इन दिनों जैसे कि संकेत मिल रहे हैं उससे कयास लगाया जा सकता है कि अगले लोकसभा चुनाव तक या बुत हुआ तो 2019 तक हमारा देश ‘मंडल’ की धुरी पर एक नवीन समाज व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है। 90 के दशक में जब सियासत के जोर पर समाज का मंडलीकरण किया गया था तब अदालत ने 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था दी थी। उस समय यह अनुमान लगाया गया था कि अगर समाज में अन्य पिछड़ा वर्ग की आबादी बढ़ेगी तो यह इसी 50 प्रतिशत में शामिल कर ली जायेगी और उनकी आबदी बहुत कम बढ़ेगी या धीरे- धीरे बढ़ेगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं आबादी बहुत तेज रफ्तार से बढ़ी। इतना ही नहीं, आर्थिक ौर पर यह सोचा गया था कि इस बीच निजी क्षेत्र में तेज विकास होगा और उसमें अच्छी नौकरियां पनपेंगी जिससे ज्यादातर लोग वहां चले चले जायेंगे। ऐसा भी नहीं हुऔर सारा बोझ सार्वजनिक क्षेत्र पर आ गया। अब जो लक्षण दिख रहे हैं उससे साफ लगता है कि ‘सामाजिक न्याय’ का एक नया मोर्चा खोले जाने का सियासी प्रयास आरंभ होगा। अगर नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव की कोई महात्वाकांक्षा है तो यह उसे पूरा करने का एक ताकतवर जरिया होगा। बिहार में शराब बंदी इस ओर उठाये जाने वाले कदम का संकेत ही नहीं है बल्कि उनकी सियासत को राज्यकी सीमा से बाहर ले जाने का एक तरीका भी है। आप देखेंगे कि बहुत जल्दी तीन सूत्री मांग को हवा दी जायेगी। वे हैं पहली, जनगणना के जाति आधारित आंकड़े सार्वजनिक किये जाएं। यह यह आरक्षण के लिये माहौल तैयार करने की भूमिका होगी। दूसरी मांग होगी कि, आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा को बढ़ाया जाय या राज्यों को अधिकार दिया जाय कि वे इसमें संशोधन कर लें। तीसरी मांग होगी कि कानूनी आधार पर निजी क्षेत्र को आरक्षण लागू करने के लिये बाध्य किया जाय। बिहार से लेकर तमिलनाडु में विभिन्न राज्यों में राजनीतिक गोष्ठियों में और चुनाव घोषणापत्रों में मंडलीकरण में संशोधन की बातें चल रहीं हैं, यह बत दूसरी है कि अभी खुल कर कुछ नही कहा जा रहा है। मंडल संतुलन पर तो सवाल भी उठने लगे हैं। हरियाणा में जाटों का आंदोलन और गुजरात में पटेलों का बवाल इसी प्रश्न का संकेत है। इन ताकतवर जाति समूहों को अगर आरक्षण मिलता है तो यह मान कर चलें कि और कई समूह उभरेंगे तथा मंडल के संतुलन की सीमा बढ़ानी होगी। इससे इससे कई नये समूहों को लाभ मिलेगा और हो सकता है कई लाभ पाने वाले समूह इससे वंचित हो जाएं। सामाजिक न्याय की एक विचित्र कीमियाकीमियागीरी है कि इसमें पिछड़ेपन का आकलन नहीं होता बल्कि जातियों और वर्गों पर विचार होता है।
महात्मा गांधी ने ‘हरिजन’ के 12 दिसंबर 1936 के संस्करण में लिखा कि धर्म के आधार पर दलित समाज को आरक्षण देना अनुचित होगा। आरक्षण का धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है और सरकारी मदद केवल उसी को मिलनी चाहिए कि जो सामाजिक स्तर पर पिछड़ा हुआ हो। इसी तरह 26 मई 1949 को जब पंडित
जवाहर लाल नेहरू कांस्टिट्वेंट असेंबली में भाषण दे रहे थे तो उन्होंने जोर देकर कहा था कि यदि हम किसी अल्पसंख्यक वर्ग को आरक्षण देंगे तो उससे समाज का संतुलन बिगड़ेगा। ऐसा आरक्षण देने से भाई-भाई के बीच दरार पैदा हो जाएगी। आरक्षण के मुद्दे पर बनी कमिटी की रिपोर्ट के आधार पर। 22 दिसंबर, 1949 को जब धारा 292 और 294 के तहत
मतदान कराया गया था तो उस वक्त सात में से पांच वोट आरक्षण के खिलाफ पड़े थे। मौलाना आजाद, मौलाना हिफ्ज-उर-रहमान, बेगम एजाज रसूल, तजम्मुल हुसैन और हुसैनभाई लालजी ने आरक्षण के विरोध में वोट डाला था।
भारतीय संविधान ने जो आरक्षण की व्यव्यस्था उत्पत्ति काल में दी थी उसका एक मात्र उद्देश्य कमजोर और दबे कुचले लोगों के जीवन स्तर की ऊपर उठाना था। लेकिन देश के राजनेताओं की सोच अंग्रेजों की सोच से भी ज्यादा गन्दी निकली।
आरक्षण का समय समाप्त होने के बाद भी अपनी व्यक्तिगत कुंठा को तृप्त करने के लिए वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें न सिर्फ अपनी मर्जी से करवाई बल्कि उन्हें लागू भी किया। उस समय सारे सवर्ण छात्रों ने विधान-सभा और संसद के सामने आत्मदाह किये थे। नैनी जेल में न जाने कितने ही छात्रों को कैद करके यातनाएं दी गई थी। कितनों का कोई अता-पता ही नहीं चला। तब से लेकर आज तक एक ऐसी व्यवस्था कायम कर दी गई कि ऊंची जातियों के कमजोर हों या मेधावी सभी विद्यार्थी और नवयुवक इसे ढोने के लिए विवश हैं।
1953 में तो कालेलकर आयोग की रिपोर्ट में एक नया वर्ग उभरकर सामने आया यानी अो बी सी। इसने भी कोढ़ में खाज का काम किया। बिना परिश्रम किये सफलता पाने के सपनों में कुछ और लोग भी जुड़ गये। साल 2006 में तो शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण इस कदर बढा कि वह 95% के नजदीक ही पहुंच गया था। 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी वित्तपोषित संस्थानों में 27% ओबीसी कोटा शुरू करने के लिए सरकारी कदम को सही ठहराया पर सम्पन्न तबके को इससे बहर रखने को कहा ।
आज संविधान को लागू हुए 65 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं और दलितों का आरक्षण भी 10 वर्षों से बढ़कर 65 वर्ष पूर्ण कर चुका है किन्तु क्या दलित समाज स्वावलंबी बन पाया?
मुश्किल यह है कि हमारा समाज बहुत ज्यादा बदल चुका है और उस बदलाव को आंकने के लिये कुछ जरूरी आंकड़ों की जरूरत है। हमारे राजनीतिज्ञों ने तो यह फैलाया है कि आंकड़े केवल पारदर्शी प्रशासन के लिये ही होते हैं। यह एक तरह का धोखा है। सारी बहस सतही है , सर्वसत्य नहीं है। सबसे पहली बात कि पिछड़ापन है क्या? क्या हम जो मीजान दलितों के लिये इस्तेमाल करते हैं वही पैमाना अन्य पिछड़ी जातियों के लिये करेंगे। क्या यह सही है कि सारी पिछड़ी जातियां गरीब हैं और सारी अगड़ी जातियां अमीर। फिर ऐसा विनिर्माण क्यों? इसके लिये आर्थिक और रोजगार के आंकड़े जरूरी हैं। लेकिन क्या यह नये सियासी समीकरणों को हवा नहीं देगा। वैसे कई राजनीतिक हलकों में यह भी कहते सुना जा रहा है कि 50 प्रतिशत की सीमा नहीं बढ़ायी जानी चाहिये। यही नहीं अगर आप अपने आस पास के समाज का विश्लेषण करें तो पायेंगे कि समाज से और राजनीति में जातियां निस्तेज होती जा रहीं हैं। लेकिन यदि पार्टियों की बनावट और संगठन के बनावट का विश्लेषण करें तो यह स्पष्ट दिखता है कि विभिन्न जातियों की उसमें पैठ है और आनुपातिक संरचना है। ये राजनीतिक नेता कभी नहीं चाहेंगे कि सामाजिक न्याय का नया पैराडाइम तैयार हो और पूरी व्यवस्था पुराने पैराडाइम से नये में शिफ्ट कर जाय। राजनीति हमेशा समूह आधारित होती है और अगर आर्थिक विकास होता है तो सैद्धांतिक तौर पर आरक्षण के सोच में बदलाव हो सकता है, पर क्या ये नेता ऐसा करने देंगे। अभी जो संकेत मिल रहे हैं उनसे लगता है एक बार फिर मंडलीकरण की हवा उठेगी और यह हवा भारतीय राजनीति की महत्वपूर्ण धुरी होगी।
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