हरिराम पांडेय
भोपाल गैस कांड के फैसले के बाद अब राजीव गांधी की भूमिका को लेकर उनके राजनीतिक वारिस तरह - तरह की बातें करने लगे हैं। ढेर सारी आलोचनाएं और शंकाएं। ऐसे में यह जरूरी है कि राजीव गांधी ने अपने जीवनकाल में जो कुछ भी अच्छा किया उसे भी याद किया जाय। खास कर उसे जो उन्होंने गद्दी पर आने के पहले ही किया। ऐसा किया जाना तीन कारणों से जरूरी है। पहला, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये उन्होंने जो भी किया उसका श्रेय उन्हें ना के बराबर मिला। दूसरा कि, ऐसी स्थिति में जब माओवादियों से निपटने की राह हमें नहीं दिख रही है वैसे में हो सकता है इससे कोई सबक मिल जाय और तीसरा कि समसामयिक भारतीय इतिहास में 1984 सबसे कठिन साल था, क्योंकि इसी अवधि में ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ, उसके बाद सेना की सिख रेजिमेंट में बगावत की बात उड़ी, इंदिरा जी की हत्या हुई तत्पश्चात बड़ी संख्या में सिखों का कत्ल और उसके बाद चुनाव प्रचार के दौरान भोपाल गैस कांड। हममें से बहुत लोग ऐसे हैं जिन्होंने इस अवधि को बड़ी शिद्दत से झेला होगा और इसकी आंच को महसूस किया होगा। यदि ऐतिहासिक धाराओं और दबावों का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि 1971 के बाद 1984 सबसे कठिन अवधि थी। जहां तक भोपाल गैस कांड का सवाल है, यह घटना एक ऐसी..केयर टेकर.. प्रधानमंत्री के काल में घटी, जब उसको सत्ता में आये पांच हफ्ते ही हुए थे। ऐसे में उस दुःखद घटना की तरफ पूरा ध्यान नहीं जाना मानवीय भूल की सीमा में आ सकता है। हर आदमी यह सोच सकता है कि उस काल में दिल्ली में बैठी सरकार कितनी दुःखद स्थिति में रही होगी जब उसे अपने देश में एक सम्माननीय जाति के धार्मिक स्थल पर टैंकों और तोपों से हमले करने पड़े होंगे, अपनी ही फौज को अपने साथियों से मुकाबला करना पड़ा होगा और विद्रोह के नाम पर उन साथियों को मारना पड़ा होगा। अपने देश के इतिहास में सबसे ज्यादा ताकतवर प्रधानमंत्री अपने ही अंगरक्षक की गोलियों से जमीन पड़ा छटपटा रहा होगा और राष्ट्रपति निवास से एक मील की दूरी के भीतर अपने ही लोगों का कत्लेआम होता हुआ देश देख रहा होगा और सन्न रह गया होगा। ऐसी स्थिति में हम भूल गये कि उस सरकार ने कई महत्वपूर्ण योगदान भी दिये। शुरू करें उस चिंतन प्रक्रिया से जिसका नतीजा हमें नेशनल सिक्यूरिटी गाड्र्स के रूप में मिला।..ब्लैक कैट.. के नाम से विख्यात इन जांबाज कमांडो का जलवा 2008 में मुम्बई में सारी दुनिया ने देखा। सन् 1984 के जून में आपरेशन ब्लू स्टार हुआ था। उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री नहीं थे पर प्रधानमंत्री कार्यालय से दूर भी नहीं थे। यह आपरेशन एक सामरिक सफलता जरूर थी पर भारी सियासी नाकामी थी। इस आपरेशन की नाकामी यह थी कि इसमें जहां फौज ने बाकायदा युद्ध किया वहीं सिखों को दुश्मनों की तरह मोर्चे लेने के लिये बाध्य कर दिया। इस स्थिति ने राजीव गांधी को सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या यह कार्य किसी और दूसरे ढंग से नहीं किया जा सकता था? आखिर उनके नाना जवाहर लाल नेहरू ने भी तो हैदराबाद और गोवा में फौज भेजी और नाम दिया था..'पुलिस एक्शन।.. नेहरू बहुत समझदार थे और वे समझते थे कि फौज को अंदरूनी मामलात में नहीं घसीटा जाना चाहिये। पुलिस तो बुरे लोगों के जमावड़े के रूप में बदनाम है और उसे ऐसे विशेषणों से गुरेज भी नहीं है। शायद यही विचार प्रक्रिया थी जिससे एन एस जी के गठन को व्यावहारिक स्वरूप मिला। विचार साफ था कि फौज की पूरी क्षमता का उपयोग हो और कहीं फौज का नाम भी ना आये। यहां यह बात इसलिये नहीं कही जा रही है कि ऐतिहासिक रेकाड्र्स को दुरुस्त किया जाय बल्कि इसलिये कही जा रही है कि आज माओवाद के मुकाबले के लिये जो तू तू मैं मैं हो रही है नेतागण उससे परे जाकर एक साथ मिल कर कुछ सोचें, सकारात्मक सोचें। वरना हम अपने हाथों से अपनी पीठ चाहे जितनी थपपथा लें पर दुनिया में कोई भी देश ऐसे मुल्क को गंभीरता से नहीं लेता। हमारे नेताओं को चाहिये कि इस दिशा में विचार करें।
Sunday, June 13, 2010
इतिहास से सीखें
Posted by pandeyhariram at 6:50 AM
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