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Sunday, June 6, 2010

अब शुरू होगा एक नया सियासी तमाशा

शनिवार को माकपा पोलित ब्यूरो की बैठक के दौरान पश्चिम बंगाल के सचिव ने साफ कर दिया कि बुद्धदेव भट्टाचार्य को मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने का सवाल ही नहीं उठता। यह एक साधारण सा सियासी जुमला है पर नयी पत्रकारिता के हाहाकार में एक नये सियासी तमाशे के आगाज का संकेत भी है। कभी कहावत थी कि...बंगाल जो आज सोचता है वह पूरा देश कल सोचता है।... ऐसा कब होता था, भगवान जाने पर आज बंगाल का सोच सबसे पीछे माना जायेगा। हाल के कॉरपोरेशन चुनाव का ही उदाहरण लें। ममता जी को भारी विजय मिली है। कोलकाता कॉरपोरेशन के इतिहास में अब तक ऐसा जनादेश किसी एक दल को नहीं मिला था। शनिवार के पोलित ब्यूरो की बैठक में बिमान बसु ने एक बड़ी मार्के की बात कही। उन्होंने इस पराजय का दोष सुधारों के ठीक से नहीं लागू किये जाने पर मढ़ा है। यहां इस पर विचार करना उतना जरूरी नहीं है कि क्या ममता बनर्जी उन सुधारों को लागू कर पायेंगी? बल्कि यह जरूरी है कि वे कौन से कारण थे जिससे लाल रंग फीका पड़ गया और और तिरंगे की सबसे निचली पट्टी की ओर बढ़ गया। यहां प्रसंगवश एक बात कहनी जरूरी हो गयी है कि पिछली आधी सदी की सबसे दूरदर्शी राजनेता इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के शीर्ष पर पसरी काहिली को पहचान लिया था। उन्होंने पार्टी को तोड़ा और वे खुद एक नए अवतार में सामने आईं। गरीबी हटाओ का नारा इंदिरा गांधी की सूझबूझ का परिचायक था। इसके अनुरूप अर्थव्यवस्था को वह नहीं बदल पायीं । मिल-जुलकर राजकाज चलाने में भी उनका भरोसा नहीं था। न ही वह उद्योग, मजदूर, किसान, मीडिया के साथ बदलाव का जोड़ तैयार कर सकीं। भारत इतना विशाल देश है कि बिना एकजुटता के यह हिलता तक नहीं। इंदिरा जी से यही गलती हुई और कांग्रेस का पराभव हो गया।
अब आइये बंगाल की बात करें। यहां पिछले तीन दशकों से कम्युनिस्ट पार्टी का राज था। बंगाल में कम्युनिस्ट राज का आधार थी सामाजिक स्थिरता, जिसे साठ के दशक में कांग्रेस नष्ट कर चुकी थी। बंगाल में बीते तीन दशकों के अमन-चैन ने इस सच को ढंक दिया है कि वह बंटवारे से उपजा प्रांत है और यहां सांप्रदायिकता की जड़ें देश में सबसे (यहां तक कि पंजाब से भी) गहरी रही हैं। मुस्लिम लीग का जन्म बंगाल में हुआ था। 19 वीं सदी के बंगला लेखन में व्याप्त मुस्लिम विरोधी तत्वों पर गौर करें तो उनके सामने पंजाबी साहित्य फीका मालूम होगा। हमने इतिहास में दो बंगाल के बारे में पढ़ा है। एक था मुस्लिम बहुल पूर्व बंगाल और दूसरा था हिंदू बहुल पश्चिम बंगाल। सरहद ने इसे अलग कर दिया। अब एक ही बंगाल बच गया। लेकिन हम भूल गये कि उस बंटवारे के साठ वर्षों के दौरान इस बंगाल में भी दो बंगाल का उदय हो गया है। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी 28 प्रतिशत है। ताजा जनगणना के बाद यह 30 प्रतिशत तक हो सकती है। उनका घनत्व समान नहीं है। बंगलादेश से सटे पूर्वी जिलों में मुसलमानों की घनी आबादी है। कोलकाता के दक्षिण, पूर्व और उत्तर में करीब 40 फीसदी मतदाता मुसलमान हैं। ममता बनर्जी की कामयाबी का बुनियादी कारण यह है कि मुस्लिम वोट वाम दलों से टूटकर उनके व्यक्तित्व की ओर खिंचे हैं। फिलहाल ममता बनर्जी का व्यक्तित्व ही है, जिसने विद्रोह की लहर पैदा की है। लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है कि अपनी बढ़त को अभी वह एक राजनीतिक संगठन में संस्थागत रूप नहीं दे सकी हैं। दिलचस्प है कि ममता के प्रति मुस्लिमों में जैसा उत्साह है, वैसा कांग्रेस के प्रति नहीं है।
पोलित ब्यूरो में बिमान बसु का यह कहना कि सुधारों को ठीक से लागू नहीं किया जा सका बिल्कुल सांकेतिक है। उन्होंने या यों कहें पार्टी ने नौकरियों में मुस्लिमों के लिये आरक्षण की शुरुआत कर दी है। आज की युवा पीढ़ी को बदलाव एक रोमांचक विचार लगता है, ठीक वैसे ही जैसे 70 के दशक में नक्सली आंदोलन ने यहां के युवा वर्ग को आकर्षित किया था। सन् 2011 तक क्या होगा यह तो भविष्य ही बतायेगा। लेकिन यह तो तय है कि डोर मुस्लिमों के हाथ में होगी। अतएव इस दौरान अल्प संख्यकों को आकर्षित करने के नये- नये हथकंडे अपनाने की होड़ लगेगी और शुरू होगा एक नया सियासी तमाशा।

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