70 साल लम्बी सड़क
आज भगवान श्रीराम का जन्मदिन है। इसी दिवस के अवसर पर 70 वर्ष पूर्व 'सन्मार्ग' की स्थापना की गयी थी। उद्देश्य था भारतीय संस्कृति को बचाये रखना और उसके सुपथ पर लोगों को चलने के लिये प्रेरित करना।
अाज वैश्विकता ,यूरोपीय सभ्यता और बाजारवाद के निर्मम प्रहारों के बीच हमारे इतिहास के 70 वर्षों के सफर के बाद हमसे अक्सर पूछा जाता है कि भारतीय संस्कृति को बचाए रखना जरूरी क्यों है? खासकर ऐसी स्थिति में जब सम्प्रदायवाद , सेकुलरवाद जैसी धारणाएं समाज को अाहत कर रहीं हैं। इस प्रश्न के उत्तर पर विचार से पहले जरूरी है कि हम अतीत में झांकें तथा इस तथ्य की पड़ताल करें कि हमारे पूर्वजों ने अपने लक्ष्य किन सामाजिक स्थितियों में तय किये थे।हमारे पूर्वजों ने जब सन्मार्ग की स्थापना की थी देश विभाजन का दंश झेल रहा था।बटवारे का वह दंश एक अनैतिक , अस्वाभाविक प्रक्रिया का अनिवार्य परिणाम था जिसके घातक परिणामों का अंदाजा केवल गांधी को था और सन्मार्ग की स्थापना करने वाले हमारे मनीषियों को महज अाशंका थी। इसके अलावा उन परिणामों के बारे में ना कांग्रेस पार्टी को या मुस्लिम लीग को या ब्रिटिश सरकार को कुछ अंदाजा था। जब ऐसी अस्वाभाविक प्रक्रिया होती है तो निहित स्वार्थी तत्व अाम अादमी को उसके सहज स्वभाव से हटा कर एक छद्म लक्ष्य की ओर मोड़ देते हैं। सन्मार्ग की स्थापना उस काल में उस छद्म लक्ष्य की अोर बढ़ रहे समाज की दिशा बदल कर रचनात्मक यथार्थ की अोर ले जाने के उद्देश्य से की गयी थी। इसके लिये जो लक्ष्य तय किये गये थे वे थे - चिंतन, कर्म और व्यवस्था को उन्हीं जातीय मर्यादाओं से जोड़ना जो दो सौ वर्षों के अंग्रेजी शासन काल में भ्रष्ट और दूषित हो चुकी थीं।आपने कभी गौर किया है सन्मार्ग के इन तीन पहलुओं पर। ये तीन डायमेंशंस हैं नैतिकता के और मर्यादा के। वैसे यह जानना दिलचस्प होगा कि इस ब्रह्मांड के भी तीन ही डायमेंशन होते हैं। हां तो चर्चा हो रही थी सन्मार्ग के लक्ष्य के पहलुअों की। तो, पहला है इसका नाम सन्मार्ग।इस शब्द का अर्थ शायद बहुत कम लोग जानते हैं। जो जानने का दावा करते भी हैं उनमें से अधिकांश कहते हैं सत्य का मार्ग या सत्य की ओर जाने वाला मार्ग। लेकिन नहीं यह सत्य नहीं " सत्" है।दरअसल , सत्य एक अवस्था है जो देश , काल और स्थिति के अनुसार बदलता है। जैसे पानी, बर्फ और वाष्प तीनों सत्य हैं। तीनों का अपना अस्तित्व है,गुण-धर्म है। जबकि उसके मूलभूत तत्व हर स्थिति में एक ही रहते हैं। वही सत् है जो सच्चिदानन्द का सृजन करता। सन्मार्ग का अर्थ उसी सत् का मार्ग है जो देश काल और स्थिति के दबाव में बदलेगा नहीं। यही हमारा चिंतन है।
दूसरा है कर्म। जब सन्मार्ग की स्थापना हुई उस समय गांधी शलाका पुरुष थे और भगवद्गीता उनकी मार्ग दर्शक थी,पर हमारे पूर्वजों ने गीता को नहीं अपनाया क्योंकि उसके कर्म संदेश में अनासक्ति है। हमारे पूर्वजों ने हनुमत प्रयास के मंत्र को माथे से लगाया -" नमोस्तु रामाय स लक्षमणाय••• " इस मंत्र में संधान की जिद है। लक्ष्य को पाकर ही रहने की जिजीविषा है। वह लक्ष्य है भगवती सीता का संधान।
इसका तीसरा तत्व या डायमेंशन है व्यवस्था। जिसके लिये हमारे पूर्वज मनीषियों ने स्पष्ट कहा, " सन्मार्ग एव सर्वत्र पूज्यते…" यानी वही व्यवस्था आदर पा सकती है जो सत् के मार्ग पर चले। मर्यादा के यही तीन डायमेंशंस हैं। इन्हीं डायमेंशंस ने राम को पुरुषोत्तम बनाया।
राम भारतीय अस्मिता और संस्कृति के प्रतीक पुरुष हैं इसीलिए सन्मार्ग की स्थापना के लिये राम जन्म के पवित्र दिवस का चयन किया गया।
अब मूल प्रश्न पर विचार करें।
हमसे अक्सर पूछा जाता है कि भारतीय संस्कृति को बचाना जरूरी क्यों है?आजादी के बाद हमारी अध्यात्मिक अवस्था और व्यावहारिक कार्य प्रणाली को आज की हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं, व्यवस्था और शिक्षण प्रणाली ने दूषित कर दिया। यह स्वयं में एक भयावह दुर्घटना थी। हमें एक निर्ममआत्मविश्लेषण करना होगा। इसकी शुरुआत एक सपाट प्रश्न से की जा सकती है कि क्या एक भारतीय होने के नाते हमारे भीतर अपने देश से कोई लगाव बाकी रह गया है?बार- बार सोचने पर एक ही उत्तर मिलता है- नहीं। क्योंकि अब तक हम यह साहस नहीं जुटा पाये कि पश्चिमी बौद्धिक दासता से मुक्त होकर सोच- समझ के अपने औजार विकसित कर सकें और युवा पीढ़ी को अपनी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मनीषा के अनुरूप दीक्षित कर सकें।
यहां यह बता देना प्रासंगिक होगा कि यूरोपीय चिन्तनधारा ने संस्कृति और सभ्यता में कन्फ्यूजन पैदा कर दिया है।
एक तरफ जहां संस्कृति को धर्म संस्थानों से जोड़ दिया गया वहीं सभ्यता को बाह्य आवरण से। ब्रिटिश शासकों को मालूम था कि एक हिन्दू जब धर्म के अादर्शों से गिरता तो केवल आत्मरिक्त होता है क्योंकि उसका धर्म उसके आत्मन् में होता है। दूसरों की तरह वह धर्म प्रतिष्ठानों से नियंत्रित - निर्देशित नहीं होता। आज भारत में यानी एक भगौलिक क्षेत्र में हजारों साल से जो एक साथ बहुसंख्यक और सैकडों अल्पसंख्यक समुदाय रहते अाये हैं और उन्होने भारतीय सभ्यता को अमीर और दीर्घजीवी वनाया है उसके मूल में भारत की संस्कृति ही है। इसलिये इसे बचाये रखना जरूरी है।
अब सवाल उठता है कि हमने वह लक्ष्य कहां तक पूरा किया? यहां यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि यह प्रतिज्ञा केवल व्यापक सभ्यता बोध के भीतर ही पूरी हो सकती है। भारत की भौगोलिक एकता केवल ऐसे परम्पराबोध में ही अर्थवान हो सकी है, जहां अनेक संस्कृतियां और धर्म-सम्प्रदाय सदियों से एक दूसरे से प्रेरणा पाते रहे हैं। दुनिया में भारत ही एक ऐसा देश है जिसकी राष्टीय अस्मिता दूसरों के विनाश से नहीं अपनी सभ्यता के विविध चरित्र से बनी है। हमसे70 बरस लम्बी सड़क के अाखिरी छोर पर खड़ा होकर सन्मार्ग पीछे की तरफ देखता है तो
चप्पे-चप्पे पर हमारे सुधी पाठकों, विज्ञापनदाताओं और हितैषियों की मौजूदगी दिखायी पड़ती है। हम आज भी उनके आभारी हैं।
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