Thursday, November 21, 2013
पत्रकार हरिराम पाण्डेय को इंदिरा प्रियदर्शनी पुरस्कार
Posted by pandeyhariram at 3:26 AM 0 comments
Sunday, October 20, 2013
एक परीकथा: सपने में सोना
21.10 2013 एक कथित साधु ने सपना देखा कि एक ताल्लुकदार के किले की नींव में सैकड़ों टन सोना दबा हुआ है और चूंकि देश की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है इसलिये इससे मदद मिल सकती है। अब कहने को उस साधु ने वक्त के हाकिम को और अन्य लोगों को लिखा नतीजतन खुदाई शुरू हो गई। सोना नहीं मिला क्योंकि सपने में सोना मिलना और जमीन के भीतर सोना मिलने में काफी फर्क है। अब किले की खुदाई करने वाली संस्था जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जी एस आई) वाले यह कहते चल रहे हैं कि उनका सोने से कुछ लेना- देना नहीं है बल्कि वे तो ऐतिहासिक तथ्यों की पड़ताल के लिये खुदाई कर रहे हैं। अब जहां तक डौंडिया खेड़ा, जिवा उन्नाव , उत्तर प्रदेश के किले के इतिहास का सवाल है तो यह किला राजा रामबख्श का था और वहां सिपाही विद्रोह के जमाने में अंग्रेज कमांडर कॉलिन कैम्पबेल के सिपाहियों से रामबख्श के नेतृत्व में विद्रोहियों की जंग हुई थी। खजाने की तलाश में चलती सरकारी कुदालों का यह नजारा भारत की पूरी दास्तान बयां कर देता था। यह एक बेजोड़ नजारा है, जहां भारत के भूत, भविष्य और वर्तमान एक साथ झलक रहे थे, इससे हम जान सकते हैं कि हम जो हैं, वह क्यों हैं। उन्नाव का यह गांव भारत का मिनिएचर मॉडल बन गया है। यह दास्तान उसी अवैज्ञानिक सोच और भाग्यवाद की है, जिसने भारत का इतिहास गढ़ा। पुराने सबूत बहस, तर्क और बौद्धिक उत्तेजना की एक लंबी परंपरा की गवाही देते हैं, जो भारतीय दर्शनशास्त्र के छह अंगों के बीच चली। हालांकि साइंटिफिक थिंकिंग में भारत का दावा तब भी कमजोर ही रहा, लेकिन जब से मिथक और भाग्यवाद के आगे घुटने टेक दिये गए, तब से चेतना का अंधकार युग ही चलता गया। किसी समाज को कुएं में धकेलना हो तो भाग्यवाद की घुट्टी से बेहतर जहर कोई और नहीं हो सकता। भाग्यवाद हमारा कर्मों में यकीन खत्म कर देता है। वहां खजाने सिर्फ सपनों में दिखते हैं और वहीं दफन भी हो जाते हैं। हम जमींदोज दौलत के ऊपर घुटनों में सिर दिए ऊंघते रहते हैं। उसी ऊंघ में हम गौरव और महानता के भी सपने देखते हैं और हमारा खून खौलता रहता है। वही तंद्रा हमें जातीय या धार्मिक जोश भरते हुए कुर्बानी के लिए बेचैन बना देती है। हमारे सपनों में वक्त ठहर जाता है। हमारा अतीत ही हमारा भविष्य बन जाता है। इस मोड़ पर हम यह जानते हैं कि भारत की दुर्दशा का इतिहास क्या था, लेकिन यह घटना बताती है कि इक्कीसवीं सदी में भी हम उसी सपने में जी रहे हैं। भाग्यवाद पर हमारी आस्था और साइंटिफिक सोच को सस्पेंड रखने की हमारी काबिलियत में जरा भी फर्क नहीं आया है। हम इस छल को कायम रखे हुए हैं कि 'सोने की चिडिय़ाÓ के पंजों के नीचे सोने का ज्वालामुखी फूट पड़ेगा। यहां तक कि हम अपने साइंस(जी एस आई पढ़ें) को भी सपने के हवाले कर देते हैं। तरक्की नींद से बाहर घटने वाली घटना है। असल तरक्की उन्हीं समाजों की है, जो अपने काम पर यकीन करते हैं, जो अतीत की ओर मुंह किए नहीं रहते या फिर जिनके पास कोई अतीत होता ही नहीं। उजड़े हुए समुदाय इसीलिए पुरुषार्थी होते हैं कि भाग्य पहले ही उनका साथ छोड़ चुका होता है। भारत की ट्रेजिडी यह है कि हर चोट के साथ इसकी नींद लंबी होती चली गई। क्या इसे बेहोशी कहा जाए? हजार साल लंबी बेहोशी? कुछ बरस पहले ऐसा लगने लगा था कि भारत इस नींद से बाहर आ रहा है। इस जवान देश में पीढ़ीगत बदलाव के साथ बहुत से खानदानी दोष बेअसर होते दिख रहे थे। उम्मीद बनी थी कि भारत अब अतीत के नहीं भविष्य के सपने देखेगा। यह घटना इस उम्मीद के खिलाफ ऐलान की तरह है। अगर आप पॉजिटिव ख्याल के हैं तो बस इतना सोच सकते हैं कि यह घटना नींद और चेतना के बीच, सपने और हकीकत, भाग्य और पुरुषार्थ, अतीत और भविष्य के बीच एक टकराव है, एक जंग है। यह जंग, उम्मीद है कि, तरक्की के पाले में ही जाएगी। भारत को पीछे ले जाने वाले खयालात की हार हम पहले भी देख चुके हैं। सोने का यह सपना हमारे भविष्य को हमेशा के लिये खोने से पहले जगा भी सकता है।
Posted by pandeyhariram at 11:29 AM 0 comments
Saturday, October 19, 2013
प्रचार की झंझा में मोदी का झांसा
Posted by pandeyhariram at 3:11 AM 0 comments
यह कैसी आस्था है?
15 अक्टूबर 2013 उत्साह से सराबोर दुर्गापूजा समाप्त हो गयी। चार दिनों तक महानगर के लाखों लोगों को केवल उत्सव की सुध थी और कुछ नहीं। इस बीच तूफान आया, बारिश हुई पर उत्साह की चमक कहीं फीकी होती नहीं दिखी। कहते हैं दुर्गापूजा का इतना उत्साह दुनिया में कहीं देखने को नहीं मिलता। लेकिन विजयादशमी के दिन से ही जो बात सबसे ज्यादा खटकने लगी वह थी पूजा के दौरान सड़कों पर लगे मां दुर्गा और अन्य देवी , देवताओं के चित्र जो फट कर बिखर गये थे और पैरों से रौंदे जा रहे थे। इस बीच एक सुधी पाठक एस पी बागला ने टेलीफोन कर पूछा कि क्या देवी- देवताओं के चित्रों का ऐसा अपमान उचित है और इसे रोकने के लिये क्या उपाय किये जाएं? अचानक उत्तर नहीं सूझा। सचमुच , यह एक विकट समस्या है कि उन्मुक्त समाज को किसी ऐसे नियम से आबद्ध नहीं किया जा सकता जो सर्वमान्य न हो साथ ही ऐसे मसलों को रोकने के लिये कानून बनाने की बात सोची भी नहीं जा सकती। तब इसका एक मात्र तरीका है कि आस्थावान जन समुदाय में देवी- देवताओं के चित्रों के अपमान को रोकने की चेतना जागृत की जाय। आखिर क्यों जिन देवी-देवताओं की मंगलमूर्तियां अपने मन मन्दिर में संजोकर नित्य आराधना में तल्लीन रहते हैं उन देवी-देवताओं का अपमान अनजाने में हम किस तरह कर बैठते हैं इस पर मनन की आवश्यकता है। जब विदेशों में चप्पलों और अन्त: वस्त्रों पर देवी-देवताओं के चित्र छपते हैं तो इसका घोर विरोध होता है लेकिन अपने ही देश में और अपने ही घर में हम अपने देवी-देवताओं का अनवरत अपमान करते जा रहे हैं। इसी तरह विवाह निमंत्रण पत्रों पर देवी-देवताओं के चित्र देना गलत है, लगभग हर निमंत्रण पत्र पर विघ्नविनाशक अपनी पूरी सुन्दरता के साथ मौजूद होते हैं। अब आखिर कितने कार्ड संभाल कर रखे जा सकते हैं और वो भी कितनी देर ? इससे धार्मिक मूल्यों का अपमान होता है। विवाह के कार्ड के निमंत्रण पत्र पर देवी-देवताओं के चित्र तो लगाए जाते हैं लेकिन कार्यक्रम समाप्ति के पश्चात उन्हें कूड़ेदान में फेंक कर स्वयं ही अपमानित कर बैठते हैं। लोग जहां थूकते हैं या अन्य तरह की गंदगी करते हैं तो उन्हें रोकने के लिये उन गंदे स्थानों पर विभिन्न देवी देवताओं के चित्र बने टाइल्स लगाये जाते हैं, क्या आप अपने स्वर्गीय मां- बाप के चित्र वहां लगाने देेंगे? इतना ही नहीं सरसों तेल के डब्बे पर भगवान के ट्रेड मार्क को दिखा - दिखा कर और प्रचारित कर उत्पादक और विक्रेता अमीर हो गये उसी सरसों तेल के भगवान के चित्र लगे डब्बे जब टॉयलेट में इस्तेमाल किये जाते हैं और हम जरा भी ध्यान नहीं देते। अगर देवी- देवताओं के चित्र वाले चुनाव चिन्हों पर रोक लग सकती है तो इन चित्रों के ट्रेडमार्क के रूप में उपयोग पर क्यों नहीं बंदिशें लगायी जा सकती हैं? यही नहीं, घरेलू उपयोग के अन्य सामान अथवा किराने के रैपर , चाबी के छल्ले , अखबार के विज्ञापन, की होल्डर आदि में भी अलग- अलग देवी- देवताओं की तस्वीर नजर आ जाती है अब इनमे से कितनी चीजें संभाल कर रखी जा सकती हैं ? आखिर मंदिर के अहाते में बने बरगद, पीपल के पेड़ों पर भी आप कितनी तस्वीरें अर्पण कर सकते हैं। वहां से भी साफ -सफाई के बाद कूड़ा घर में ही जाती है यह सामग्री। प्यार और सम्मान तो हम अपने अभिभावकों का भी करते हैं पर क्या उनकी तस्वीरों का इस तरह सार्वजनीकरण कर अपमानित होते देख सकते हैं ? अपने इष्ट देवों को हम आत्मीय और अभिभावकों से भी ऊंचा दर्जा देते हैं फिर उनका इस तरह अपमान क्यों ? इस प्रकार हर स्थान पर बेवजह उनकी तस्वीरों का प्रयोग कर हम उनके प्रति सम्मान प्रकट कर रहे हैं या अपमान? क्या इस तरह अपने देवी- देवताओं का सार्वजानिक उपयोग कर हम उनका अपमान नहीं कर रहे हैं? क्या अपने देवी- देवताओं के प्रति सम्मान और श्रद्धा प्रकट करने का और कोई बेहतर विकल्प हमारे पास नहीं है। जरा सोचिये।
Posted by pandeyhariram at 3:05 AM 0 comments
अपने मन का रावण मारें
Posted by pandeyhariram at 3:03 AM 0 comments
Saturday, April 13, 2013
100 political clashes every month in Bengal: RTI
Posted by pandeyhariram at 8:46 AM 0 comments
West Bengal: A State in political violance
Posted by pandeyhariram at 8:45 AM 0 comments
Friday, April 12, 2013
कल्पतरु एक्सप्रेस में दिनांक 12 अप्रैल 2013 को छपा एक आलेख
Posted by pandeyhariram at 12:20 AM 0 comments
Friday, January 25, 2013
कोलकाता कल्लोलिनी है, तिलोत्तमा है
हरिराम पाण्डेय किसी शहर को सुंदरी के रूप में देखा जाना सचमुच बड़ी अजीब कल्पना है। लापियरे ने बेशक कोलकाता को जीवंत तौर पर परखा है लेकिन तिलोत्तमा के रूप में इस शहर की कल्पना के साथ ही कोलकाता के बारे में गालिब का वह शेर याद आता है कि, जिक्र कलकत्ते का तूने किया जो जालिम इक तीर मेरे दिल में वो मारा के हाय हाय। गालिबन मिर्जा गालिब दुनिया के पहले शायर थे जिन्होंने कोलकाता या कलकत्ता में दुविधाओं के बीच भी जीवन की राह तलाशनी शुरू की थी। कोलकाता ऐसा शहर है जहां सवाल ईमान और कुफ्र का नहीं, सवाल धर्मी और विधर्मी का नहीं, सवाल एक नयी रोशनी का है एक नये नजरिये का है। पता नहीं आपको मालूम होगा या नहीं कि जब हम किसी शहर को देखते हैं तो वह शहर भी हमें देखता है। हुगली नदी के किनारे तीस मील की लम्बाई में बसा हुआ महानगर, एक करोड़ के आसपास आबादी जिसके जवाब में सिर्फ टोकियो, लन्दन और न्यूयॉर्क के नाम लिए जा सकते हैं लेकिन इसमें उनसे कहीं ज्यादा वहशतें आबाद हैं। आसमान की बुलंदियों से नीचे देखें तो दूर-दूर तक हरियाली दिखाई देती है, कहीं गहरी सियाही, कहीं पीलाहट लिए हुए। लेकिन ये सारे रंग प्रदर्शन , अभिव्यक्ति के लिए बेचैन एक अनदेखी ऊर्जा का रूपक हैं। ठीक वैसे ही जैसे सोलहों सिंगार के बाद कोई सुंदरी दर्पण देखने को बेचैन होती है। आसमान से दिखने वाली इन्हीं हरियालियों में यहां-वहां चमकता, चौंकता, कौंधता हुआ पानी। झीलें, नहरें और नदी। एक तरफ हद्दे नजर तक फैली हुई चांदनी की चादर। एक नन्हा सा बिंदु इस लैंडस्केप में धीरे-धीरे फैलता जाता है और एक शहर की तस्वीर उभरती है। कुत्ते के पैर जैसी आकृति रखने वाली चौड़ी भूरी नदी के गिर्द बसा हुआ यह शहर, किनारों पर लंगर डाले कश्ितयां और जहाज, बड़ी बड़ी क्रेनेंं, मिलों की चिमनियां और कारखानों की जंग लगी लोहे की चादरों की छतें। फिर जरा और नीचे आने पर ताड़ के झुण्ड दिखते हैं। एक तरफ से झुण्ड से उभरता हुआ ब्रिटिश राज की यादों में बसे हुए पुराने गिरजे की सफेद खामोश मीनार जैसे स्कूली जमाने की किताबों में प्रेमी द्वारा दिये गये सूखे फूल। यह शहर अजीब द्वन्द्व का है और अनोखे टकराव भरे तजुर्बों का। गालिब ने लिखा है कि जब वे यहां से लौटे तो 'जेहन में आधुनिकता लेकर लौटे थे।Ó मैने कहा न कि टकराव भरे तजुर्बे का यह शहर है। ठीक एक शायर की तरह , चौदहवीं की रात में शब भर रहा चर्चा तेरा किसी ने कहा चांद है, मैंने कहा चेहरा तेरा लॉर्ड क्लाइव के खयाल में कलकत्ता दुनिया की सबसे बुरी बस्ती थी, लेकिन एक अंग्रेज अफसर विलियम हंटर ने एक रात अपनी प्रेमिका को लिखे पत्र में कहा 'कल्पना करो उन तमाम चीजों की जो फितरत में सबसे शानदार हैं और उसके साथ-साथ उन तमाम कलाकृत्तियों का जो कला के मामले में सबसे ज्यादा हसीन हैं, फिर तुम अपने आप कलकत्ता की एक धुंधली सी तस्वीर देख लोगी। Ó उन्नीसवीं सदी के अंत में चर्चिल ने अपनी मां से कहा था 'कलकत्ते को देखकर मुझे हमेशा ख़ुशी होगी क्योंकि इसे एक बार देखने के बाद दोबारा देखने की जरूरत नहीं रह जाती। ये एक शानदार शहर है। रात की ठण्डी हवा और सुरमई धुन्ध में ये लन्दन जैसा दिखाई देता है।Ó कोलकाता एक बहुवचनी नगर है। एक में अनेक - मोराज(फिल्म संग्रथन) की तरह। कोलकाता अर्धनारीश्वर महानगर है। एक अंग से राजनीति का तांडव है तो दूसरे से दुर्गा उत्सव, रवींद्र संगीत का लास्य-टू-इन-वन। 'भीषण सुंदरÓ या 'दारुण सुंदरÓ जैसे बंगला के विरोधाभासी शब्द युग्म विरोधों के सामंजस्य के प्रतीक हैं या विपरीतों के मिलनोत्कर्ष के? तभी तो 'वर्ग संघर्षÓ के 'भीषणÓ के साथ अमीरी का 'सुंदरÓ मजे में मिल कर रहता है। मुझे नहीं लगता कि सुरुचि, सौंदर्य, कोमलता, दर्शन, भक्ति, कल्पना, प्रेम, करुणा, उदासी जैसी भाव-राशि को कोलकाता ने वैज्ञानिक यथार्थवाद के दुद्र्धर्ष काल में भी कभी त्यागा होगा। शरद और रवींद्र कभी उसके जीवन से परे धकेले न जा सके। रवींद्र और नजरूल या सुभाष और राम कृष्ण की पूजा कोलकाता एक ही झांकी में बराबर से कर सकता है। तभी तो कोलकाता पूरे भारत का कोलाज बना हुआ है। कोलकाता का स्वभाव सुंदरियों की तरह लिरिकल है - गेय है। कोई भी शुभारंभ यहां बिना रीति के नहीं होता। आंदोलन या उग्र रैली (मिछिल) में भी जो नारे लगाए जाते हैं वे बोल कर नहीं गाकर लगाए जाते हैं। अन्याय अत्याचार के नारे भी गेय हैं और उसे 'चलने न देंगेÓ का उद्घोष भी गेय है - 'चोलबे ना, चोलबे नाÓ नारा भी वे ऐसा झुलाते हुए लगाते हैं कि उसे कहीं न गद्य का झटका लगे, न ठहराव आए। कभी आपने सोचा है कि कोलकाता पर लिखी प्राय: सभी कविताएं उसकी प्रशंसा और सामथ्र्य में क्यों लिखी गई हैं, जबकि दिल्ली पर लिखी कविताओं में दिल्ली के प्रति तल्खी, आशंका, भय और निंदा से भरी है? कोलकाता भी एक 'गोपनÓ का नाम है,और बंगाल भी। वह भी अपने मूल्यवान को दबाए-ढांपे हैं, यहां जो कुछ भी मूल्यवान और अप्रतिम है उसे आप सतह पर नहीं पा सकते - फिर चाहे वस्तु हो या व्यक्ति। कोलकाता का पारंपरिक और किसी हद तक वर्तमान वास्तु इसका प्रमाण है कि बाहर से देखने पर भीतर खुलने वाले भव्य और विराट का अनुमान नहीं लगा सकते।
Posted by pandeyhariram at 8:15 PM 0 comments
Wednesday, January 23, 2013
हिंदू आतंकवाद या कांग्रेस का छद्म सेक्युलरवाद
Posted by pandeyhariram at 10:20 AM 0 comments
चिंतन नहीं चुनाव शिविर
Posted by pandeyhariram at 10:18 AM 0 comments
सामाजिक असंतुलन की ओर बढ़ती दुनिया
Posted by pandeyhariram at 10:16 AM 0 comments
Saturday, January 19, 2013
तेल की धार में चला चनावी चक्कर
Posted by pandeyhariram at 9:23 AM 0 comments
सेना को सियासत में ना घसीटें
Posted by pandeyhariram at 9:21 AM 0 comments
Tuesday, January 15, 2013
पाक पर हमला गैरजरूरी
Posted by pandeyhariram at 2:08 AM 0 comments
Sunday, January 13, 2013
भावुकता का दोहन है बच्चा चोरी की अफवाह
महानगर में बच्चा चोरी की घटनाओं में वृद्धि की लगातार अफवाहें फैलायी जा रहीं हैं और विभिन्न इलाकों में इसे लेकर किसी को मारने पीटने की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। हालांकि यह तय नहीं हुआ है कि बच्चा चोर बता कर जिन लोगों पर भीड़ ने जान लेवा हमले किये उन्होंने सचमुच बचा चुराया था या नहीं। पुलिस के रिकार्ड के मुताबिक जिन लोगों पर हमले हुये या जहां उन्हें बच्चा चुराने के संदेह में घेरा गया वहां किसी बच्चे को चुराने की घटना के सबूत नहीं है और ना ही कोई बच्चा चुराया गया बताते हैं। यानी फकत अफवाह फैला कर किसी को घेर कर मार डालने का प्रयास हो रहा है। जिन्हें मारा पीटा जा रहा है वे एक खास सम्प्रदाय के निहायत साधनहीन लोग हैं - कोई भीख मांगता है तो कोई ठोंगा बनाता है। सामाजिक विद्वेष फैलाने की इस खास किस्म की साजिश को गढऩे वाले बेशक अंधियारे में खड़े हैं , लेकिन उनकी करतूतों से उनके दिमाग का सुराग तो मिल ही सकता है। इसे जो लोग फैला रहे हैं तथा उससे उत्पन्न भावुकता को क्रियात्मक स्वरूप प्रदान कर रहे हैं , वे उन्हीं लोगों में से हैं जिन्हें वर्तमान सरकार को कमजोर करने का राजनीतिक लाभ मिल सकता है। लोकतंत्र में बेशक जनता अपना मुकद्दर लिखने वालों को चुनती है पर इस चुनाव के पीछे जनता के मानस को प्रभावित कर उनके विचारों को नियंत्रित करने का काम पार्टियों की मशीनरी करती है। हाल तक सत्ता का सुख लेने के कारण लोक से विमुख हो जाने वाली पार्टी को अफवाहें फैला कर जन भावना को उत्प्रेरित करने और उस उत्प्रेरण के प्रभाव से जन्में भावुकतापूर्ण गुस्से को अपनी मर्जी से उपयोग करने का हुनर मालूम है। वह कभी बच्चा चोरी तो कभी अन्य हिंसक घटनाओं को बहाना बना कर जनभावना को अनवरत भड़का रही है। पिछले दिनों की घटनाओं को अगर गौर से देखें तो लगेगा ये सारे वाकयात उन्हीं इलाकों में हुये हैं जहां पूर्व में उस पार्टी विशेष का गढ़ रहा है तथा पहले इस तरह की घटनाएं हो चुकी हैं। इन ताजा घटनाओं में आप पायेंगे कि बच्चा चोर बता कर कुछ लोगों का समूह एक आदमी को बुरी तरह पीट रहा है और कोई आदमी उस मार खाने वाले आदमी की तरफ से खड़ा हुआ नहीं दिख रहा है। इसके दो ही कारण हो सकते हैं पहला कि जो लोग मार पीट कर रहे हैं उन्हें वहां के क्षेत्रीय लोग पहचानते हैं और उनके खौफ के कारण हस्तक्षेप नहीं कर रहे हैं। वरना बंगाल की संस्कृति इतनी संवेदनशील है कि ऐसे मौकों पर आम जन चुप हो ही नहीं सकते। रवींद्रनाथ और विवेकानंद का नगर कोलकाता मानसिक तौर पर इतना संवेदनशील है कि किसी भी अफवाह की संभाव्यता को थोड़ा पुख्ता कर के उसे विश्वसनीय समाचार की शक्ल में बदला जा सकता है। बच्चा चोरी चूंकि एक संभावना है और सौ पचास लोग इस संभावना को दृढ़ कर उसे विश्वसनीयता प्रदान कर देते हैं। इसी विश्वसनीयता की अंधी दौड़ पर खौफ का धुंध डाल कर उसे सक्रियता में बदल देता है। यही कारण है कि व्यापक सामाजिक तंत्र वाले लोग इस तरह की गतिविधियों पर जल्दी ही कब्जा कर लेते हैं। चूंकि ऐसे कार्यों में भारी भीड़ संलग्नता होती है अतएव सरकार उनपर कठोर कार्रवाई नहीं कर सकती है और इस लाचारी का वे तत्व फायदा उठा कर शासन के नकारा हो जाने का भ्रम पैदा कर देते हैं। ऐसे मौकों पर सबसे जरूरी होता है कि अफवाहों पर न जाकर सच का संधान करना। कौवा कान ले गया तो कौवा के पीछे दौड़ पडऩे से उत्तम होता हे अपने कान को देख लेना। बच्चा चोरी की घटना में जिसे पकड़ा गया क्या उसने सचमुच बच्चा चुराया है। शक होने पर पुलिस की मदद लें, कानून को अपने हाथ में न लें। कानून का निर्णय हमेशा सही होगा।
Posted by pandeyhariram at 1:51 AM 0 comments
मकर संक्राति हमारी सांस्कृतिक श्रेष्ठïता का प्रतीक है
-हरिराम पाण्डेय मकर संक्रांति यानी सूर्य का मकर राशि में प्रवेश को मकर संक्रांति कहते हैं। यही समय है जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होता है। सूर्य उत्तरायण होना केवल शास्त्र समत नहीं बल्कि विज्ञान समत भी है। चूक सूरज धरती का केंद्र है और सारे ग्रह उसका चक्कर लगाते हैं। जितने समय में पृथ्वी सूर्य के चारों ओर एक चक्कर लगाती है उस अवधि को सौर वर्ष कहते हैं। धरती का गोलाई में सूर्य के चारों ओर घूमना 'क्रांति चक्रÓ कहलाता है। इस परिधि को 12 भागों में बांट कर 12 राशियां बनी हैं। हमारे पूर्वजों ने सितारों के समूह की आकृति के हिसाब से उन्हें नाम दे रखा था। जो सितारा समूह शेर की तरह दिखता था, उसे सिंह राशि घोषित कर दिया, जो लडकी की तरह उसे कन्या और जो धनुष की तरह दिखें धनु राशि। पृथ्वी का एक राशि से दूसरी में जाना संक्रांति कहलाता है। यह एक खगोलीय घटना है जो साल में 12 बार होती है। सूर्य एक स्थान पर ही खड़ा है, धरती चक्कर लगाती है। अत: जब पृथ्वी मकर राशि में प्रवेश करती है, एस्ट्रोनामी और एस्ट्रोलॉजी में इसे मकर संक्रांति कहते हैं। मकर संक्रांति त्योहार नहीं बल्कि व्रत है। व्रत शब्द वृ धातु से बना है, जिसका अर्थ होगा- वरण या च्वायस। संक्रांति का अर्थ है- संक्रमण या ट्रांजिशन। संक्रांति के समय सूर्य एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में प्रवेश करता है। मकर संक्रांति के समय सूर्य धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रविष्ट कर जाता है। यही वह समय होता है जब सूर्य उत्तरायण होने लगता है। आम आदमी इस तरह के वर्गीकरण से विरक्त रहता है। लेकिन भारतीय संस्कृति में व्रत उस तरह के पर्वों को कहते हैं, जो पूरे साल को एक वृत्त या गोले के रूप में देखते हैं। यह गोल घूमता हुआ गोला साल में अनेक व्रतों को जन्म देता है। यही कारण है कि मकर संक्रांति की स्थिति लगभग हर साल स्थिर या फिक्स रहती है। आजकल मकर संक्रांति हर साल 14 या 15 जनवरी को मनाई जाती है। आज से सौ वर्ष पहले यह 12 या 13 जनवरी को मनाई जाती थी। इस संबंध में नासा ने बड़ी दिलचस्प खोज की है। नासा के वैज्ञानिकों पृथ्वी के भ्रमण पथ का आकलन करते हुये पाया कि पिछले हजारों साल से धरती की रतार हर कुछ साल पर 72 घंटे धीमी हो जाती है। क्योंकि धरती की रतार लगातार धीमी होती जा रही है, अत: साल भर में 12 की जगह 13 राशियां हो चुकी हैं। ज्योतिष के विद्वान पता नहीं इसे मानते हैं या नहीं, पर नासा वालों का कहना है कि इस तेरहवीं राशि को गणना में न लेने की वजह से लगभग 84 प्रतिशत भविष्यवाणियां सटीक नहीं हो पाती हैं। यह मकर संक्रांति पर भी लागू है। यही कारण है कि 100 वर्ष पहले मकर संक्रांति 12 या 13 जनवरी को पड़ती थी। आज 14 या 15 जनवरी को पड़ती है। हो सकता है 200 वर्ष बाद यह 24 या 25 जनवरी को पड़े। यहां यह बताना जरूरी है कि व्रत व्यक्तिगत पर्व माना जाता है, जबकि त्योहार सामूहिक पर्व माने जाते हैं। मकर संक्रांति एक पर्व है, लेकिन होली एक त्योहार है। जो व्यक्तिगत पर्व होगा, उसमें अनुष्ठान ज्यादा होगा और उल्लास कम। जबकि सामूहिक पर्व में अनुष्ठान न के बराबर होता है, लेकिन उल्लास अपने अतिरेक पर होता है। यही कारण है कि मकर संक्रांति व्यक्तिगत पर्व होने की वजह से सेलेक्टिव हो जाता है। हम चाहें तो उसे मनाएं या न मनाएं। लेकिन होली के हुडदंग में हम शामिल हों या न हों, होली के असर से बच नहीं सकते हैं। दुनिया की हर संस्कृति में सूरज की पूजा होती है। सूरज की पूजा दुनिया के सभी प्राचीन सयताओं में होती है। शायद सूरज की पूजा करना इन धर्मों को बड़ा वैज्ञानिक बना देता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि धरती पर जीवन का जो भी लक्षण है, वह सूरज की मेहरबानी है। आज से करोडों साल बाद जब सूरज ठंडा हो जाएगा, तो धरती पर जीवन समाप्त हो जाएगा। अत:मकर संक्राति हमारी सांस्कृतिक श्रेष्ठïता का प्रतीक है।
Posted by pandeyhariram at 1:49 AM 0 comments