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Monday, March 21, 2016

अभिव्यक्ति की अाजादी सच है या मिथक

अगर आपसे कोई कहे कि आज के संदर्भ में अभिव्यक्ति की आजादी है क्या चीज? क्या यह सच है या मिथक? यह सचमुच कोई जटिल, गूढ़, अबूझ, दुर्बोध राजनीतिक ग्रंथि है या कोई सहज, सरल-सी चीज है, जिसे पकड़ने में हमारी समझ ही छोटी पड़ जाती है? यह पत्थर की वह सैद्धांतिक लकीर है, जिसे कोई तोड़-मरोड़ नहीं सकता या रबर जैसी ऐसी लचीली अवधारणा है, जिसे जो चाहे अपनी जरूरत के मुताबिक मोड़ ले, घुमा ले और अपने पक्ष में खड़ा कर ले? कहते हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी के बिना लोकतंत्र लोकतंत्र नहीं होता, लेकिन क्या कोई लोकतंत्र अभिव्यक्ति को पूरी तरह आजाद करके सही मायने में लोकतंत्र बना रह सकता है?संविधान और हमारी सभ्यता में विचार व्यक्त करने की आजादी है। प्रश्न है कि क्या हम भी उन पर चरित्रहीनता का आरोप लगा सकते हैं? एक लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक दलों की संरचना विचारधारात्मक आधार पर होती है यानी अपने देश समाज की आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक आदि परिस्थितियों की समझ और उन्हें आम जनता के हितों के अनुरूप ढालने-बदलने की वैचारिकता के आधार पर। और यह वैचारिकता तैयार होती है विचारों के आदान-प्रदान से जिसमें किसी दल से जुड़े हुए लोगों को उपलब्ध विचार व्यक्त करने की आजादी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि बिना इस आजादी के विचारों की निष्पक्ष और निर्भीक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। न निष्पक्ष प्रशंसा हो सकती है, न निष्पक्ष आलोचना और न सही निष्कर्ष ही निकल सकते हैं। अगर राजनीतिक दलों की संरचना की यही सैद्धांतिकी है तो इस देश में इस समय सक्रिय तमाम छोटे-बड़े क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों की कार्यप्रणाली पर नजर डाल लीजिए। ऐसे तत्व अफजल गुरु की फांसी के कथित कातिलों को मारना चाहते हैं। वे शर्मिन्दा हैं कि अफजल के कातिल जिन्दा हैं। क्या हम भी जवाबी नारे लगा सकते हैं। नहीं ! हम ऐसे जवाबी नारे नहीं लगा सकते। हम सांस्कृतिक और संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकते। ज्यादा आजादी की बात करने वाले वाल्तेयर को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि ‘उन्होंने कहा था,तुम जो कहते हो उसे मैं बिल्कुल पसंद नहीं करता, लेकिन तुम जो कहते हो, उसे कहते रह सको इसके लिए मैं अपनी जान भी दे सकता हूं।’ यही नहीं , सन 1831 में इसी बंगाल में हिंदू कॉलेज (अब प्रेसिडेंसी कॉलेज और प्रेसिडेंसी यूनिवर्सिटी) के प्रोफेसर हेनरी लुई विवियन डेरोजियो ने अपने छात्रों सिखाया कि ‘ज्ञान के लिए हमेशा जुटे रहो। उन्होंने छात्रों को बताया कि , युवा बंगाल खुद के बारे में लगातार सोचे।’ इतिहास गवाह है कि इसी पीढ़ी ने सबसे पहले आजादी की लौ जगायी थी। लेकिन सोचें कि उसी आजाद भारत में बोलते रहने के हक को कायम रखने के लिए जो कुछ किया जा रहा है वह क्या सचमुच इस समाज के लिए जायज है। जिन्हें हम भारतीय लोकतंत्र का खंभा कहते हैं, वहां अभिव्यक्ति की आजादी का असली चेहरा क्या है। पहले विधायिका की बात कर लें, उस विधायिका की जिसकी जड़ में राजनीतिक दल होते हैं। हमें पढ़ाया गया है कि एक लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक दलों की संरचना विचारधारात्मक आधार पर होती है यानी अपने देश समाज की आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक आदि परिस्थितियों की समझ और उन्हें आम जनता के हितों के अनुरूप ढालने-बदलने की वैचारिकता के आधार पर। और यह वैचारिकता तैयार होती है विचारों के आदान-प्रदान से जिसमें किसी दल से जुड़े हुए लोगों को उपलब्ध विचार व्यक्त करने की आजादी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि बिना इस आजादी के विचारों की निष्पक्ष और निर्भीक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। चाणक्य के अनुसार किसी भी दल या विचारधारा या राज के प्रति प्रतिबद्धता के फलस्वरूप न निष्पक्ष प्रशंसा हो सकती है, न निष्पक्ष आलोचना और न सही निष्कर्ष ही निकल सकते हैं। अगर यह सही है तो क्या कन्हैया जिस आजादी की बात कर रहा है वह सही है? हर जाति के पास अपने असली-नकली महापुरुष हैं। आप इनमें से किसी भी महापुरुष को इतिहास और तर्क की कसौटी पर कसकर दिखा दीजिए? और जहां तक परिवारों में अभिव्यक्ति की आजादी का प्रश्न है, तो आज भी अपनी भिन्न राय रखने वाले लड़के-लड़कियों को उनके प्यार की आजादी की सजा पारिवारिक उत्पीड़न से लेकर मान-हत्या तक निर्धारित हो सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत के समूचे लोकतांत्रिक ढांचे में वह आजादी नहीं है, जिसे अभिव्यक्ति की आजादी कहते हैं, वह आजादी जरूर है जिसे हिसाब-किताबी अभिव्यक्ति कहते हैं। हम दूसरों को नीचा दिखाने के लिए, अपने सत्ता केंद्र को बचाने के लिए या दूसरे के सत्ता केंद्र को ध्वस्त करने के लिए अभिव्यक्ति की राजनीतिक आजादी चाहते हैं, लेकिन वह भारतीय समाज जो हर कदम पर अभिव्यक्ति की आजादी का विरोधी है, उसे बदलने की कोई मुहिम नहीं चलाना चाहता। जिन जड़ताओं के विरुद्ध सर्वाधिक अभिव्यक्ति की जरूरत है, उनके विरुद्ध मुंह नहीं खोलना चाहते और जब मुंह खोलते हैं, तो कुछ इस तरह पुरानी खाइयां और गहरी हो जाती हैं, और शत्रुताएं और अधिक पक जाती हैं। वाल्तेयर ने एक मूल्य के तौर पर अभिव्यक्ति की जिस आजादी की बात कही थी, वह एक बहुत ही सभ्य, उदात्त, बौद्धिक और वैचारिक तौर पर अग्रणी तथा आधुनिकतावादी जीवन मूल्यों से संचालित समाज में संभव हो सकता है, भारत जैसे विभाजित समाज में नहीं। यहीं आकर हम फिर अटक जाते हैं कि सचमुच भारत में अाजादी की अभिव्यक्ति सच है या मिथक।

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