हरिराम पांडेय
इन दिनों लगता है कि भारत शाश्वत रूप से चुनावी महामारी का शिकार होने जा रहा है। यदि राज्य में चुनाव नहीं हो रहे हैं तो नगर निगम और और नगरपालिकाओं के चुनाव हो रहे हैं और विधान सभाओं के हो रहे हैं। अब चुनाव जहां होते हैं, वही केवल विपर्यय नहीं होता, बल्कि केन्द्र में भी अफरा-तफरी मच जाती है और वहां भी सियासी सांप- सीढ़ी के खेल शुरू हो जाते हैं। अभी हमारे सामने कोलकाता नगर निगम और पश्चिम बंगाल की नगरपालिकाओं के चुनाव के नतीजे हैं और इनमें ममता बनर्जी को भारी विजय मिली है। सीताराम येचुरी ने इस पराजय को जनता का पार्टी से..विलगाव.. बताया है। यह बड़ा ही दार्शनिक उत्तर है और आम बोलचाल की भाषा में इसे बहानेबाजी कह सकते हैं। अब यह जान लें कि अबसे और पश्चिम बंगाल में जब तक विधानसभा चुनाव नहीं हो जाते हैं तब तक न केवल राज्य में केन्द्र में भी राजनीति थमी रहेगी। ममता बनर्जी में किसी भी हालात को विपर्ययग्रस्त करने की भारी क्षमता है और वह उनकी अच्छाइयों पर परदा डाल देता है। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने जमीन आसमान के कुलाबे मिला कर नंदीग्राम के लिये विदेशी पूंजी का जुगाड़ लगाया और ममता जी ने उस अटका दिया। टाटा की मिन्नतें करके सिंगूर में कार का कारखाना लगाने का डौल बिठाया और ममता जी ने रतन टाटा को ही खदेड़ दिया। वे जब मन होता है तो मंत्रिमंडल की बैठक में शरीक होती हैं और कोई उनसे पूछने वाला नहीं है। अब हालात और बिगड़ेंगे, क्योंकि ममता जी विधानसभा चुनाव जीतकर सत्ता में आने की कोशिश में लग जायेंगी। माकपा भी अपने तीन दशक के शासन काल में आखिरी दौर में चेती। वह कुछ आर्थिक विकास के चक्कर में पड़ गयी है। ज्योति बसु बेशक बंगाल में पार्टी के शलाका पुरुष हो सकते हैं, लेकिन उन्होंने बंगाल का जितना नुकसान किया उतना शायद लालू प्रसाद यादव ने बिहार का नहीं किया। उन्होंने बेशक लाल झंडे से लोगों को लुभाया पर लोगों को दो जून की रोटी मिल सके, ऐसी कोई व्यवस्था नहीं कर सके। पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था और यहां की संस्कृति एक जमाने में देश में अग्रणी मानी जाती थी पर 20 वीं शताब्दी में इसका अधोपतन हो गया। पश्चिम बंगाल में राजनीति में नेताओं का पतन तो 1905 से ही शुरू हो गया। 21वीं सदी में उम्मीद बंधी कि थोड़ा सुधार होगा पर बुद्धदेव बाबू का न कद इतना बड़ा था और ना ही ये समय पर आये। समय के इस मोड़ पर ममता आयीं और उन्होंने दिखा दिया कि दोनों बर्बादी के खेल खेल सकते हैं। बंगाल का सामाजिक मनोविज्ञान कुछ ऐसा है कि यहां परिवर्तन के लिये किसी सकारात्मक अजेंडे या किसी विकास की गारंटी की जरूरत नहीं है। बस उनकी घृणा या भय को भड़काने की जरूरत है। माकपा ने इसे अपनी तरह से किया और ममता अब किसी दूसरी तरह से करेंगी। 2011 में ममता विजयी होकर सत्ता में आयेंगी ही। यहां यह मुख्य है कि वे कितने दिनों तक सत्ता में बनी रहेंगी और बंगाल को बरबाद करती रहेंगी। यह तो मुमकिन नहीं है कि वे किसी विदेशी या देसी उद्योगपति को राज्य में आमंत्रित करेंगी और टाटा का हाल देखने के बाद कोई समझदार उद्योगपति उन पर कैसे विश्वास कर लेगा। ममता जी को इस ऊंचाई तक पहुंचाने के लिये कांग्रेस भी दोषी है। ब्रिटिश संस्कारों में रह कर राजनीति की शुरुआत करने वाली यह पार्टी अभी भी..बांटो और राज करो.. वाली नीति पर भरोसा करती है। उसका मन सीपीएम से भर गया तो उसने ममता को अपने साथ जोड़ लिया। वरना राजग के शासन काल के एक मंत्री के लिये पलक पांवड़े क्यों बिछाये जाते? राजनीति के शून्य में राज्य में नक्सलियों ने अपना गढ़ बना लिया तो इसमें क्या आश्चर्य है? आज पश्चिम बंगाल वहीं खड़ा है जहां 30 साल पहले था और उतना ही बदहाल है। भविष्य अच्छा नहीं दिख रहा है।
Friday, June 11, 2010
सियासी त्रासदी की दस्तक
Posted by pandeyhariram at 2:56 AM
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