अपनी तारिख का उनवान बदलना है तुझे,
उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे…
अपराजिता वह है " जिसने घुटन से अपनी आजादी खुद हासिल की। अपराजिता एक कोशिश है जो जिजीविषा और सृजनात्मकता की ऊर्जा से लबरेज है। बड़ी विडम्बना है इस देश की, यहां के लोग कहते हैं हमारे पास एक महान संस्कृति और विशाल परंपरा है हमारा देश एक सभ्य समाज वाला देश है जहां औरत को औरत का नहीं देवी का दर्जा दिया जाता है उसे पूजा जाता है। फिर सवाल उठता है कि जिस देश में स्त्री को देवी का रूप माना जाता है जिसकी पूजा की जाती है उसी की इस देश में इतनी दुर्दशा क्यों? ऐसा नहीं है कि ये घटनाएं सिर्फ भारत में ही होती हैं पर इसी देश को इंगित सिर्फ इसलिए कर रही हूं क्योंकि भारत ही वह देश है जहां यह दंभ भरा जाता है कि हम तो स्त्रियों को देवी मानते हैं, उनकी पूजा करते हैं। दरअसल यह अपनी कमियों को छिपाने का सबसे आसान रास्ता है जिससे कि हर सवाल से बचते हुए बेहद आसानी से स्त्रियों को दोयम दर्जे पर कायम रखा जा सके और इसके लिए सबसे आसान रास्ता है धर्म का रास्ता। धर्म, चाहे वह कोई भी धर्म हो, एक ऐसी गहरी खाई है जिसने एक बार अगर किसी को मानसिक गुलाम बना लिया तो फिर जीवन भर उस गुलामी से निकलना मुश्किल है।
मत छिनो मुझे से मेरा वजूद यूं कट्टर रिवाज़ो से
एक अपनी पहचान अब मुझे भी अपनी बनाने दो
छूना है मुझे भी नभ में चमकते तारो को
एक चमकता सितारा अब मुझे भी इस दुनिया में बन जाने दो !!
मैं ऐसा नहीं कहती कि बदलाव हमारे समाज में नहीं हुए हैं .......हां बदलाव हुए है और होने भी चाहिए जीवंत समाज, देश, सरकार सभी का यही नियम है कि उसे बदलाव की सतत बयार के साथ चलना पड़ता है तभी वह समाज आगे बढ़ सकता है। पुराने खोल से निकल कर स्त्री धीरे धीरे अपने सपनों के आकाश में पंख फैला रही है और सतत उचाईयों को छूने का प्रयास कर रही है।
कद्र अब तक तेरी तारीख ने जानी ही नहीं,
तुझ में शोले भी हैं बस अश्कफ़िशानी ही नहीं,
ऐसा माना जाता है की जिस राष्ट्र की महिलाएं खुश है, संपन्न एवं शिक्षित हैं, वहां के कार्यक्षेत्र में बढ़चढ कर हिस्सा ले रही हैं तो समझिए वह राष्ट्र संपन्न है और उसे आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता। इस हिसाब से अगर हम देखें तो हमारे राष्ट्र को बधाई मिलनी चाहिए अब आपका सवाल होगा क्यों? तो क्यों नहीं? मेरी समझ से हमारे देश के बहुत सारे महत्वपूर्ण पदों पर वर्तमान और अतीत दोनों को ही अगर हम देखें तो महिलायें आसीन है और थी भी।
सामजिक रूप से जब तक समानता नहीं मिलेगी, जब तक ये समाज स्त्री को दोयम दर्जे का समझना बंद नहीं करेगा और स्त्री का सम्मान नहीं करेगा तब तक कितने भी नियम कानून बन जाए स्त्री सुरक्षित नहीं हो सकती जरुरत है बदलाव के बयार की एक ऐसे बदलाव की जो हमारे सपनो को उम्मीदों को उसकी मंजिल तक पहुंचाने में हमारी मदद करे ना की हमारे रास्ते का रोड़ा बने। और ऐसा तभी संभव है जब हम अपनी लड़ाई खुद लड़ें कोई और हमारे हक़ के लिए जब तक लडेगा तब तक हम कभी आजाद नहीं हो सकते और न ही सुरक्षित।
शांति छिन्न भिन्न हो,
हृदय भले खिन्न हो,
जीवन के अंधेरे-उजास में,
असफल प्रयास में,
आस पराजित नहीं है,
और अपराजिता हूं मैं |
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