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Tuesday, July 27, 2010

बेशर्म वे और बेबस हम

संसद के मानसून सत्र में विपक्ष के महंगाई पर काम रोको प्रस्ताव के रद्द होते ही मान्यवर सांसदों ने पिछले दिनों आसमान सिर पर उठा लिया और माहौल इतना उग्र हो गया कि संसद की कार्यवाही रोक देनी पड़ी। विपक्ष अड़ा हुआ था कि महंगाई के मुद्दे पर स्थगन प्रस्ताव के अलावा किसी भी सूरत में वह चर्चा नहीं होगी और सरकार इसे मानने को तैयार नहीं थी। यह जानते हुए भी कि इस हंगामे की भेंट भी गरीबी, महंगाई की मारी जनता की गाढ़ी कमाई ही चढ़ेगी।
आंकड़े बताते हैं कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर 40,000 रुपये से भी ज्यादा यानी एक घंटे में 24 लाख रुपये और एक दिन में 1.9 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। जरा पिछली लोकसभा से जुड़े इन आंकड़ों पर गौर करें। 2008 में लोकसभा की बैठक मात्र 46 दिन हुई। इतिहास में सबसे कम। लोकसभा की कार्यवाही चलाने में सरकार के 440 करोड़ रुपये खर्च हुए। लोकसभा की एक तो बैठक कम हुई और हुई भी तो काम की इतनी हड़बड़ी रही कि 17 मिनट में आठ विधेयक पारित कर दिए गए। बिना किसी बहस के। राज्यसभा ने भी जल्दबाजी दिखाई और 20 मिनट में तीन विधेयक निपटा दिए गए। जनता के 56 नुमाइंदे तो ऐसे निकले, जिन्होंने पांच साल के पूरे कार्यकाल में संसद में एक सवाल पूछने की भी जहमत नहीं उठायी। 67 सांसद ऐसे थे, जिन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में 10 या इससे भी कम सवाल पूछे। इस पर भी पैसे लेकर सवाल पूछने का मामला सामने आ गया और दस सांसदों को बर्खास्तगी झेलनी पड़ी। आप जनता का एक पैसा भी पाने लायक नहीं हैं। लगातार लोकसभा की कार्यवाही बाधित करने वाले सांसदों पर गुस्सा कर तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने यह टिप्पणी की थी।
ताजा बात करें तो इस साल बजट सत्र में ही नेताओं ने संसद की कार्यवाही बाधित कर जनता के 25 करोड़ रुपये पानी में बहा दिए। सत्र के दौरान सदन के 95 घंटे हंगामे की भेंट चढ़ गए। सत्र की समाप्ति के बाद लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार ने बताया, 'लगातार बाधा की वजह से संसद की कार्यवाही नहीं चल पाना बड़ी चिंता की बात है। इस सत्र में हंगामे और स्थगन की वजह से लोकसभा के 69 घंटे 51 मिनट बर्बाद हुए। बैठक देर तक संचालित कर 19 घंटे 38 मिनट की ही क्षतिपूर्ति की जा सकी। सत्र के दौरान राज्यसभा के 95 घंटे बर्बाद हुए।
खास बात यह है कि नेता यह सब जनता और अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर करते हैं। संविधान की धारा 19 (2) के तहत तमाम नागरिकों के अभिव्यक्ति के अधिकार को मूल अधिकार का दर्जा दिया गया है, पर इसमें यह भी कहा गया है कि अभिव्यक्ति संविधान के दायरे में होनी चाहिए। नेता अक्सर इसकी अनदेखी करते हैं। संसद में अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत संरक्षित किया गया है। सांसद-विधायक हंगामा करके ही जनता के पैसे में आग नहीं लगाते हैं, वे उनके पैसे खर्च करने में भी ज्यादा दिमाग नहीं लगाते, ताकि पैसे का अधिकतम सदुपयोग हो सके। संसद में बजट से जुड़े मुद्दों पर चर्चा के लिए दिए जाने वाले समय का औसत वर्ष 1952 से 1979 के बीच 23 फीसदी था। 1980 के बाद के वर्षों में यह औसत 10 प्रतिशत पर पहुंच गया है। 2004 में तो वित्त विधेयक बिना चर्चा के पास हो गया। 1993-94 में प्रति सांसद सरकारी खर्च 1.58 लाख रुपये बैठता था। दस साल में ही यह आंकड़ा 55.34 लाख पर पहुंच गया यानी 3,400 फीसदी का इजाफा ! इसी अवधि में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 500 प्रतिशत और सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह में करीब 900 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। पिछले पांच सालों में भी सांसदों पर सरकार का खर्च बढ़ा ही है और अब तो सांसद अपनी तनख्वाह 80 हजार रुपये प्रति महीना करवाने वाले हैं। यह हाल तब है जब सदन में उनका काम लगातार घट रहा है। 1980 में सदन का सत्र औसतन 143 दिन चलता था, जो 2001 में 90 दिन पर आ गया था। और हमारी बेबसी देखिये कि हम चुपचाप इसे देखते सुनते रहते हैं। इन हुड़दंगियों को वापस बुलाने का हक हमें है नहीं और चुनाव के दौरान रोकने में निर्बल हैं हम। वे महाशय भी सब जानते हैं और हमारी बेबसी पर ठहाके लगाते हैं।

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