से शहरों की ओर।
कोई भी बड़ा शहर सत्ता का सिंहासन होता है। बाहर का इलाका उसे खुद से अलग समझता है और इसलिए टारगेट की तरह देखने लगता है। यह पहले नहीं होता था। ऐसा कोई शहर दुनिया में नहीं हो सकता, जो अपने लायक हर चीज खुद पैदा करता हो। दरअसल वह जितना बड़ा होता है, उतना ही बाहर के इलाकों पर निर्भर होने लगता है, लेकिन अब हाल यह है कि जितना वह निर्भर हो रहा है, उतना उसके घेरे जाने और मारे जाने के चांस बढ़ रहे हैं। शहर होना शहर का सबसे बड़ा पाप हो गया है। पिछले बरसों से बड़े शहरों में सेल्फ गवर्नमेंट का चलन शुरू हो गया। बाद में सिटी स्टेट का भी विचार प्रस्तुत हुआ। विचार यह था कि बड़े शहरों की खास जरूरतों के हिसाब से उन्हें अलग यूनिट माना जाना चाहिए। यह आइडिया आकर्षक था, लेकिन शहरों की बिगड़ती स्थिति और वहां लगातार बढ़ रहे खतरों को देख कर लगता है कि कोई भी सिस्टम ठीक नहीं है।
आप कहेंगे कि यहां बेकार इन खतरों को तूल दिया जा रहा है। लेकिन इतना तो सभी मानेंगे कि देश भर में विकास का पैसा भ्रष्टाचार की जमीन में खाद पानी का काम कर रहा है इसलिये विकास नहीं हो पा रहा है और इसका सबसे अधिक शिकार बड़े शहर ही हो रहे हैं। जायज-नाजायज हकों के लिए बेचैनी हर दिन बढ़ रही है। उसी रफ्तार से हिंसक तरीकों का इस्तेमाल भी, जिसे रोकने की कोई दिलचस्पी सरकारों की तरफ से नजर नहीं आती। लोकतंत्र में संख्याबल ने ब्लैकमेलिंग की शक्ल ले ली है और इसके सबसे आसान तरीके वही हैं, जो शहरी जिंदगी को तकलीफ पहुंचाते हैं। इसलिये शहर चाहे हमारा हो या आपका या किसी और का वहां खतरे बढ़ रहे हैं। ... और बाशिंदे असहाय। इसलिये यात्रा की दिशा बदलनी होगी- शहरों से गांवों की ओर।

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