इन दिनों भारत माता और भारत माता की जय जैसे वाक्यों को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा है। महाराष्ट्र विधानसभा में एक विधायक को इसलिये निलंबित कर दिया गया कि उसने भारत माता की जय कहने से इनकार कर दिया था। देश के और कई भागों में भी इस पर बहस चल रही है। भारत की अजीब विडम्बना है कि यहां मां शब्द के दो अर्थ ही नहीं होते बल्कि दो अभिव्यक्तियां भी होती हैं। एक मां है जो जननी है जो जन्म देती है। वह जैविक माता है। दूसरी माता भाव प्रधान हाती है। यानी इमोशनल मदर। बस सारा झगड़ा यहीं है। भाव प्रधान माता की कल्पना हमारे देश में प्राचीन काल से दुर्गा के रूप में होती है जो एक शाक्त हिंदू बिम्ब है। अवनींद्रनाथ ठाकुर के भारत माता के बिम्ब इस बिम्ब पर भावों में सुपर इम्पोज होते हैं। 1905 में स्वदेशी आंदोलन के दौरान अवनींद्रनाथ टैगोर की कूची से जब भारत माता का स्वरूप अवतरित हुआ तो देश की आजादी का सपना देख रहे लोगों की कल्पनाओं को पंख लग गये। जब यह पहली बार एक पत्रिका में छपी तो शीर्षक था स्पिरिट आफ मंदर इंडिया। अवनींद्रनाथ टैगोर ने पहले इनका नाम बंग माता रखा था बाद में भारत माता कर दिया। अगर पहला नाम बंग माता ही रह जाता तो भारत माता की विकास यात्रा कैसी होती। उस बंगाल में इस तस्वीर से पहले आनंदमठ की रचना हो चुकी थी और वंदे मातरम् गाया जाने लगा था। इस भारत माता के चार हाथ हैं। शिक्षा, दीक्षा, अन्न और वस्त्र हैं इनके हाथों में। आजाद भारत की फिल्मों में यही रोटी कपड़ा और मकान बन जाता है। कोई हथियार नहीं है, कोई झंडा नहीं है। जल्दी ही देश भर में भारत माता की अनेक तस्वीरें बनने लगीं। क्रांतिकारी संगठनों ने भारत माता की तस्वीरों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। छापों के दौरान भारत माता की तस्वीर मिलते ही अंग्रेजी हुकूमत चौकन्नी हो जाती थी। अनुशीलन समिति, युगांतर पार्टी भारत माता की तस्वीरों का इस्तेमाल करती हैं तो पंजाब में भारत माता सोसायटी, मद्रास में भारत माता एसोसिएशन का वजूद सामने आता है। सब अपनी-अपनी भारत माता गढ़ने लगते हैं लेकिन धीरे-धीरे तस्वीरों में भारत माता का रूप करीब-करीब स्थाई होने लगता है।
भारत माता के चार हाथ की जगह दो हाथ हो जाते हैं। शुरू में ध्वज दिखता है फिर त्रिशूल और तलवार दिखने लगता है। यहीं आकर भारत माता पर देवी दुर्गा का भाव सुपर इम्पोज हो गया। भारत की हमारी कल्पना में एक भारत माता भी होनी चाहिए। देश केवल कागज का नक्शा नहीं होता। उसके साथ हमारा एक भावुक रिश्ता होता है। क्योंकि अगर भारत माता नहीं होगी, तो भारत एक शुष्क भूगोल का नाम होगा, हमारी नसों में बजने वाले संगीत का नहीं, हमारे होंठों पर तिरने वाली कविता का नहीं, हमारी रगों में दौड़ने वाले खून का नहीं। लेकिन यह समझना जरूरी है कि भारत माता का बार-बार नाम लेकर हम न भारत माता का सम्मान बढ़ाते हैं न भारत की शक्ति। यह ठीक वैसा ही है, जैसे हम वक्त की पाबंदी या सच्चाई या अहिंसा को लेकर रोज महात्मा गांधी के सुझाए रास्ते की अनदेखी करते हैं, और रोज उन्हें बापू या राष्ट्रपति बताते हैं। इससे महात्मा गांधी की इज्जत बढ़ती नहीं, उल्टे कम ही होती है। जब हम एक सहिष्णु लोकतंत्र होते हैं, तो देश बड़ा लगता है। जब हम एक कट्टर समाज दिखते हैं, तो देश छोटा हो जाता है। जब हम दंगों में खून बहाते हैं, तो भारत माता शर्मिंदा होती है, जब हम बाढ़ और सुनामी में लोगों की जान बचाते हैं, तो भारत माता की इज्जत बढ़ती है। शनिवार को भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अपने भाषण में अरुण जेटली ने कहा कि हमें लगता है कि यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर बहस की गुंजाइश ही नहीं है। भारत का संविधान असहमति के लिए पूर्ण स्वतंत्रता की अनुमति देता है लेकिन राष्ट्र को तहस- नहस करने की अनुमति नहीं देता। हमने पहले पहल भारत माता को कब देखा था, जिस रूप में आज देखते हैं?
शुक्रिया उन सभी का जिन्होंने 'भारत माता की जय बोलने' के विवाद को फिर से तूल दिया। यही विवाद कभी 'वंदे मातरम्' को लेकर होता था और होता रहा है। वंदे मातरम् और भारत माता की जय की विकास यात्रा में कई वर्षों का अंतर है, मगर कब दोनों एक-दूसरे के पूरक हो जाते हैं यह ठीक- ठीक बताना मुश्किल है। इन विवादों से हमें यकीन होता है कि घबराने की जरूरत नहीं है। हम कहीं गए नहीं हैं, वहीं हैं। भारत की राजनीति ने पहले भी इस विवाद का सामना किया है और आगे जब भी होगा तो सामना कर लेगी। भारत माता की जय बोलने में न तो समस्या है, न नहीं बोलने में। समस्या है कि आप कौन होते हैं बोलने वाले कि 'भारत माता की जय' ही बोलो या देशभक्त होने का यही अंतिम प्रमाण क्यों है। ध्यान रहे कि ,चर्चा और बहस बहुत जरूरी है। इससे वो दृष्टि मिलती है, जिससे दृष्टिकोण बनता है।
Tuesday, March 22, 2016
"भारत माता " पर इतना विवाद क्यों
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Monday, March 21, 2016
अभिव्यक्ति की अाजादी सच है या मिथक
अगर आपसे कोई कहे कि आज के संदर्भ में अभिव्यक्ति की आजादी है क्या चीज? क्या यह सच है या मिथक? यह सचमुच कोई जटिल, गूढ़, अबूझ, दुर्बोध राजनीतिक ग्रंथि है या कोई सहज, सरल-सी चीज है, जिसे पकड़ने में हमारी समझ ही छोटी पड़ जाती है? यह पत्थर की वह सैद्धांतिक लकीर है, जिसे कोई तोड़-मरोड़ नहीं सकता या रबर जैसी ऐसी लचीली अवधारणा है, जिसे जो चाहे अपनी जरूरत के मुताबिक मोड़ ले, घुमा ले और अपने पक्ष में खड़ा कर ले? कहते हैं कि अभिव्यक्ति की आजादी के बिना लोकतंत्र लोकतंत्र नहीं होता, लेकिन क्या कोई लोकतंत्र अभिव्यक्ति को पूरी तरह आजाद करके सही मायने में लोकतंत्र बना रह सकता है?संविधान और हमारी सभ्यता में विचार व्यक्त करने की आजादी है। प्रश्न है कि क्या हम भी उन पर चरित्रहीनता का आरोप लगा सकते हैं? एक लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक दलों की संरचना विचारधारात्मक आधार पर होती है यानी अपने देश समाज की आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक आदि परिस्थितियों की समझ और उन्हें आम जनता के हितों के अनुरूप ढालने-बदलने की वैचारिकता के आधार पर। और यह वैचारिकता तैयार होती है विचारों के आदान-प्रदान से जिसमें किसी दल से जुड़े हुए लोगों को उपलब्ध विचार व्यक्त करने की आजादी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि बिना इस आजादी के विचारों की निष्पक्ष और निर्भीक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। न निष्पक्ष प्रशंसा हो सकती है, न निष्पक्ष आलोचना और न सही निष्कर्ष ही निकल सकते हैं। अगर राजनीतिक दलों की संरचना की यही सैद्धांतिकी है तो इस देश में इस समय सक्रिय तमाम छोटे-बड़े क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दलों की कार्यप्रणाली पर नजर डाल लीजिए। ऐसे तत्व अफजल गुरु की फांसी के कथित कातिलों को मारना चाहते हैं। वे शर्मिन्दा हैं कि अफजल के कातिल जिन्दा हैं। क्या हम भी जवाबी नारे लगा सकते हैं। नहीं ! हम ऐसे जवाबी नारे नहीं लगा सकते। हम सांस्कृतिक और संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकते। ज्यादा आजादी की बात करने वाले वाल्तेयर को उद्धृत करते हुए कहते हैं कि ‘उन्होंने कहा था,तुम जो कहते हो उसे मैं बिल्कुल पसंद नहीं करता, लेकिन तुम जो कहते हो, उसे कहते रह सको इसके लिए मैं अपनी जान भी दे सकता हूं।’ यही नहीं , सन 1831 में इसी बंगाल में हिंदू कॉलेज (अब प्रेसिडेंसी कॉलेज और प्रेसिडेंसी यूनिवर्सिटी) के प्रोफेसर हेनरी लुई विवियन डेरोजियो ने अपने छात्रों सिखाया कि ‘ज्ञान के लिए हमेशा जुटे रहो। उन्होंने छात्रों को बताया कि , युवा बंगाल खुद के बारे में लगातार सोचे।’ इतिहास गवाह है कि इसी पीढ़ी ने सबसे पहले आजादी की लौ जगायी थी। लेकिन सोचें कि उसी आजाद भारत में बोलते रहने के हक को कायम रखने के लिए जो कुछ किया जा रहा है वह क्या सचमुच इस समाज के लिए जायज है। जिन्हें हम भारतीय लोकतंत्र का खंभा कहते हैं, वहां अभिव्यक्ति की आजादी का असली चेहरा क्या है। पहले विधायिका की बात कर लें, उस विधायिका की जिसकी जड़ में राजनीतिक दल होते हैं। हमें पढ़ाया गया है कि एक लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक दलों की संरचना विचारधारात्मक आधार पर होती है यानी अपने देश समाज की आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक आदि परिस्थितियों की समझ और उन्हें आम जनता के हितों के अनुरूप ढालने-बदलने की वैचारिकता के आधार पर। और यह वैचारिकता तैयार होती है विचारों के आदान-प्रदान से जिसमें किसी दल से जुड़े हुए लोगों को उपलब्ध विचार व्यक्त करने की आजादी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि बिना इस आजादी के विचारों की निष्पक्ष और निर्भीक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। चाणक्य के अनुसार किसी भी दल या विचारधारा या राज के प्रति प्रतिबद्धता के फलस्वरूप न निष्पक्ष प्रशंसा हो सकती है, न निष्पक्ष आलोचना और न सही निष्कर्ष ही निकल सकते हैं। अगर यह सही है तो क्या कन्हैया जिस आजादी की बात कर रहा है वह सही है? हर जाति के पास अपने असली-नकली महापुरुष हैं। आप इनमें से किसी भी महापुरुष को इतिहास और तर्क की कसौटी पर कसकर दिखा दीजिए? और जहां तक परिवारों में अभिव्यक्ति की आजादी का प्रश्न है, तो आज भी अपनी भिन्न राय रखने वाले लड़के-लड़कियों को उनके प्यार की आजादी की सजा पारिवारिक उत्पीड़न से लेकर मान-हत्या तक निर्धारित हो सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत के समूचे लोकतांत्रिक ढांचे में वह आजादी नहीं है, जिसे अभिव्यक्ति की आजादी कहते हैं, वह आजादी जरूर है जिसे हिसाब-किताबी अभिव्यक्ति कहते हैं। हम दूसरों को नीचा दिखाने के लिए, अपने सत्ता केंद्र को बचाने के लिए या दूसरे के सत्ता केंद्र को ध्वस्त करने के लिए अभिव्यक्ति की राजनीतिक आजादी चाहते हैं, लेकिन वह भारतीय समाज जो हर कदम पर अभिव्यक्ति की आजादी का विरोधी है, उसे बदलने की कोई मुहिम नहीं चलाना चाहता। जिन जड़ताओं के विरुद्ध सर्वाधिक अभिव्यक्ति की जरूरत है, उनके विरुद्ध मुंह नहीं खोलना चाहते और जब मुंह खोलते हैं, तो कुछ इस तरह पुरानी खाइयां और गहरी हो जाती हैं, और शत्रुताएं और अधिक पक जाती हैं। वाल्तेयर ने एक मूल्य के तौर पर अभिव्यक्ति की जिस आजादी की बात कही थी, वह एक बहुत ही सभ्य, उदात्त, बौद्धिक और वैचारिक तौर पर अग्रणी तथा आधुनिकतावादी जीवन मूल्यों से संचालित समाज में संभव हो सकता है, भारत जैसे विभाजित समाज में नहीं। यहीं आकर हम फिर अटक जाते हैं कि सचमुच भारत में अाजादी की अभिव्यक्ति सच है या मिथक।
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Saturday, March 19, 2016
विद्रोह -देशद्रोह : क्रिकेट बन गया है कसौटी
कोलकाता में 19 फरवरी 2016 को भारत - पाक क्रिकेट मैच के सन्दर्भ में ------------------------+
इन दिनों बड़े मुश्किल हालात हैं। कोई भी आदमी प्रतिद्वंद्वी क्रिकेट टीम के खेल या उसके किसी खिलाड़ी पर जोर से तालियां भी नहीं बजा सकता और अगर कोई ऐसा करता है तो डर है कि कहीं उसपर ढेर सारे इल्जाम ना थोप दिये जाएं। फर्ज करें कि हमारा मशहूर क्रिकेटर विराट कोहली पाकिस्तान गया हुआ है और वहां उससे मीडिया ने पूछा कि आपको पाकिस्तान कैसा लगा? उसने सौजन्यतावश कह दिया कि ‘यह बड़ा प्यारा मुल्क है।’ यहां इससे भी आगे जा कर कह सकते हैं कि ‘यहां के लोग बड़े प्यारे हैं और हमें यहां अपने मुल्क से ज्यादा मुहब्बत मिलती है।’ क्या आप पर देश द्रोह या विद्रोह का मामला दायर हो सकता है? लेकिन पाकिस्तान में कुछ ऐसा ही हुआ है। हालांकि स्पष्ट तौर पर यह पी आर या कहें जनसम्पर्क का जुमला है। आप कह सकते हैं कि पाकिस्तान में ऐसा हो सकता है। बेशक यह पाकिस्तान में हुआ है पर इस बात की क्या गारंटी है कि भारत में ऐसा नहीं होगा। सोचिये कि एशिया कप के दौरान मेरठ में पाकिस्तान के खिलाड़ी शाहिद अफरीदी के खेल की प्रशंसा करने वाले कई छात्रों पर देशद्रोह का मामला होते - होते बचा। इसके अलावा कई ऐसे भी मिलेंगे जिन्होंने इस अवसर पर चिल्लाया हो कि ‘इन्हें पाकिस्तान भेज दो।’ यह कई लोगों के साथ होता है। बॉलीवुड अभिनेता आमिर खान और शाहरुख खान ने भी ऐसे कई वाकयों को झेला है। इसके विपरीत पाकिस्तान के बेशक शाहिद अफरीदी द्वारा भारत की प्रशंसा करने पर देशद्रोह का आरोप मढ़ा गया , पूर्व क्रिकेटर जावेद मियांदाद दु:खी हो सकते हैं पर शायद कभी भी यह नहीं कहा गया कि इसे ‘भारत भेज दो।’ ऐसे मामलों में पाकिस्तान में आंतरिक असुरक्षा का भाव बेशक भारत में हंसी का कारण बन जाता हो पर वह भी भारत की अपनी असुरक्षा के बोध के कारण। जार्ज ऑरवेल का वह मशहूर जुमला बहुतों को याद होगा कि ‘दुनिया की सभी कलाएं एक प्रोपगैंडा है और सभी खेल सियासत।’ हालांकि यह सोचना भी कठिन है कि ऑस्ट्रेलियाई कप्तान अगर न्यूजीलैंड पहुंचे और यह कहें कि यहां हमारे चहेतों की संख्या ऑस्ट्रेलिया से ज्यादा है और लोग उसकी निंदा कर रहे हों। इसलिये यह कहा जा सकता है कि ऐसे मामले केवल एशिया में ही देखे- सुने जाते हैं। नाक कटने जैसी बात यहां अक्सर की जाती है, कई बार तो यह खेल के साथ जुड़ी होती है। मैच में हार जाने का मतलब नाक कटवा देना। अक्सर यह राष्ट्रीय अपराध भी हो जाता है। कई बार तो प्रतिद्वंद्वी दलों की प्रशंसा करने पर या उसके खिलाड़ी की प्रशंसा करने पर नाक कटने की बात हो जाती है। शुरू में इमरान खान इससे वाकिफ थे और वे कहते थे कि उनके बल्लेबाज बासित अली सचिन तेंदुलकर से बेहतर बल्लेबाज हैं। वसीम अकरम भारतीय टेलीविजन चैनल्स के बार बार आमंत्रण से काफी घुलमिल गये। उन्होंने यह गलत नहीं कहा कि महारत किसी सरहद की मोहताज नहीं होती। बस यही बात तो वहां लोगों को नागवार लगी और उनकी छीछालेदर शुरू हो गयी। शाहिद अफरीदी को ‘देशद्रोह करने' और पाकिस्तानियों की ‘भावानाओं को ठेस पहुंचाने' के लिए अदालत में कार्रवाई का सामना करना पड़ा। एक वरिष्ठ वकील ने विश्व टी20 टूर्नामेंट से पहले भारत में बयान देने के लिए पाकिस्तान क्रिकेट टीम के कप्तान को कानूनी नोटिस भेजी थी। वहां कहा गया कि ‘‘अफरीदी ने पाकिस्तान से अधिक भारत के लिए प्यार दिखाकर पूरे पाकिस्तान देश को निराश किया है। उन्होंने देशद्रोह किया है। अब कौन सुनिश्चित करेगा कि पाकिस्तान टीम टी20 मैच में कोलकाता में भारत के खिलाफ जीतने के लिए खेलेगी।''यहां यह बात समझ में नहीं आती कि क्यों अगर खेलप्रेमी खेल के उत्साह में कुछ बोल जाते हैं तो उसके प्रति सरकारों को क्यों सिरदर्द होने लगता है। यह तो उत्तेजना के तहत की गयी बात थी। दरअसल भारत- पाकिस्तान का मैच खेल से ज्यादा सियासत भरा हो गया है। ऐसे में यह सोचना बड़ा अजीब लगता है कि खेल राष्ट्रप्रेम की कसौटी कबसे बन गया।
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Thursday, March 17, 2016
रोज बिगड़ती सियासत की भाषा
कोई शक नहीं है कि हाल के समय में राजनीतिक बहस का स्तर लगातार गिरता जा रहा है और अधिकतर बहस एक दूसरे की आलोचना के स्थान पर अपशब्दों पर केंद्रित होकर रह गई हैं। असंसदीय भाषा और भावों का प्रयोग इतना आम हो गया है कि इस बात में अंतर करना काफी मुश्किल हो गया है कि क्या संसदीय है और क्या नहीं। इसे एक प्रकार से राजनीति का ‘मानसिक दिवालियापन’ कहा जा सकता है। जिस प्रकार अपराधी छवि कि लोग निरंतर राजनीति में आ रहे हैं और विभिन्न सरकारों और राजनीतिक दलों में महत्वपूर्ण स्थान पा रहे हैं उसके बाद ऐसा होना कोई अप्रत्याशित नहीं है। संभ्रातवादी स्पष्टीकरण के रूप में इसे ‘‘हमारी राजनीति के अधीनस्थीकरण’’ का प्रतिफल कह सकते हैं और साथ ही इसका सीधा संबंध ‘‘मुख्यधारा की राजनीति के क्षेत्रीयकरण’’ से भी जोड़ा जा सकता है। आजकल राजनीतिक विरोधियों और दूसरी विचारधारा के लोगों के खिलाफ गुस्सा और उनसे अलग मत जाहिर करने के लिए 'भाषाई अनुदारवाद' का बेरोक–टोक इस्तेमाल हो रहा है।
लेकिन कोई भी दल या समाज इस पर चिंता जाहिर नहीं करना चाहता है। यह काफी चौंकाने और परेशान करने वाली बात है। ताजा मामला दिल्ली का है। जे एन यू के कन्हैया ने मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ जिन जुमलों का उपयोग किया क्या वे शोभनीय थे? क्या वैसी ही अमर्यादित भाषा को एक सम्प्रभु राष्ट्र के प्रधानमंत्री के प्रति उपयोग सही है? यही नहीं पिछले दिनों शायद 16 फरवरी को दिल्ली में सत्तारूढ़ दल आम आदमी पार्टी के विधायक अमानतुल्लाह खान ने देश की लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल किया, उसे सभ्य समाज की अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार करने पर बहस छिड़ गई है। आरोप है कि एक सभा में विधायक ने नरेंद्र मोदी सरकार के लिए आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल किया। मौजूदा राजनीति में असहमति ज़ाहिर करने के मामले में 'भाषाई हिंसा' का न सिर्फ व्यापक और बेखौफ इस्तेमाल हो रहा है, बल्कि उसका लगातार विस्तार भी हो रहा है। केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद में 24 फरवरी को दिए गए अपने भाषण में जिस पर्चे का उल्लेख किया था क्या वह उल्लेखनीय था। हाल ही में केंद्रीय मंत्री रामशंकर कठेरिया का पिछले दिनों आगरा में दिया गया भाषण भी विवादों में है। नागरिकों के मूलभूत और लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गए थे। पूरे राष्ट्र पर एक व्यक्ति की ‘तानाशाही’ थोप दी गई थी। लेकिन तब भी इंदिरा गांधी और उनकी सरकार के प्रति विपक्षी दलों, नेताओं और आम नागरिकों ने वैसी अमर्यादित भाषा का प्रयोग नहीं किया होगा जैसी आज अमूनन सभी पक्ष कर रहे हैं। राजनीतिक रूप से तीखे और कटु शब्दों और नारों का इस्तेमाल जरूर किया गया, तो ऐसा करना हालात के मुताबिक जरूरी भी था।हुत लोगों को अब भी अच्छी तरह याद होगा कि मोदी जी ने वर्ष 2007 के गुजरात चुनाव के दौरान सोनिया गांधी और तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त जे एम लिंगदोह के प्रति किस भाषा का प्रयोग किया था। यहां उसे दोहराना उचित नहीं होगा लेकिन यह भी सही है कि उसे किसी भी प्रकार से भद्र नहीं कहा जा सकता। तत्कालीन प्रधामंत्री मनमोहन सिंह को यशवंत सिन्हा द्वारा ‘शिखंडी’ कहना लोगों को याद होगा। शिखंडी का सीधा मतलब नपुंसक होता है। यशवंत सिन्हा वाजपेयी के मंत्रीमंडल में एक बहुत मजबूत कैबिनेट मंत्री थे।
जून 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के लगाए गए ‘आपातकाल’ के दौरान कोई डेढ़ साल तक समूचे विपक्ष को जेल में बंद कर दिया गया था। अब अरुण जेटली सहित बीजेपी के उच्च नेतृत्व को अरविंद केजरीवाल द्वारा प्रधानमंत्री के लिये प्रयोग किये गए एक शब्द से परेशानी है। यहां सिर्फ यह कहना उचित होगा कि केवल दूसरों को दोष देना और अपने गिरेबान में न झांकना ठीक नहीं है। वे जो उपदेश दे रहे हैं उसे वास्तविकता में अपनाया भी जाना चाहिये। आप इस मुद्दे को लेकर जागरुक है लेकिन फिर भी हममें से प्रत्येक को आत्मविश्लेषण कर सुधारात्मक कदम उठाने होंगे। यहां तक कि आप की स्थापना से बहुत पहले संसद ने सांसदों के व्यवहार के लिये दिशा-निर्देशों का मसौदा तैयार करने के उद्देश्य से एक आचार समिति का गठन किया था लेकिन इसे कभी भी गंभीरता से नहीं लिया गया। इसकी वजह बिल्कुल साफ है। यह ‘असहमति की जुबान’ को लेकर बढ़ते हुए उन खतरों की ओर इशारा करती है, जिनके प्रति हम या तो पूरी तरह से अनजान हैं या सच्चाई से नजरें चुरा रहे हैं। एक-दूसरे के विचारों के प्रति असहमति को ज्यादा से ज्यादा आक्रामक अंदाज में जहिर करने की कोशिशें पूरे देश में हो रही हैं। कुल मिलाकर अंत में मसला ये है कि लगातार आक्रामक और हिंसक होती भाषा के सवाल पर लोगों की सहमी हुई चुप्पी और देश को विकास के रास्ते पर ले जाने की कोशिशों में भागीदारी की अपेक्षा– क्या दोनों साथ-साथ चल सकते हैं?हकीकत यह भी है कि वे तमाम लोग जो अपने विरोधियों के प्रति असंयत, अभद्र और आक्रामक भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें अपने-अपने लोगों की ताकत पर पूरा भरोसा है। पर उन्हें देश की जनता के समर्थन पर शायद उतना भरोसा नहीं है। इसलिए क्या मान लिया जाए कि उन्हें देश की चिंता वैसी नहीं जैसी हम करना या देखना चाहते हैं?देश के बदलते हुए हालात में हम गलत भी हो सकते हैं कि इस तरह के सवाल खड़े कर रहे हैं और अकेले पड़ते जा रहे हैं।
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Tuesday, March 15, 2016
बदलाव के मौके और जरूरत
मोदी शानदार ढंग से सत्ता में आये और देश की हसरतों को थाम लिया। आप यह अंदाजा लगा पाये कि कल क्या होगा, इससे पहले अगला दिन आपकी गिरेबान पकड़ लेता है। बदलाव के अलावा आज किसी बात का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता है। हमारे अधैर्य से प्रेरित बदलाव। लंबे समय तक कोई सुरक्षित नहीं है, कुछ भी सुरक्षित नहीं है। अधीरता ही हमारे वक्त की लत है। हम लगातार और की मांग करते हैं, इसलिए नहीं कि हमें अधिक आवश्यकता है। हम ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि अधिक की मांग करना हमारी आनुवांशिकी में शामिल हो गया है। हर सीजन में शॉप विंडो में कोई नई चीज आ जाती है। नया उपभोक्तावाद हमारे अधैर्य पर ही पल रहा है जैसे कि नई राजनीति। अब कुछ भी हमें संतुष्ट नहीं करता। हम हमेशा किसी नए जुनून की तलाश में रहते हैं। कन्हैया हो या रोहित वेमुला हो, स्मृति ईरानी का भाषण हो या राहुल गांधी की स्पीच। हम हर वक्त अधीर रहते हैं। हमेशा कुछ ना कुछ बदलता रहता है। हमेशा बदलाव की जरूरत से हम ग्रस्त हैं। अधीरता तो नजर न आने वाली बारूदी सुरंग की तरह हो गई है। आप शायद सबसे खराब स्थिति के लिए तैयार होंगे। किताबें छोटी होती जा रही हैं। कोई ‘यूलिसिस’ जैसा मोटा उपन्यास पढ़ने को तैयार नहीं है। लियो टालस्टॉय का ‘वॉर एंड पीस’ तो फिलहाल आउट ऑफ प्रिंट हो गया है यानी छप ही नहीं रहा। अब ज्यादा लोग शास्त्रीय संगीत के सम्मेलनों में नहीं जाते। ऐसी बात नहीं है कि उन्हें अब किशोरी अमोणकर का गायन पसंद नहीं है, लेकिन शास्त्रीय संगीत रवानी में आने के लिए बहुत वक्त लेता है और इसके औपचारिक माहौल में यह सुविधा नहीं होती कि आप चाहे जब भीतर आ जाएं और चाहे जब उठकर चलते बनें। राजनीति में चतुर लोग अपने व्यक्तित्व की खासियत बरकरार रखकर शुरुआत करते हैं। वे एक बदलाव की उम्मीद दिखाते हैं। यही बात उन्हें तत्काल अाकर्षण का केंद्र बना देती है। उन्हें आगे ले जाती है, लेकिन इस रास्ते पर बने रहना इतना आसान नहीं है। परिस्थितियों से मजबूर होकर आखिरकार प्रतिद्वंद्वी एक-दूसरे के आसपास मंडराने लगते हैं। फिर वे एक-दूसरे जैसे दिखने लगते हैं। आप वही व्यक्ति हो जाते हैं, जिसे आप सबसे ज्यादा नापसंद करते थे। राजनेता यह कड़वी हकीकत स्वीकारने के बजाय मरना पसंद करेंगे। किंतु सच यही है कि कुछ समय बाद वे एक-दूसरे जैसे दिखने लगते हैं, बातचीत की शैली समान हो जाती है अौर व्यवहार भी। आर्थिक सुधारक नरेंद्र मोदी के लिए यह एकदम सही मौका था कि वे आगे बढ़कर पुरानी रूढ़ि को नई परिभाषा देते, नए विचार आजमाते, नई चुनौतियों का सामना करने का जोखिम लेते। उनके पास उस राष्ट्र पर शासन करने के तीन वर्ष ही बचे हैं, जो खुद को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में देखता है। इसके बजाय कि वे बीड़ा उठाकर दुनिया को बताते कि वे बदलाव को अपने तरीके संभव बना सकते हैं, उन्होंने उसी विचारधारा की नकल की, जिसकी उन्होंने इतनी खिल्ली उड़ाई, तिरस्कार किया। नतीजे में ऐसा बजट देखने को मिला है, जो दिखने, महसूस करने और सुनने में ठीक वैसा है, जैसा इतने वर्षों से हम देखते रहे हैं। मोदी जी बदलाव का मौका खो बैठे हैं और एक बार फिर हमें अहसास हो रहा है कि हम किसी को भी वोट दें, उनकी विचारधारा कोई भी क्यों न हो, परिणाम हमेशा समान ही होगा। सत्ता में वामपंथी हों या दक्षिणपंथी, चाहे कम्युनिस्ट शासन करें या जो खुद को राष्ट्रवादी कहते हैं- जैसे यह विचारधारा उनकी बपौती है- शासन करने की घिसी-पिटी बातें अक्षुण्ण बनी रहती हैं। हम वहीं अटके पड़े रहते हैं, जहां दशकों से हैं। भारत में शासन का एक ढर्रा है और जो भी सत्ता में आता है, खुद -ब-खुद इसे स्वीकार कर लेता है।
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