हरिराम पांडेय
सोमवार को गंगा दशहरा था। उत्तर भारत के विभिन्न स्थानों की भांति हावड़ा में भी गंगा दशहरा का आयोजन हुआ। इसे संयोग कहें या सायास प्रयोग कि बाबा भूतनाथ के मंदिर से नैऋत्य कोण पर रामकृष्णपुर घाट पर गंगा की आरती और वह भी वहां से अग्नि कोण पर अवस्थित मां काली के विख्यात मंदिर की दिशा के अभिमुख मां गंगा की आरती का न केवल आध्यात्मिक महत्व है बल्कि इसका विलक्षण तांत्रिक महत्व भी है। इसमें एक अजीब सा अस्पष्ट और अशरीरी अनुभव का भान होता है। उस अनुभव को जॉब चार्नक से लेकर लम्बी गुलामी के मानस शास्त्र और उसके बाद चौथाई सदी से ज्यादा अरसे तक कम्युनिज्म के ब्रेनवॉश के बावजूद आत्मीय और वास्तविक आस्था का अनुभव घाट पर एकत्र विशाल जनसमुदाय के 'हर हर महादेव के उद्घोष से होता है। लेकिन यह अनुभव उन तमाम अनुभवों से अलग भी है। अभी तक जो भी अनुभव होते हैं वे आदमी के भीतर अपनी उपस्थिति का अहसास कराते हैं लेकिन यह अनुभव सर्वथा भिन्न है। यह अपनी मौजूदगी से इंसान को किसी विराट अनुपस्थिति से साक्षात करवाता है। हम उस चीज को अनुभव करते हैं जो पहले कभी थी, हमसे जुड़ी थी पर अब नहीं है। यह अधूरापन, यह वंचित होने का भाव कुछ ऐसा है जैसे इतिहास के दो हिस्से हो, जिनमें एक हिस्सा तो हम पढ़ पाते हैं पर दूसरा लिखित होते हुये भी हम अंधेरे में है ओर हम पढ़ नहीं पाते। क्यों नहीं पढ़ पाते?
इस प्रश्न में छिपा वह है जिसे हम धर्म या धार्मिक अनुभव कहते हैं। गंगा के घाट पर..हर-हर महादेव.. और..हर-हर गंगे.. का तुमुल घोष उसी अंधेरे में छिपे मानव जाति के कल्याण के इतिहास को पढऩे का प्रयास की तरफ कदम उठाने की कोशिश है। एक मानसिक आकुलता है इसकी झलक हमें रामकृष्ण परमहंस के आरंभिक जीवन की आर्त विह्वïलता में छिपी दिखती है। यह वेदना यह अकुलाहट कहीं बाहर से नहीं मिलती बल्कि वहीं छिपी होती है एकदम अपने भीतर जहां बैठ कर हम पूछते हैं कि मेरा जीवन किसलिये है? आज का मनुष्य यह इसलिये पूछता है कि वह खुद को सृष्टि से अलग कर बैठा है। कैसी विडम्बना है कि समूची सृष्टि का साक्षी मनुष्य है पर मनुष्य का साक्षी कौन है। वह सबको नाम देता है पर क्या कभी किसी ने सोचा है कि उसका नाम किसने दिया?
एक प्रखर बुद्धिजीवी मित्र ने एक बार कई उद्धरण देकर दावा किया कि 'हिंदू धर्म का हिंदू नाम ही अपना नहीं है , यह दूसरों का दिया हुआ है। लेकिन अब उनसे कौन पूछे कि मनुष्य का नाम किसने दिया। सब चुप हैं। यहीं आकर बोध होता है कि मनुष्य केवल दृष्टा ही नहीं वह आत्मदृष्टा भी है। जैसे ही हम आत्मदृष्टा का नाम लेते हैं पहली बार कोई बोध, धुंधला ही सही, होता है, क्या यही ईश्वर है?
मनुष्य जब खुद को बाहर से देखता है तो बाहर असीम और विराट है। लेकिन जब वह अपने भीतर देखता है तो खुद को इस सृष्टि से जुड़ा हुआ पाता है। यह लगाव से उपजा प्रेम है जिसमें जिसमें आत्म का अदृश्य बोध पहली बार भाषा ग्रहण करता है। शायद यही कारण है कि हमारे यहां इस बोध को मंत्र कहते हैं तथा इनके गाने एवं जपने का प्रावधान है। गाने ओर जपने के समय ऐसा महसूस होता है कि यह.. मैं.. हूं, जिसे पढ़ा जा रहा है।
गंगा की आरती के समय इसी अहसास से आबद्ध होकर लोगों ने हर- हर गंगे का तुमुल घोष किया। आरती की लौ ने संभवत: हमें भीतर देखने को उत्प्रेरित किया। यह मानस खुद को गंगा से जुड़ा हुआ पायेगा और जुड़ाव से उपजा प्रेम गंगा को स्वच्छ बनाने के लिये संकल्पबद्ध है।
यह 'सम्मिलित सद्भावना का प्रयास है कि हजारों लोगों की सद्भावना का सम्मिलित हो गयीं ।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है ये सूरत बदलनी चाहिये।
मेरे सीने में न सही तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी मगर आग जलनी चाहिये।
Tuesday, June 22, 2010
गंगा की स्वच्छता के उत्प्रेरण के लिये अनूठा अभियान
Posted by pandeyhariram at 7:34 AM
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 comments:
Post a Comment