हरिराम पाण्डेय
बुरी खबरों का जमाना है, हर तरफ बुरी खबरें हैं। हर मर्ज की जड़ एक ही है। अपराध, बगावत, गरीबी, हिंसा, सभी के पीछे एक ही बुनियादी कारण है: भ्रष्टाचार । लेकिन अफसोस की बात यह है कि यही ऐसा विषय भी है, जिसके बारे में अब कोई भी बात करना नहीं चाहता। भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हैं, वह हमारे सिस्टम में इस तरह पैठा हुआ है कि हम सभी ने यह मान लिया है कि उससे अब किसी तरह की निजात मुमकिन नहीं है। लिहाजा हम भ्रष्टाचार को छोड़कर दूसरे सभी मसलों का सामना करने में मसरूफ हैं।
अभी केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) ने देशव्यापी एक बड़ा घोटाला पकड़ा है- रेलवे की भर्तियों का। गजब यह कि पिछले साल नवंबर में ही माननीया रेलवे मंत्री ममता बनर्जी ने सभी 20 रेलवे भर्ती बोर्डों के 'भ्रष्टÓ अध्यक्षों को बाहर का रास्ता दिखाया था। उन सबको हटाया ही इस आधार पर गया था कि वे पूर्व रेल मंत्री के विश्वस्त थे और 'भ्रष्टÓ थे। इस कार्रवाई से पहले इलाहाबाद तथा अजमेर में पेपर लीक होने की खबरें सामने आयी थीं और तब ममता बनर्जी ने तुरत-फुरत 'ऑपरेशन क्लीनÓ चलाया था। अब साबित हो रहा है कि फर्क सिर्फ इतना ही पड़ा है कि लालूजी के 'भ्रष्टÓ की जगह अब ममताजी के विश्वस्त 'भ्रष्टÓ आ चुके हैं। जिनकी नियुक्ति भ्रष्ट तरीके से होगी तो वे क्या लोगों की सेवा तथा सुरक्षा करेंगे? वे भ्रष्ट होने के लिए तैयार बैठे रहेंगे पहले दिन से। उनकी पहली प्राथमिकता भ्रष्टाचार होगी। पुराने तरीकों से काम नहीं चलेगा तो वे नए तरीके ढूंढेंगे। कोई तरीका भ्रष्टाचार का अब तक नहीं रहा होगा तो अब उसका भी रास्ता निकालेंगे और क्या करेंगे वे? इनके 'पूर्वजÓ भी जो इनके तरीकों से नौकरी में आए होंगे, तो यही सब कर रहे होंगे। और इस तरह भ्रष्टाचार का एक पूरा चक्र है। यह केवल रेल मंत्रालय के साथ ही नहीं है, सब जगह है। सरकारी नौकरियों में तो सब जगह है। यह भ्रष्टाचार एक ऐसा रहस्य है, जिसे सब जानते हैं। अब तो बच्चा-बच्चा भी जानता है कि पैसे के अलावा कुछ नहीं चलता।
भ्रष्टाचार का यह घुन सारी सरकारी नौकरियों को खा गया है। अध्यापकों तक की नियुक्ति में यही हो रहा है। जिस देश में बच्चों की बुनियाद मजबूत करने का जिम्मा, चरित्र निर्माण का दायित्व जिस अध्यापक पर होता है, वह भ्रष्ट तरीकों से आएगा, तो क्या होगा?
इस तरह हमारे देश के प्रधानमंत्री की ईमानदारी कितनी ही मशहूर हो लेकिन वह जिस देश के मुखिया हैं, उसे चलाने वाले तमाम लोग, तमाम स्तरों पर भ्रष्ट हैं और भ्रष्ट कर दिए गए हैं। मुश्किल यह है कि नौकरी की सुरक्षा सिर्फ सरकारी तंत्र में है और ऊपर के वर्ग के कुछ युवाओं को छोड़ दें तो औसत युवा को पक्की नौकरी का भरोसा चाहिए, ताकि जीवन में निश्चिंतता पैदा हो। इसलिए जहां भी बड़े पैमाने पर नियुक्तियां होती हैं, गरीब-निम्नवर्गीय युवा हजारों की तादाद में पहुंच जाते हैं और हर कीमत देने को तैयार हो जाते हैं। तो यह तंत्र ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार के दलदल में धंसा है। जो इसमें धंसना नहीं चाहते, उन्हें भी जबर्दस्ती इस दलदल में धंसा दिया गया है। ऐसे में आप मांग करते रहिए या अखबारों में छापते रहिए कोई फर्क नहीं पडऩे को। उसे तो इसी व्यवस्था के तमाम एजेंटों ने भ्रष्ट होना घुट्टी में पिलाया है। जहां भ्रष्टाचार होगा, वहां अक्षमता होगी ही। ऊपर से सरकारें हर उपाय करती हैं कि जो लोग छोटे-मोटे धंधे करके गुजारा करते हैं, वे भी ऐसा न करें। पत्रकार के रूप में कई लोगों ने बरसों यह कोशिश की है कि लोगों को उनके हक की वह चीज दिलवाई जाय। यह आसान नहीं है। अक्सर तो यह जोखिमभरा भी हो सकता है क्योंकि भ्रष्टों का नेटवर्क तगड़ा होता है। आप एक मामले में दखल दीजिए और बीस लोग बीच में कूद पड़ेंगे। न जाने कहां से नये मामले खुल जाते हैं। मांगें बढ़ती चली जाती हैं। आज हर आदमी निराश है,क्योंकि पहले लाखों भारतीयों की तरह उनके पास भी घूस देने या नहीं देने का विकल्प मौजूद नहीं है। अब ऐसा नहीं है। हमारे विकल्प कम हो गये हैं। आज हम सभी एक भ्रष्ट सिस्टम के गुलाम हैं। यदि आप रिश्वत चुकाने से इनकार करते हैं तो पूरा सिस्टम आपको घेर लेगा, जैसे वह आपको कोई उदाहरण बनाकर पेश करना चाहता हो। यदि हमने यह अभी नहीं रोका तो समस्याएं बढ़ती जाएंगी। अगर न्याय न हो तो शांति भी नहीं हो सकती। और न्याय तब तक मुमकिन नहीं है, जब तक ईमानदार लोगों को ईमानदारी से जीने की इजाजत नहीं मिलती।
Saturday, June 26, 2010
भ्रष्टïचार का महादानव
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Tuesday, June 22, 2010
गंगा की स्वच्छता के उत्प्रेरण के लिये अनूठा अभियान
हरिराम पांडेय
सोमवार को गंगा दशहरा था। उत्तर भारत के विभिन्न स्थानों की भांति हावड़ा में भी गंगा दशहरा का आयोजन हुआ। इसे संयोग कहें या सायास प्रयोग कि बाबा भूतनाथ के मंदिर से नैऋत्य कोण पर रामकृष्णपुर घाट पर गंगा की आरती और वह भी वहां से अग्नि कोण पर अवस्थित मां काली के विख्यात मंदिर की दिशा के अभिमुख मां गंगा की आरती का न केवल आध्यात्मिक महत्व है बल्कि इसका विलक्षण तांत्रिक महत्व भी है। इसमें एक अजीब सा अस्पष्ट और अशरीरी अनुभव का भान होता है। उस अनुभव को जॉब चार्नक से लेकर लम्बी गुलामी के मानस शास्त्र और उसके बाद चौथाई सदी से ज्यादा अरसे तक कम्युनिज्म के ब्रेनवॉश के बावजूद आत्मीय और वास्तविक आस्था का अनुभव घाट पर एकत्र विशाल जनसमुदाय के 'हर हर महादेव के उद्घोष से होता है। लेकिन यह अनुभव उन तमाम अनुभवों से अलग भी है। अभी तक जो भी अनुभव होते हैं वे आदमी के भीतर अपनी उपस्थिति का अहसास कराते हैं लेकिन यह अनुभव सर्वथा भिन्न है। यह अपनी मौजूदगी से इंसान को किसी विराट अनुपस्थिति से साक्षात करवाता है। हम उस चीज को अनुभव करते हैं जो पहले कभी थी, हमसे जुड़ी थी पर अब नहीं है। यह अधूरापन, यह वंचित होने का भाव कुछ ऐसा है जैसे इतिहास के दो हिस्से हो, जिनमें एक हिस्सा तो हम पढ़ पाते हैं पर दूसरा लिखित होते हुये भी हम अंधेरे में है ओर हम पढ़ नहीं पाते। क्यों नहीं पढ़ पाते?
इस प्रश्न में छिपा वह है जिसे हम धर्म या धार्मिक अनुभव कहते हैं। गंगा के घाट पर..हर-हर महादेव.. और..हर-हर गंगे.. का तुमुल घोष उसी अंधेरे में छिपे मानव जाति के कल्याण के इतिहास को पढऩे का प्रयास की तरफ कदम उठाने की कोशिश है। एक मानसिक आकुलता है इसकी झलक हमें रामकृष्ण परमहंस के आरंभिक जीवन की आर्त विह्वïलता में छिपी दिखती है। यह वेदना यह अकुलाहट कहीं बाहर से नहीं मिलती बल्कि वहीं छिपी होती है एकदम अपने भीतर जहां बैठ कर हम पूछते हैं कि मेरा जीवन किसलिये है? आज का मनुष्य यह इसलिये पूछता है कि वह खुद को सृष्टि से अलग कर बैठा है। कैसी विडम्बना है कि समूची सृष्टि का साक्षी मनुष्य है पर मनुष्य का साक्षी कौन है। वह सबको नाम देता है पर क्या कभी किसी ने सोचा है कि उसका नाम किसने दिया?
एक प्रखर बुद्धिजीवी मित्र ने एक बार कई उद्धरण देकर दावा किया कि 'हिंदू धर्म का हिंदू नाम ही अपना नहीं है , यह दूसरों का दिया हुआ है। लेकिन अब उनसे कौन पूछे कि मनुष्य का नाम किसने दिया। सब चुप हैं। यहीं आकर बोध होता है कि मनुष्य केवल दृष्टा ही नहीं वह आत्मदृष्टा भी है। जैसे ही हम आत्मदृष्टा का नाम लेते हैं पहली बार कोई बोध, धुंधला ही सही, होता है, क्या यही ईश्वर है?
मनुष्य जब खुद को बाहर से देखता है तो बाहर असीम और विराट है। लेकिन जब वह अपने भीतर देखता है तो खुद को इस सृष्टि से जुड़ा हुआ पाता है। यह लगाव से उपजा प्रेम है जिसमें जिसमें आत्म का अदृश्य बोध पहली बार भाषा ग्रहण करता है। शायद यही कारण है कि हमारे यहां इस बोध को मंत्र कहते हैं तथा इनके गाने एवं जपने का प्रावधान है। गाने ओर जपने के समय ऐसा महसूस होता है कि यह.. मैं.. हूं, जिसे पढ़ा जा रहा है।
गंगा की आरती के समय इसी अहसास से आबद्ध होकर लोगों ने हर- हर गंगे का तुमुल घोष किया। आरती की लौ ने संभवत: हमें भीतर देखने को उत्प्रेरित किया। यह मानस खुद को गंगा से जुड़ा हुआ पायेगा और जुड़ाव से उपजा प्रेम गंगा को स्वच्छ बनाने के लिये संकल्पबद्ध है।
यह 'सम्मिलित सद्भावना का प्रयास है कि हजारों लोगों की सद्भावना का सम्मिलित हो गयीं ।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है ये सूरत बदलनी चाहिये।
मेरे सीने में न सही तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी मगर आग जलनी चाहिये।
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Friday, June 18, 2010
हावड़ा में गंगा आरती : आस्था के बिम्बों को साधने का प्रयास
उस दिन ढलती दोपहरी में अशोक पाण्डेय ने दफ्तर पहुंच कर बताया, हावड़ा के राम कृष्ण पुर घाट पर गंगा दशहरा का आयोजन हो रहा है। यह कोलकाता में पहली बार हो रहा है।
गंगा दशहरा क्या सचमुच?
कोलकाता जहां आसपास ही गंगा की यात्रा और उद्देश्य दोनों समाप्त हो जाते हैं। कोलकाता या बंगाल, जहां देवि का मायका माना जाता है वहां एक और देवि के लिये दशहरा!
अजीब सी पौराणिक अनुभूति से मन भर गया।
सहसा मन में उस दिन की स्मृति मन में कौंध गयी- बिल्कुल फ्लैश बैक की तरह- जिस दिन मनोज पाण्डेय और विक्रांत दूबे ने लगभग एक ही समय में फोन करके बताया कि हरिद्वार और काशी की तरह कोलकाता में भी गंगा आरती का आयोजन हुआ है- हर रविवार की शाम को।
-'कहां?Ó
-'बाबूघाट के ठीक सामने 'गंगाÓ के पश्चिमी किनारे पर!Ó
-'बाबूघाट या उसके उत्तर - दक्षिण पूर्वी तट पर क्यों नहीं? जहां से डूबते सूरज की झिलमिल भी गंगा की आध्यामिकता को बढ़ा देती?Ó
उधर से कोई आवाज नहीं।
बाबूघाट से दक्षिण जहां से दक्षिणायन होती कोलकाता की 'गंगाÓ धीरे - धीरे सागर से गले लग जाती है। अजीब शहर है कोलकाता भी। उत्तर से दक्षिण की ओर गंगा के किनारे इतिहास के दंश और उसकी कलुषता को समेटे अनगिनत स्मारक, मिट्टïी के ढूह, श्मशान और उनसे जुड़ी कहानियां। इनके बीच से गुजरते समय ऐसा लगता है जैसे हम एक समय से उठ कर दूसरे समय में चले गये हैं। बाबूघाट से गंगा के किनारे दक्षिण की तरफ बढ़ते हुए कालीघाट तक और उधर उत्तर की ओर दक्षिणेश्वर की तरफ बढ़ते हुए एक अजीब सी उदासी घिर आती है। जैसे कोई हिचकी, कोई सांस या कोई चीख यहां दफन हो, जो न अतीत से छुटकारा पा सकती हो और न वर्तमान में जज्ब हो सकती हो।
अचानक मन में इक सवाल आता है- गंगा की आरती क्यों? यह सनातनी रस्म क्यों?
बताया गया, गंगा और दूषित होने से रोकने तथा अब तक जो दूषण हो गया उसे स्वच्छ करने के लिए आम जन में चेतना पैदा करने के इरादे से।
अनिल राय एक बार आरती में शामिल होकर लौटे। अतुलनीय रोमांच के साथ उन्होंने आरती के दीप की गति तथा लय और गंगा स्तुति का वर्णन किया। यह एक ऐसा 'अपीयरेंसÓ जिसे बिना शामिल हुए नहीं जाना जा सकता है। ठीक रामलीला के उन प्रसंगों की भांति जिसे देखकर लोग रो लेते हैं, संवेदना से लबालब हो जाते हैं, यह जानते हुए भी कि यह लीला है- एक 'अपीयरेंसÓ है, सच नहीं है।
मैं पूछता हूं खुद से कि 'इस बहते पानी से हिंदू मानस का इतना गहरा - घना लगाव क्यों है?Ó
शायद इसलिए तो नहीं कि इसमें मिथक और इतिहास का गहरा भेद छिपा है। ... और इस भेद में सिर्फ रहस्य का ही आशय नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिकता भी है। गंगा एक भारतीय के लिए खास कर एक हिंदू के लिए महज बहता पानी नहीं है। वह हमारी सबसे गहन स्मृतियों को- जिन्हें हम संस्कार कहते हैं, जगाती है। हमें इतिहास के उन मिथक क्षणों में ले जाती है, जहां बैठ कर सगरपुत्रों की मौत की पीड़ा, उनकी मुक्ति के लिए भगीरथ की तपस्या का रोमांच, भगवान शंकर की खुली जटाओं में निर्बंध गंगा के आधान की आश्वस्ति और वहां से मुक्त हो कर सागर तक उसकी हहराती यात्रा के आवेग को हम महसूस करते हैं। कितना अजीब विरोधाभास है कि एक समय में एक आदमी(भगीरथ) द्वारा मेदिनी पर लायी गयी यह धारा समय के साथ प्रकृति में बदल गयी। शाम की धूप में कालातीत, इतिहास से मुक्त। पीढ़ी दर पीढ़ी इस धारा में नहाते हुए लोगों ने इसे अपनी स्मृति में पिरो दिया है। यहां इतिहास, धर्म और प्रकृति एक दूसरे से मिल जाते हैं।
ऊपर मैंने एक अजीब सी उदासी का जिक्र किया है। उसके नीचे एक और गहरी उदासी दबी है- वह उनके लिए नहीं जो एक जमाने जीवित थे और इन घाटों पर दमन, अत्याचार का शिकार होकर मरे, बल्कि वह बहुत कुछ अपने लिए है, जो एक दिन इन घाटों, तटों और मंदिरों को देखने के लिए बचे नहीं रहेंगे। ये घाट, ये तट और ये मंदिर हमें उस मृत्यु का बोध कराते हैं जिसे हम अपने भीतर लेकर चलते हैं। यह धारा उस जीवन का बोध कराती है, जो मृत्यु के शाश्वत होने के बावजूद वर्तमान है, गतिशील और इतिहास से परे है। बाबूघाट के अगल-बगल के उन घाटों की ओर या दक्षिणेश्वर अथवा की मंदिर को इंगित करके बहती धारा की आरती यूनानी काव्य में वर्णित 'कैथार्सिसÓ की सम्पूर्ति की तरह लगती है।
आरती के सम्बंध में पूछे गये सवाल के जवाब में टेलीफोन पर विक्रांत की चुप्पी इसी 'कैथार्सिसÓ के रहस्य की तरह है। आरती देखकर लौटे अनिल राय के रोमांच के मायने भी अब खुलने लगे हैं। आरती के बाद भीतर की पीड़ा से छुटकारा पा लेने का वह अनुभव दुर्लभ है। दुर्लभ इसलिए कि हम इतिहास और मिथक, समय और शाश्वत को बांटने के आदी हो गये हैं। आज हम अपने भीतर पौराणिक क्षणों को ठीक उसी तरह जीते हैं जिस तरह मिथक काल का व्यक्ति इतिहास को भोगता था। यदि आज हम ऐतिहासिक काल में रहते हैं तो हमारे भीतर उस स्वप्न को पाने की आकांक्षा आंख खोले रहती है, जब हम सम्पूर्ण थे। माना कि यह मिथक काल की वास्तविकता नहीं थी पर इससे न तो स्वप्न झूठे हो जाते हैं और ना आकांक्षा की तीव्रता मंद हो जाती है। हम स्वप्न खो चुके हैं इसका अहसास उस समय 'सतीÓ को भी हुआ होगा जब उन्होंने खुद को अग्नि को समर्पित किया अथवा आदिकवि बाल्मीकि को भी रहा होगा। क्योंकि समूचा काव्य उस खोने के आतंक को समझने का प्रयास है। मिथक काल में आस्था प्रमुख थी और संदेह क्षीण था। ऐतिहासिक काल में संदेह प्रबल हो गया। लेकिन कभी ऐसा भी था कि दोनो बराबर थे - आस्था और संदेह - आलोक और अंधेरा दोनों बराबर थे। इस अहसास का पहला एपिक उदाहरण महाभारत है। उसमें कई ऐसे स्थल आते हैं जहां व्यक्ति को दोनों चेतना का अहसास एक ही समय में होता है। जब कभी एक पलड़ा भारी पडऩे लगता है और दोनों के बीच संतुलन (धर्म) बिगडऩे लगता है तो स्वयं कृष्ण घटनाचक्र में हस्तक्षेप करने को मजबूर हो जाते हैं। इसमें आस्था और संदेह का घात- प्रतिघात सबसे तीव्र है। महाभारत के अंतिम क्षणों में शर शय्या पर पड़े भीष्म के पैरों के पास खड़े युधिष्ठिïर युद्ध की व्यर्थता पर हाथ मलते मिलते हैं। एक बार फिर संदेह और आस्था का साक्षात्कार और धर्मराज हिमालय में चले जाते हैं। पीछे छोड़ जाते हैं लहूलुहान इतिहास और ऊपर तटस्थ, निर्दोष और अंतहीन आकाश। यहां कोई भ्रम नहीं है, कोई छलावा नहीं है। मनुष्य अपने में ही शुरू होता है और अपने में ही नष्टï हो जाता है। यही शाश्वत है, सम्पूर्ण है और अंतिम है। सब कुछ यहां है, अभी है। इसके आगे सिर्फ राख है, कुछ भी नहीं है। आरती आध्यात्मिक रूप से आस्था के इन बिम्बों को साधने का कर्मकांड है।
मनोज सकुचाते हुए कहते हैं, हम कुदाल और टोकरियां लेकर गंगा की सफाई तो कर नहीं सकते और न डंडे मार कर दूषित करने वालों को रोक सकते हैं, देखिए यह राह चुनी है, देखिए आगे क्या होता है। उनकी आवाज में युधिष्ठिïर की निराशा नहीं है। सूरज डूबने लगा है। घाट पर से झांझों की आवाज आने लगी है। अभी आरती की लौ जलेगी और पूरा वातावरण गंगा की स्तुति से आस्थामय हो जायेगा। अचानक मन में दुष्यंत कुमार का एक शेर आता है-
कौन कहता है कि आसमान में सुराख हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों
- हरि राम पाण्डेय
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Sunday, June 13, 2010
इतिहास से सीखें
हरिराम पांडेय
भोपाल गैस कांड के फैसले के बाद अब राजीव गांधी की भूमिका को लेकर उनके राजनीतिक वारिस तरह - तरह की बातें करने लगे हैं। ढेर सारी आलोचनाएं और शंकाएं। ऐसे में यह जरूरी है कि राजीव गांधी ने अपने जीवनकाल में जो कुछ भी अच्छा किया उसे भी याद किया जाय। खास कर उसे जो उन्होंने गद्दी पर आने के पहले ही किया। ऐसा किया जाना तीन कारणों से जरूरी है। पहला, राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये उन्होंने जो भी किया उसका श्रेय उन्हें ना के बराबर मिला। दूसरा कि, ऐसी स्थिति में जब माओवादियों से निपटने की राह हमें नहीं दिख रही है वैसे में हो सकता है इससे कोई सबक मिल जाय और तीसरा कि समसामयिक भारतीय इतिहास में 1984 सबसे कठिन साल था, क्योंकि इसी अवधि में ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ, उसके बाद सेना की सिख रेजिमेंट में बगावत की बात उड़ी, इंदिरा जी की हत्या हुई तत्पश्चात बड़ी संख्या में सिखों का कत्ल और उसके बाद चुनाव प्रचार के दौरान भोपाल गैस कांड। हममें से बहुत लोग ऐसे हैं जिन्होंने इस अवधि को बड़ी शिद्दत से झेला होगा और इसकी आंच को महसूस किया होगा। यदि ऐतिहासिक धाराओं और दबावों का विश्लेषण करें तो पता चलेगा कि 1971 के बाद 1984 सबसे कठिन अवधि थी। जहां तक भोपाल गैस कांड का सवाल है, यह घटना एक ऐसी..केयर टेकर.. प्रधानमंत्री के काल में घटी, जब उसको सत्ता में आये पांच हफ्ते ही हुए थे। ऐसे में उस दुःखद घटना की तरफ पूरा ध्यान नहीं जाना मानवीय भूल की सीमा में आ सकता है। हर आदमी यह सोच सकता है कि उस काल में दिल्ली में बैठी सरकार कितनी दुःखद स्थिति में रही होगी जब उसे अपने देश में एक सम्माननीय जाति के धार्मिक स्थल पर टैंकों और तोपों से हमले करने पड़े होंगे, अपनी ही फौज को अपने साथियों से मुकाबला करना पड़ा होगा और विद्रोह के नाम पर उन साथियों को मारना पड़ा होगा। अपने देश के इतिहास में सबसे ज्यादा ताकतवर प्रधानमंत्री अपने ही अंगरक्षक की गोलियों से जमीन पड़ा छटपटा रहा होगा और राष्ट्रपति निवास से एक मील की दूरी के भीतर अपने ही लोगों का कत्लेआम होता हुआ देश देख रहा होगा और सन्न रह गया होगा। ऐसी स्थिति में हम भूल गये कि उस सरकार ने कई महत्वपूर्ण योगदान भी दिये। शुरू करें उस चिंतन प्रक्रिया से जिसका नतीजा हमें नेशनल सिक्यूरिटी गाड्र्स के रूप में मिला।..ब्लैक कैट.. के नाम से विख्यात इन जांबाज कमांडो का जलवा 2008 में मुम्बई में सारी दुनिया ने देखा। सन् 1984 के जून में आपरेशन ब्लू स्टार हुआ था। उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री नहीं थे पर प्रधानमंत्री कार्यालय से दूर भी नहीं थे। यह आपरेशन एक सामरिक सफलता जरूर थी पर भारी सियासी नाकामी थी। इस आपरेशन की नाकामी यह थी कि इसमें जहां फौज ने बाकायदा युद्ध किया वहीं सिखों को दुश्मनों की तरह मोर्चे लेने के लिये बाध्य कर दिया। इस स्थिति ने राजीव गांधी को सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या यह कार्य किसी और दूसरे ढंग से नहीं किया जा सकता था? आखिर उनके नाना जवाहर लाल नेहरू ने भी तो हैदराबाद और गोवा में फौज भेजी और नाम दिया था..'पुलिस एक्शन।.. नेहरू बहुत समझदार थे और वे समझते थे कि फौज को अंदरूनी मामलात में नहीं घसीटा जाना चाहिये। पुलिस तो बुरे लोगों के जमावड़े के रूप में बदनाम है और उसे ऐसे विशेषणों से गुरेज भी नहीं है। शायद यही विचार प्रक्रिया थी जिससे एन एस जी के गठन को व्यावहारिक स्वरूप मिला। विचार साफ था कि फौज की पूरी क्षमता का उपयोग हो और कहीं फौज का नाम भी ना आये। यहां यह बात इसलिये नहीं कही जा रही है कि ऐतिहासिक रेकाड्र्स को दुरुस्त किया जाय बल्कि इसलिये कही जा रही है कि आज माओवाद के मुकाबले के लिये जो तू तू मैं मैं हो रही है नेतागण उससे परे जाकर एक साथ मिल कर कुछ सोचें, सकारात्मक सोचें। वरना हम अपने हाथों से अपनी पीठ चाहे जितनी थपपथा लें पर दुनिया में कोई भी देश ऐसे मुल्क को गंभीरता से नहीं लेता। हमारे नेताओं को चाहिये कि इस दिशा में विचार करें।
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Friday, June 11, 2010
सियासी त्रासदी की दस्तक
हरिराम पांडेय
इन दिनों लगता है कि भारत शाश्वत रूप से चुनावी महामारी का शिकार होने जा रहा है। यदि राज्य में चुनाव नहीं हो रहे हैं तो नगर निगम और और नगरपालिकाओं के चुनाव हो रहे हैं और विधान सभाओं के हो रहे हैं। अब चुनाव जहां होते हैं, वही केवल विपर्यय नहीं होता, बल्कि केन्द्र में भी अफरा-तफरी मच जाती है और वहां भी सियासी सांप- सीढ़ी के खेल शुरू हो जाते हैं। अभी हमारे सामने कोलकाता नगर निगम और पश्चिम बंगाल की नगरपालिकाओं के चुनाव के नतीजे हैं और इनमें ममता बनर्जी को भारी विजय मिली है। सीताराम येचुरी ने इस पराजय को जनता का पार्टी से..विलगाव.. बताया है। यह बड़ा ही दार्शनिक उत्तर है और आम बोलचाल की भाषा में इसे बहानेबाजी कह सकते हैं। अब यह जान लें कि अबसे और पश्चिम बंगाल में जब तक विधानसभा चुनाव नहीं हो जाते हैं तब तक न केवल राज्य में केन्द्र में भी राजनीति थमी रहेगी। ममता बनर्जी में किसी भी हालात को विपर्ययग्रस्त करने की भारी क्षमता है और वह उनकी अच्छाइयों पर परदा डाल देता है। मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने जमीन आसमान के कुलाबे मिला कर नंदीग्राम के लिये विदेशी पूंजी का जुगाड़ लगाया और ममता जी ने उस अटका दिया। टाटा की मिन्नतें करके सिंगूर में कार का कारखाना लगाने का डौल बिठाया और ममता जी ने रतन टाटा को ही खदेड़ दिया। वे जब मन होता है तो मंत्रिमंडल की बैठक में शरीक होती हैं और कोई उनसे पूछने वाला नहीं है। अब हालात और बिगड़ेंगे, क्योंकि ममता जी विधानसभा चुनाव जीतकर सत्ता में आने की कोशिश में लग जायेंगी। माकपा भी अपने तीन दशक के शासन काल में आखिरी दौर में चेती। वह कुछ आर्थिक विकास के चक्कर में पड़ गयी है। ज्योति बसु बेशक बंगाल में पार्टी के शलाका पुरुष हो सकते हैं, लेकिन उन्होंने बंगाल का जितना नुकसान किया उतना शायद लालू प्रसाद यादव ने बिहार का नहीं किया। उन्होंने बेशक लाल झंडे से लोगों को लुभाया पर लोगों को दो जून की रोटी मिल सके, ऐसी कोई व्यवस्था नहीं कर सके। पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था और यहां की संस्कृति एक जमाने में देश में अग्रणी मानी जाती थी पर 20 वीं शताब्दी में इसका अधोपतन हो गया। पश्चिम बंगाल में राजनीति में नेताओं का पतन तो 1905 से ही शुरू हो गया। 21वीं सदी में उम्मीद बंधी कि थोड़ा सुधार होगा पर बुद्धदेव बाबू का न कद इतना बड़ा था और ना ही ये समय पर आये। समय के इस मोड़ पर ममता आयीं और उन्होंने दिखा दिया कि दोनों बर्बादी के खेल खेल सकते हैं। बंगाल का सामाजिक मनोविज्ञान कुछ ऐसा है कि यहां परिवर्तन के लिये किसी सकारात्मक अजेंडे या किसी विकास की गारंटी की जरूरत नहीं है। बस उनकी घृणा या भय को भड़काने की जरूरत है। माकपा ने इसे अपनी तरह से किया और ममता अब किसी दूसरी तरह से करेंगी। 2011 में ममता विजयी होकर सत्ता में आयेंगी ही। यहां यह मुख्य है कि वे कितने दिनों तक सत्ता में बनी रहेंगी और बंगाल को बरबाद करती रहेंगी। यह तो मुमकिन नहीं है कि वे किसी विदेशी या देसी उद्योगपति को राज्य में आमंत्रित करेंगी और टाटा का हाल देखने के बाद कोई समझदार उद्योगपति उन पर कैसे विश्वास कर लेगा। ममता जी को इस ऊंचाई तक पहुंचाने के लिये कांग्रेस भी दोषी है। ब्रिटिश संस्कारों में रह कर राजनीति की शुरुआत करने वाली यह पार्टी अभी भी..बांटो और राज करो.. वाली नीति पर भरोसा करती है। उसका मन सीपीएम से भर गया तो उसने ममता को अपने साथ जोड़ लिया। वरना राजग के शासन काल के एक मंत्री के लिये पलक पांवड़े क्यों बिछाये जाते? राजनीति के शून्य में राज्य में नक्सलियों ने अपना गढ़ बना लिया तो इसमें क्या आश्चर्य है? आज पश्चिम बंगाल वहीं खड़ा है जहां 30 साल पहले था और उतना ही बदहाल है। भविष्य अच्छा नहीं दिख रहा है।
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Monday, June 7, 2010
माओवाद से माओ के आंदोलन की ओर
हरिराम पांडेय
माओवादियों के खिलाफ सरकार के कदम बहुत प्रभावशाली नहीं हो पा रहे हैं और एक तरह से सरकार की कार्रवाई उनके पक्ष में जा रही है। सरकार एक तरह से बचाव करती नजर आ रही है। क्योंकि जिन क्षेत्रों को माओवादियों ने मुक्त घोषित कर दिया है, उन क्षेत्रों में आंध्र प्रदेश को छोड़ कर जितने माओवादी मारे गये हैं उससे कहीं ज्यादा सुरक्षा बलों के जवान शहीद हुये हैं। सुरक्षा बलों से जितने हथियार लूटे गये हैं उससे कहीं कम हथियार माओवादियों से जब्त किये जा सके हैं। इन क्षेत्रों में 2010 में 170 सुरक्षा सैनिक शहीद हुये जबकि कार्रवाई में महज 108 माओवादी मारे जा सके। सन् 2009 में भी 312 सुरक्षा बलों के मुकाबले 294 माओवादी मारे गये। सन् 2008 में 214 सुरक्षा बलों के जवान खेत रहे और इतनी ही संख्या में माओवादी भी मारे गये। पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ के जवान माओवादियों के मुकाबले को लेकर ज्यादा सक्रिय देखे गये नतीजा यह हुआ कि माओवादियों ने अपनी कार्रवाई बढ़ा दी और इसके फलस्वरूप इन दो राज्यों में सुरक्षा बलों के जवान ज्यादा मारे गये। इससे माओवादियों को बेशुमार प्रचार मिला और उनका आतंक ब्याप गया। इन दो राज्यों में भी वही मुश्किलें हैं जो इस मामले को लेकर अन्य राज्यों में हैं। इन दो राज्यों में न्यून आर्थिक विकास हुआ है, खस्ता हाल सड़कें हैं, घने जंगल हैं जिसमें माओवादी शरण लेते हैं। इसके अलावा इन राज्यों में उनके मुकाबले के लिये पुलिस बलों की संख्या कम है और इन्हें कार्रवाई के लिये केंद्रीय बलों पर निभॆर रहना पड़ता है। इनमें छत्तीसगढ़ की स्थिति सबसे खराब है।..लाल विद्रोह.. के इतिहास को देखें तो इसकी तुलना चीन के यनान प्रांत में आरंभ हुए कम्युनिस्ट आंदोलन से कर सकते हैं। भुखमरी और अकाल से जूझते शनाक्सी प्रांत के यनान सहे, जहां से माओ त्से तुंग ने क्रांतिकारी कूच की शुरूआत कर चीन की सत्ता पर कब्जा कर लिया था। सन् 1971 में मार्क शेल्डन ने एक किताब लिखी थी। नाम था 'द यनान वे इन रिवोल्युशनरी चाइना।'' उसके माध्यम से लेखक ने यह बताने का प्रयास किया था कि किस तरह माओ ने आम आदमी को गुरिल्ला युद्ध से जोड़ दिया था। अगर यनान चीनी क्रांति को सफलता दिला सकती है तो दंतेवाड़ा में माओवादी क्यों नहीं सफल हो सकते जबकि हालात समान हैं।
इसके लिये जरूरी है कि पुलिस बल को ताकतवर बनाया जाय और ग्रामीण पुलिस बंदोबस्त का विस्तार किया जाना चाहिये। साथ ही उन क्षेत्रों का आर्थिक विकास भी होना चाहिये ताकि इस नये हालात को रोका जा सके।
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Sunday, June 6, 2010
अब शुरू होगा एक नया सियासी तमाशा
शनिवार को माकपा पोलित ब्यूरो की बैठक के दौरान पश्चिम बंगाल के सचिव ने साफ कर दिया कि बुद्धदेव भट्टाचार्य को मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने का सवाल ही नहीं उठता। यह एक साधारण सा सियासी जुमला है पर नयी पत्रकारिता के हाहाकार में एक नये सियासी तमाशे के आगाज का संकेत भी है। कभी कहावत थी कि...बंगाल जो आज सोचता है वह पूरा देश कल सोचता है।... ऐसा कब होता था, भगवान जाने पर आज बंगाल का सोच सबसे पीछे माना जायेगा। हाल के कॉरपोरेशन चुनाव का ही उदाहरण लें। ममता जी को भारी विजय मिली है। कोलकाता कॉरपोरेशन के इतिहास में अब तक ऐसा जनादेश किसी एक दल को नहीं मिला था। शनिवार के पोलित ब्यूरो की बैठक में बिमान बसु ने एक बड़ी मार्के की बात कही। उन्होंने इस पराजय का दोष सुधारों के ठीक से नहीं लागू किये जाने पर मढ़ा है। यहां इस पर विचार करना उतना जरूरी नहीं है कि क्या ममता बनर्जी उन सुधारों को लागू कर पायेंगी? बल्कि यह जरूरी है कि वे कौन से कारण थे जिससे लाल रंग फीका पड़ गया और और तिरंगे की सबसे निचली पट्टी की ओर बढ़ गया। यहां प्रसंगवश एक बात कहनी जरूरी हो गयी है कि पिछली आधी सदी की सबसे दूरदर्शी राजनेता इंदिरा गांधी ने कांग्रेस के शीर्ष पर पसरी काहिली को पहचान लिया था। उन्होंने पार्टी को तोड़ा और वे खुद एक नए अवतार में सामने आईं। गरीबी हटाओ का नारा इंदिरा गांधी की सूझबूझ का परिचायक था। इसके अनुरूप अर्थव्यवस्था को वह नहीं बदल पायीं । मिल-जुलकर राजकाज चलाने में भी उनका भरोसा नहीं था। न ही वह उद्योग, मजदूर, किसान, मीडिया के साथ बदलाव का जोड़ तैयार कर सकीं। भारत इतना विशाल देश है कि बिना एकजुटता के यह हिलता तक नहीं। इंदिरा जी से यही गलती हुई और कांग्रेस का पराभव हो गया।
अब आइये बंगाल की बात करें। यहां पिछले तीन दशकों से कम्युनिस्ट पार्टी का राज था। बंगाल में कम्युनिस्ट राज का आधार थी सामाजिक स्थिरता, जिसे साठ के दशक में कांग्रेस नष्ट कर चुकी थी। बंगाल में बीते तीन दशकों के अमन-चैन ने इस सच को ढंक दिया है कि वह बंटवारे से उपजा प्रांत है और यहां सांप्रदायिकता की जड़ें देश में सबसे (यहां तक कि पंजाब से भी) गहरी रही हैं। मुस्लिम लीग का जन्म बंगाल में हुआ था। 19 वीं सदी के बंगला लेखन में व्याप्त मुस्लिम विरोधी तत्वों पर गौर करें तो उनके सामने पंजाबी साहित्य फीका मालूम होगा। हमने इतिहास में दो बंगाल के बारे में पढ़ा है। एक था मुस्लिम बहुल पूर्व बंगाल और दूसरा था हिंदू बहुल पश्चिम बंगाल। सरहद ने इसे अलग कर दिया। अब एक ही बंगाल बच गया। लेकिन हम भूल गये कि उस बंटवारे के साठ वर्षों के दौरान इस बंगाल में भी दो बंगाल का उदय हो गया है। आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी 28 प्रतिशत है। ताजा जनगणना के बाद यह 30 प्रतिशत तक हो सकती है। उनका घनत्व समान नहीं है। बंगलादेश से सटे पूर्वी जिलों में मुसलमानों की घनी आबादी है। कोलकाता के दक्षिण, पूर्व और उत्तर में करीब 40 फीसदी मतदाता मुसलमान हैं। ममता बनर्जी की कामयाबी का बुनियादी कारण यह है कि मुस्लिम वोट वाम दलों से टूटकर उनके व्यक्तित्व की ओर खिंचे हैं। फिलहाल ममता बनर्जी का व्यक्तित्व ही है, जिसने विद्रोह की लहर पैदा की है। लेकिन उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है कि अपनी बढ़त को अभी वह एक राजनीतिक संगठन में संस्थागत रूप नहीं दे सकी हैं। दिलचस्प है कि ममता के प्रति मुस्लिमों में जैसा उत्साह है, वैसा कांग्रेस के प्रति नहीं है।
पोलित ब्यूरो में बिमान बसु का यह कहना कि सुधारों को ठीक से लागू नहीं किया जा सका बिल्कुल सांकेतिक है। उन्होंने या यों कहें पार्टी ने नौकरियों में मुस्लिमों के लिये आरक्षण की शुरुआत कर दी है। आज की युवा पीढ़ी को बदलाव एक रोमांचक विचार लगता है, ठीक वैसे ही जैसे 70 के दशक में नक्सली आंदोलन ने यहां के युवा वर्ग को आकर्षित किया था। सन् 2011 तक क्या होगा यह तो भविष्य ही बतायेगा। लेकिन यह तो तय है कि डोर मुस्लिमों के हाथ में होगी। अतएव इस दौरान अल्प संख्यकों को आकर्षित करने के नये- नये हथकंडे अपनाने की होड़ लगेगी और शुरू होगा एक नया सियासी तमाशा।
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