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Thursday, March 17, 2016

रोज बिगड़ती सियासत की भाषा

कोई शक नहीं है कि हाल के समय में राजनीतिक बहस का स्तर लगातार गिरता जा रहा है और अधिकतर बहस एक दूसरे की आलोचना के स्थान पर अपशब्दों पर केंद्रित होकर रह गई हैं। असंसदीय भाषा और भावों का प्रयोग इतना आम हो गया है कि इस बात में अंतर करना काफी मुश्किल हो गया है कि क्या संसदीय है और क्या नहीं। इसे एक प्रकार से राजनीति का ‘मानसिक दिवालियापन’ कहा जा सकता है। जिस प्रकार अपराधी छवि कि लोग निरंतर राजनीति में आ रहे हैं और विभिन्न सरकारों और राजनीतिक दलों में महत्वपूर्ण स्थान पा रहे हैं उसके बाद ऐसा होना कोई अप्रत्याशित नहीं है। संभ्रातवादी स्पष्टीकरण के रूप में इसे ‘‘हमारी राजनीति के अधीनस्थीकरण’’ का प्रतिफल कह सकते हैं और साथ ही इसका सीधा संबंध ‘‘मुख्यधारा की राजनीति के क्षेत्रीयकरण’’ से भी जोड़ा जा सकता है। आजकल राजनीतिक विरोधियों और दूसरी विचारधारा के लोगों के खिलाफ गुस्सा और उनसे अलग मत जाहिर करने के लिए 'भाषाई अनुदारवाद' का बेरोक–टोक इस्तेमाल हो रहा है।

लेकिन कोई भी दल या समाज इस पर चिंता जाहिर नहीं करना चाहता है। यह काफी चौंकाने और परेशान करने वाली बात है। ताजा मामला दिल्ली का है। जे एन यू के कन्हैया ने मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ जिन जुमलों का उपयोग किया क्या वे शोभनीय थे? क्या वैसी ही अमर्यादित भाषा को एक सम्प्रभु राष्ट्र के प्रधानमंत्री के प्रति उपयोग सही है? यही नहीं पिछले दिनों शायद 16 फरवरी को दिल्ली में सत्तारूढ़ दल आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्लाह खान ने देश की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल किया, उसे सभ्य समाज की अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार करने पर बहस छिड़ गई है। आरोप है कि एक सभा में विधायक ने नरेंद्र मोदी सरकार के लिए आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल किया। मौजूदा राजनीति में असहमति ज़ाहिर करने के मामले में 'भाषाई हिंसा' का न सिर्फ व्यापक और बेखौफ इस्तेमाल हो रहा है, बल्कि उसका लगातार विस्तार भी हो रहा है। केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद में 24 फरवरी को दिए गए अपने भाषण में जिस पर्चे का उल्लेख किया था क्या वह उल्लेखनीय था। हाल ही में केंद्रीय मंत्री रामशंकर कठेरिया का पिछले दिनों आगरा में दिया गया भाषण भी विवादों में है। नागरिकों के मूलभूत और लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गए थे। पूरे राष्ट्र पर एक व्यक्ति की ‘तानाशाही’ थोप दी गई थी। लेकिन तब भी इंदिरा गांधी और उनकी सरकार के प्रति विपक्षी दलों, नेताओं और आम नागरिकों ने वैसी अमर्यादित भाषा का प्रयोग नहीं किया होगा जैसी आज अमूनन सभी पक्ष कर रहे हैं। राजनीतिक रूप से तीखे और कटु शब्दों और नारों का इस्तेमाल जरूर किया गया, तो ऐसा करना हालात के मुताबिक जरूरी भी था।हुत लोगों को अब भी अच्छी तरह याद होगा कि मोदी जी ने वर्ष 2007 के गुजरात चुनाव के दौरान सोनिया गांधी और तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिंगदोह के प्रति किस भाषा का प्रयोग किया था। यहां उसे दोहराना उचित नहीं होगा लेकिन यह भी सही है कि उसे किसी भी प्रकार से भद्र नहीं कहा जा सकता। तत्कालीन प्रधामंत्री मनमोहन सिंह को यशवंत सिन्हा द्वारा ‘शिखंडी’ कहना लोगों को याद होगा। शिखंडी का सीधा मतलब नपुंसक होता है। यशवंत सिन्हा वाजपेयी के मंत्रीमंडल में एक बहुत मजबूत कैबिनेट मंत्री थे।

जून 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के लगाए गए ‘आपातकाल’ के दौरान कोई डेढ़ साल तक समूचे विपक्ष को जेल में बंद कर दिया गया था। अब अरुण जेटली सहित बीजेपी के उच्च नेतृत्व को अरविंद केजरीवाल द्वारा प्रधानमंत्री के लिये प्रयोग किये गए एक शब्द से परेशानी है। यहां सिर्फ यह कहना उचित होगा कि केवल दूसरों को दोष देना और अपने गिरेबान में न झांकना ठीक नहीं है। वे जो उपदेश दे रहे हैं उसे वास्तविकता में अपनाया भी जाना चाहिये। आप इस मुद्दे को लेकर जागरुक है लेकिन फिर भी हममें से प्रत्येक को आत्मविश्लेषण कर सुधारात्मक कदम उठाने होंगे। यहां तक कि आप की स्थापना से बहुत पहले संसद ने सांसदों के व्यवहार के लिये दिशा-निर्देशों का मसौदा तैयार करने के उद्देश्य से एक आचार समिति का गठन किया था लेकिन इसे कभी भी गंभीरता से नहीं लिया गया। इसकी वजह बिल्कुल साफ है। यह ‘असहमति की जुबान’ को लेकर बढ़ते हुए उन खतरों की ओर इशारा करती है, जिनके प्रति हम या तो पूरी तरह से अनजान हैं या सच्चाई से नजरें चुरा रहे हैं। एक-दूसरे के विचारों के प्रति असहमति को ज्यादा से ज्यादा आक्रामक अंदाज में जहिर करने की कोशिशें पूरे देश में हो रही हैं। कुल मिलाकर अंत में मसला ये है कि लगातार आक्रामक और हिंसक होती भाषा के सवाल पर लोगों की सहमी हुई चुप्पी और देश को विकास के रास्ते पर ले जाने की कोशिशों में भागीदारी की अपेक्षा– क्या दोनों साथ-साथ चल सकते हैं?हकीकत यह भी है कि वे तमाम लोग जो अपने विरोधियों के प्रति असंयत, अभद्र और आक्रामक भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें अपने-अपने लोगों की ताकत पर पूरा भरोसा है। पर उन्हें देश की जनता के समर्थन पर शायद उतना भरोसा नहीं है। इसलिए क्या मान लिया जाए कि उन्हें देश की चिंता वैसी नहीं जैसी हम करना या देखना चाहते हैं?देश के बदलते हुए हालात में हम गलत भी हो सकते हैं कि इस तरह के सवाल खड़े कर रहे हैं और अकेले पड़ते जा रहे हैं।

 

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