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Thursday, July 22, 2010

इन्हें शर्म क्यों नहीं आती?

बिहार विधानमंडल में बुधवार को विपक्षी सदस्यों द्वारा विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी के ऊपर चप्पल फेंकी गयी। वहीं, विधान परिषद में सभापति ताराकांत झा का माइक उखाड़कर उनकी ओर फेंका गया।
विधानसभा में मंगलवार को भी जूतमपैजार हुई थी और हमारे माननीय विपक्षी सदस्य धरने पर बैठ गये थे। बुधवार को जब सदन की कार्यवाही शुरू हुई तो बिहार के विभिन्न विभागों में हुए 11412.54 करोड़ रुपये की कथित वित्तीय अनियमितताओं के मुद्दे पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के इस्तीफे की मांग को दोहराते हुए विपक्ष ने सदन में सरकार विरोधी नारेबाजी शुरू कर दी।
इस बीच, बिहार विधानसभा के उपाध्यक्ष शकुनी चौधरी ने अपनी कुछ बात रखनी चाही जिसका सदन में मौजूद उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने विरोध किया। अध्यक्ष से कहा कि चौधरी जी के कुछ कहे जाने के पूर्व सदन में व्यवस्था बहाल की जाए।
इस दौरान प्रदेश के जल संसाधन मंत्री बिजेंद्र प्रसाद यादव ने सदन में अमर्यादित आचरण के लिए 16 विपक्षी विधायकों को सदन से निलंबित किये जाने का एक प्रस्ताव लाया, जिसे सदन ने ध्वनिमत से पारित कर दिया।
बिहार विधानसभा में दूसरे दिन भी जो अशोभनीय और हिंसक दृश्य देखने को मिले, उन्हें देखकर हर बिहारवासी शर्मिंदा है। नागरिकों का अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों से विश्वास उठ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं। इन मान्यवरों ने सारी मर्यादाएं और लक्ष्मण रेखाएं पार कर ली हैं और इन्हें एक क्षण को भी जनता का प्रतिनिधित्व करने का हक नहीं होना चाहिए। यह कहने में हिचक नहीं होती कि ये विधायक या जनप्रतिनिधि नहीं पेशेवर गुंडे हैं। गुरुवार के अखबारों में गमले तोड़ती एक महिला सदस्य की जो तस्वीर देखने को मिली उससे तो लगता है कि अगर 30 प्रतिशत महिला आरक्षण हुआ तो सदन कबाड़ी बाजार में बदल जायेगा। हैरत की बात यह है कि गमले तोडऩे वाली माननीय सदस्या विधान परिषद की है और झगड़ा विधान सभा में हुआ था। अब उन्होंने यह रुख कैसे अख्तियार किया यह तो वे ही बता पायेंगी। जो बात शांति से हो सकती है और होती है, उसे ये बाहुबल से करना चाहते हैं। फिर ऐसे लोगों की जगह सदन में नहीं सड़क पर बल्कि जंगल में होनी चाहिए। क्या संसदीय लोकतंत्र में मुद्दे उठाने का यही अभद्र तरीका रह गया है ? मुद्दे के पक्ष या विपक्ष में जाने का अभी वक्त नहीं है। अभी खेल को खेल की तरह खेलने का समय है। विधानसभा अध्यक्ष को इन माननीयों ने आपसी सहमति से चुना है, क्या उस पर चप्पलें और जूते फेंके जाएंगे? क्या कुर्सियां और मेज सदन में उठाकर एक दूसरे पर मारे जाएंगे? माइक उखाड़े जाएंगे और कागज फाड़े जाएंगे? ये लोग शब्दों, तर्कों और तथ्यों के बजाय जूते और चप्पलों से अपनी बात मनवाना चाहते हैं। इन लोगों को अपने किए का जरा भी पश्चाताप नहीं, जबकि इनके नेता इन घटनाओं की निंदा तो करते हैं, मगर इन्हें रोकने की नैतिकता रत्ती भर नहीं दिखाते। ऐसा नहीं हो सकता कि इन नेताओं का अपने विधायकों पर नियंत्रण न हो। इसके विपरीत साफ लग रहा है कि सदन को सड़क बनाने का काम वे खुद पर्दे के पीछे से संचालित कर रहे हैं। हमारे देश ने लोकतंत्र तो पश्चिमी देशों से ले लिया, लेकिन हमारे प्रतिनिधियों ने अपने को लोकतांत्रिक गुणों, मर्यादाओं और स्वाभाव से जरा भी नहीं बांधा। देश में कौन सा ऐसा राजनीतिक दल है जिसमें आंतरिक लोकतंत्र है? जिसके दिल में लोकतंत्र नहीं, उसके दल में लोकतंत्र कहाँ से आएगा ? इसलिए हम एक बार नहीं, हजार बार इस तरह की घटनाओं को सदन में घटता हुआ देख रहे हैं, बल्कि अब तो लगता है कि खुदा न ख्वास्ता इनके हाथ में पिस्तौल हो तो उसे भी आजमा कर देखने में ये संकोच न करें। हमारे मतदाता इतने असहाय हैं कि जब-जब वे अपने वोट की ताकत से बदलाव लाने की कोशिश करते हैं, तब-तब उन्हें पता चलता है कि नये और पुराने चेहरों में कोई फर्क नहीं है। मतदाताओं को शर्म आ जाती है मगर प्रतिनिधियों को जरा भी शर्म नहीं आती।

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