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Friday, June 18, 2010

हावड़ा में गंगा आरती : आस्था के बिम्बों को साधने का प्रयास

उस दिन ढलती दोपहरी में अशोक पाण्डेय ने दफ्तर पहुंच कर बताया, हावड़ा के राम कृष्ण पुर घाट पर गंगा दशहरा का आयोजन हो रहा है। यह कोलकाता में पहली बार हो रहा है।
गंगा दशहरा क्या सचमुच?
कोलकाता जहां आसपास ही गंगा की यात्रा और उद्देश्य दोनों समाप्त हो जाते हैं। कोलकाता या बंगाल, जहां देवि का मायका माना जाता है वहां एक और देवि के लिये दशहरा!
अजीब सी पौराणिक अनुभूति से मन भर गया।
सहसा मन में उस दिन की स्मृति मन में कौंध गयी- बिल्कुल फ्लैश बैक की तरह- जिस दिन मनोज पाण्डेय और विक्रांत दूबे ने लगभग एक ही समय में फोन करके बताया कि हरिद्वार और काशी की तरह कोलकाता में भी गंगा आरती का आयोजन हुआ है- हर रविवार की शाम को।
-'कहां?Ó
-'बाबूघाट के ठीक सामने 'गंगाÓ के पश्चिमी किनारे पर!Ó
-'बाबूघाट या उसके उत्तर - दक्षिण पूर्वी तट पर क्यों नहीं? जहां से डूबते सूरज की झिलमिल भी गंगा की आध्यामिकता को बढ़ा देती?Ó
उधर से कोई आवाज नहीं।
बाबूघाट से दक्षिण जहां से दक्षिणायन होती कोलकाता की 'गंगाÓ धीरे - धीरे सागर से गले लग जाती है। अजीब शहर है कोलकाता भी। उत्तर से दक्षिण की ओर गंगा के किनारे इतिहास के दंश और उसकी कलुषता को समेटे अनगिनत स्मारक, मिट्टïी के ढूह, श्मशान और उनसे जुड़ी कहानियां। इनके बीच से गुजरते समय ऐसा लगता है जैसे हम एक समय से उठ कर दूसरे समय में चले गये हैं। बाबूघाट से गंगा के किनारे दक्षिण की तरफ बढ़ते हुए कालीघाट तक और उधर उत्तर की ओर दक्षिणेश्वर की तरफ बढ़ते हुए एक अजीब सी उदासी घिर आती है। जैसे कोई हिचकी, कोई सांस या कोई चीख यहां दफन हो, जो न अतीत से छुटकारा पा सकती हो और न वर्तमान में जज्ब हो सकती हो।
अचानक मन में इक सवाल आता है- गंगा की आरती क्यों? यह सनातनी रस्म क्यों?
बताया गया, गंगा और दूषित होने से रोकने तथा अब तक जो दूषण हो गया उसे स्वच्छ करने के लिए आम जन में चेतना पैदा करने के इरादे से।
अनिल राय एक बार आरती में शामिल होकर लौटे। अतुलनीय रोमांच के साथ उन्होंने आरती के दीप की गति तथा लय और गंगा स्तुति का वर्णन किया। यह एक ऐसा 'अपीयरेंसÓ जिसे बिना शामिल हुए नहीं जाना जा सकता है। ठीक रामलीला के उन प्रसंगों की भांति जिसे देखकर लोग रो लेते हैं, संवेदना से लबालब हो जाते हैं, यह जानते हुए भी कि यह लीला है- एक 'अपीयरेंसÓ है, सच नहीं है।
मैं पूछता हूं खुद से कि 'इस बहते पानी से हिंदू मानस का इतना गहरा - घना लगाव क्यों है?Ó
शायद इसलिए तो नहीं कि इसमें मिथक और इतिहास का गहरा भेद छिपा है। ... और इस भेद में सिर्फ रहस्य का ही आशय नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिकता भी है। गंगा एक भारतीय के लिए खास कर एक हिंदू के लिए महज बहता पानी नहीं है। वह हमारी सबसे गहन स्मृतियों को- जिन्हें हम संस्कार कहते हैं, जगाती है। हमें इतिहास के उन मिथक क्षणों में ले जाती है, जहां बैठ कर सगरपुत्रों की मौत की पीड़ा, उनकी मुक्ति के लिए भगीरथ की तपस्या का रोमांच, भगवान शंकर की खुली जटाओं में निर्बंध गंगा के आधान की आश्वस्ति और वहां से मुक्त हो कर सागर तक उसकी हहराती यात्रा के आवेग को हम महसूस करते हैं। कितना अजीब विरोधाभास है कि एक समय में एक आदमी(भगीरथ) द्वारा मेदिनी पर लायी गयी यह धारा समय के साथ प्रकृति में बदल गयी। शाम की धूप में कालातीत, इतिहास से मुक्त। पीढ़ी दर पीढ़ी इस धारा में नहाते हुए लोगों ने इसे अपनी स्मृति में पिरो दिया है। यहां इतिहास, धर्म और प्रकृति एक दूसरे से मिल जाते हैं।
ऊपर मैंने एक अजीब सी उदासी का जिक्र किया है। उसके नीचे एक और गहरी उदासी दबी है- वह उनके लिए नहीं जो एक जमाने जीवित थे और इन घाटों पर दमन, अत्याचार का शिकार होकर मरे, बल्कि वह बहुत कुछ अपने लिए है, जो एक दिन इन घाटों, तटों और मंदिरों को देखने के लिए बचे नहीं रहेंगे। ये घाट, ये तट और ये मंदिर हमें उस मृत्यु का बोध कराते हैं जिसे हम अपने भीतर लेकर चलते हैं। यह धारा उस जीवन का बोध कराती है, जो मृत्यु के शाश्वत होने के बावजूद वर्तमान है, गतिशील और इतिहास से परे है। बाबूघाट के अगल-बगल के उन घाटों की ओर या दक्षिणेश्वर अथवा की मंदिर को इंगित करके बहती धारा की आरती यूनानी काव्य में वर्णित 'कैथार्सिसÓ की सम्पूर्ति की तरह लगती है।
आरती के सम्बंध में पूछे गये सवाल के जवाब में टेलीफोन पर विक्रांत की चुप्पी इसी 'कैथार्सिसÓ के रहस्य की तरह है। आरती देखकर लौटे अनिल राय के रोमांच के मायने भी अब खुलने लगे हैं। आरती के बाद भीतर की पीड़ा से छुटकारा पा लेने का वह अनुभव दुर्लभ है। दुर्लभ इसलिए कि हम इतिहास और मिथक, समय और शाश्वत को बांटने के आदी हो गये हैं। आज हम अपने भीतर पौराणिक क्षणों को ठीक उसी तरह जीते हैं जिस तरह मिथक काल का व्यक्ति इतिहास को भोगता था। यदि आज हम ऐतिहासिक काल में रहते हैं तो हमारे भीतर उस स्वप्न को पाने की आकांक्षा आंख खोले रहती है, जब हम सम्पूर्ण थे। माना कि यह मिथक काल की वास्तविकता नहीं थी पर इससे न तो स्वप्न झूठे हो जाते हैं और ना आकांक्षा की तीव्रता मंद हो जाती है। हम स्वप्न खो चुके हैं इसका अहसास उस समय 'सतीÓ को भी हुआ होगा जब उन्होंने खुद को अग्नि को समर्पित किया अथवा आदिकवि बाल्मीकि को भी रहा होगा। क्योंकि समूचा काव्य उस खोने के आतंक को समझने का प्रयास है। मिथक काल में आस्था प्रमुख थी और संदेह क्षीण था। ऐतिहासिक काल में संदेह प्रबल हो गया। लेकिन कभी ऐसा भी था कि दोनो बराबर थे - आस्था और संदेह - आलोक और अंधेरा दोनों बराबर थे। इस अहसास का पहला एपिक उदाहरण महाभारत है। उसमें कई ऐसे स्थल आते हैं जहां व्यक्ति को दोनों चेतना का अहसास एक ही समय में होता है। जब कभी एक पलड़ा भारी पडऩे लगता है और दोनों के बीच संतुलन (धर्म) बिगडऩे लगता है तो स्वयं कृष्ण घटनाचक्र में हस्तक्षेप करने को मजबूर हो जाते हैं। इसमें आस्था और संदेह का घात- प्रतिघात सबसे तीव्र है। महाभारत के अंतिम क्षणों में शर शय्या पर पड़े भीष्म के पैरों के पास खड़े युधिष्ठिïर युद्ध की व्यर्थता पर हाथ मलते मिलते हैं। एक बार फिर संदेह और आस्था का साक्षात्कार और धर्मराज हिमालय में चले जाते हैं। पीछे छोड़ जाते हैं लहूलुहान इतिहास और ऊपर तटस्थ, निर्दोष और अंतहीन आकाश। यहां कोई भ्रम नहीं है, कोई छलावा नहीं है। मनुष्य अपने में ही शुरू होता है और अपने में ही नष्टï हो जाता है। यही शाश्वत है, सम्पूर्ण है और अंतिम है। सब कुछ यहां है, अभी है। इसके आगे सिर्फ राख है, कुछ भी नहीं है। आरती आध्यात्मिक रूप से आस्था के इन बिम्बों को साधने का कर्मकांड है।
मनोज सकुचाते हुए कहते हैं, हम कुदाल और टोकरियां लेकर गंगा की सफाई तो कर नहीं सकते और न डंडे मार कर दूषित करने वालों को रोक सकते हैं, देखिए यह राह चुनी है, देखिए आगे क्या होता है। उनकी आवाज में युधिष्ठिïर की निराशा नहीं है। सूरज डूबने लगा है। घाट पर से झांझों की आवाज आने लगी है। अभी आरती की लौ जलेगी और पूरा वातावरण गंगा की स्तुति से आस्थामय हो जायेगा। अचानक मन में दुष्यंत कुमार का एक शेर आता है-
कौन कहता है कि आसमान में सुराख हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों
- हरि राम पाण्डेय

2 comments:

Unknown said...

Respected Pandey ji,

My heartiest best wishes and regards for this very dynamic step in IT revolution,... all the best .. keep it up sir ji, Take care
rajesh

Unknown said...

Respected Pandey ji,

My heartiest best wishes & best wishes for this pro active development... Thanks and all the best, Take care

Rajesh pagaria