जे एन यू के छात्र संघ के नेता कन्हैया को इन दिनों मीडिया में इतनी जगह मिल रही है कि उन्हें एक बिम्ब होने का मुगालता हो गया। वे यह सोचने लगे हैं कि आज के समय के महानतम इंसान हैं। वे यह नहीं समझ पा रहे हैं उन्हें जिस मीडिया ने यहां तक पहुंचाया है वही मीडिया किसी दिन फटे पोस्टर की मानिंद कूड़ेदान में फेंक देगा। इस ‘महान’ बिम्ब की एक समस्या यही है कि उसे मीडिया के उस अपराध बोध ने बनाया है, जिसमें किसी क्रांतिकारी को छू-छू कर धन्य होने की आदत है। एक खतरा कन्हैया की ऊंचाई को कन्हैया से ही है। दूसरा खतरा उसे अपनी अज्ञानता से है। उसे नहीं मालूम कि गोलवलकर मुसोलिनी से कभी मिले ही नहीं। मुसोलिनी से बाल कृष्ण शिवराम मुंजे ने भेंट की थी, गुरु गोलवलकर ने नहीं। इतालवी लेखिका मार्जिया कोसालेरी ने अपने आलेख ‘हिंदुत्व फॉरेन टाइ अप इन 1930’ में लिखा है कि 1930-31 में लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन से लौटते हुए मुंजे ने इटली के तानाशाह मुसोलिनी से मुलाकात की थी। पर कन्हैया अपने भाषण में गोलवलकर ही कहता रहता है। सामान्यतया ऐसे लोग अपने आपको नहीं देखा करते, दूसरे देखा करते हैं। लेकिन यहां कन्हैया अपनी कीर्ति पर ही फिदा हैं ! ... और जो आत्म मुग्ध हुआ गया ! यहां कन्हैया को खतरा अपने ही दो दोस्तों खालिद और अनिर्बान से है। उन्हें जेल से छूटने दें और तब देखें कि मीडिया कन्हैया को कहां ले जाता है। यही नहीं, कन्हैया की क्रांति का सबसे बड़ा दुश्मन यह सामंतीय भाव वात्सल्य ही है, जो जे एन यू कैंपस में पुराने कामरेडों की आखों में छलक रहा था ! यह तो क्रांति विरोधी पोजीशन थी। मार्क्स अगर भावुक होते तो फायर बाख के चेले हो गए होते और लेनिन ने अपने गुरु से भिड़कर बोलशेविक पार्टी न बनाई होती ! खैर, सामाजिक मनोविज्ञान से अलग अगर शुद्ध समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखें तो कन्हैया जो कुछ कर रहा है वह सहनशीलता की सीमा को लांघने लगा है। उसके घटिया आरोपों का वैसा ही उत्तर देने की आजादी का इस्तेमाल अभी नहीं हुआ है। वे और उनकी मंडली भी तमाम अश्लील-असभ्य वचन कह चुके हैं। संविधान और हमारी सभ्यता में विचार व्यक्त करने की आजादी है। प्रश्न है कि क्या हम भी उन पर चरित्रहीनता का आरोप लगा सकते हैं? नहीं , हम जवाबी नारे नहीं लगा सकते। हम सांस्कृतिक और सांविधानिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकते। लेकिन व्यथा बड़ी है।अब , प्रश्न है कि इसका प्रतिकार हो कैसे? अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा है , सहने की भी सीमा होती है
सागर के उर में भी ज्वाला सोती है।
राष्ट्र अपनी संस्थाओं संविधान, न्यायपालिका, संसद और सेना रक्षित होता है और एक व्यक्ति की भांति उसे भी आत्मरक्षा का अधिकार है। यहां सवाल है कि राष्ट्र अपने इन अंगों को अपमानित करने वाले तत्वों को कब तक सहे? किस सीमा तक सहे? क्या- क्या सहे? और क्यों सहे? संप्रभुता पर भी हमला हो तो किया क्या जाए? कड़वी वास्तविकता यह है कि मौजूदा सामाजिक व्यवहार में लंपटता और आपराधिकता गुथे हुए तत्व हैं। इनका अपना एक लाभदायी मूल्य है। वर्तमान राजनीतिक और आर्थिक व्यवहार में इस मूल्य का औजार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। इस देश के राजनेता और राजनीतिक कार्यकर्ता अपनी नम्रता-विनम्रता, शिष्टता-सभ्यता, ईमानदारी या सदाशयता के आधार पर अपनी जगह नहीं बनाते, वे जगह बनाते हैं अपनी आक्रामकता, अशिष्टता, अभद्रता और मर्यादाविहीनता के आधार पर। कुछेक अपवाद हो सकते हैं लेकिन ज्यादातर की प्रत्यक्ष स्थिति यही है कि चुनावी प्रक्रिया में राजनीति लोगों की, विशेषकर युवाओं की, आपराधिकता का इस्तेमाल करती है, उनकी नैतिकता या आदर्शवादिता का नहीं। यही स्थिति आर्थिक व्यवहार में भी है। अर्थतंत्र में भी ऊपर से नीचे तक लंपटता और आपराधिकता सफलता के सूत्र की तरह इस्तेमाल होती हैं। जहां तक मीडिया की बात है तो वहां नैतिकता के मामले में अलग-अलग पत्रकार समूह अपनी-अपनी तरह से नैतिकता समझने और समझाने में लगे हैं। विचारधाराओं के झगड़े जैसी हालत पत्रकारिता में भी बन गई दिखती है। ऐसा क्यों है, इसकी जांच-पड़ताल अभी हो नहीं पा रही है। अब तक डाकिये और जज जैसी भूमिका में दिखती आई पत्रकारिता खुल्लमखुल्ला खुद ही वकील और राजनीतिक दलों के सहायकों के वर्गों में बंटती नजर आ रही है। यहां यह समझना जरूरी है कि कन्हैया को किसके विरोध में खड़ा किया जा रहा है। राष्ट्र के या राज व्यवस्था के। निशाना राजव्यवस्था है और निशाने पर राष्ट्र है। राष्ट्र केवल राजव्यवस्था नहीं होता। इसका एक भूगोल होता है-सुनिश्चित भूक्षेत्र। एक इतिहास होता है। इतिहास का अनुकरणीय मानवीय भाग संस्कृति कहा जाता है। एक संस्कृति, एक भूमि और उस पर रहने वाले सभी लोगों की एकता से बने जन मिलकर राष्ट्र होते हैं। राष्ट्र संविधान गढ़ते हैं। भारत ऐसा ही है और इससे भी ज्यादा सचेतन राष्ट्र है। भारत के लोगों ने अपना संविधान गढ़ा। संविधान के प्रति स्वयं को आत्मार्पित भी किया। न्यायपालिका गढ़ी, उसका अनुशासन और न्याय निर्णय स्वीकारा। अनेक संस्थाएं रची गईं। भारत एक संपूर्ण सिद्ध राष्ट्र है। उसे तहस-नहस करने का काम कन्हैया और उसके साथी कर रहे हैं। लेकिन यह उनका भ्रम है। भारत है और रहेगा। व्यवस्था बदलने से राष्ट्र नहीं बदलता कन्हैया जी।
यूनान ओ मिस्र रोमां सब मिट गये जहां से
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
Monday, March 14, 2016
कन्हैया को खुद से खतरा
Posted by pandeyhariram at 2:13 AM
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