कभी सोचा है कि जल के लिये जंग हो सकती है
विगत एक पखवाड़े में दो बार भूकंप के झटके लगे और देश के पूर्वी भाग में भूकंप आया भी। जल संकट बढ़ता जा रहा है। गर्मी या कहें मौसम में ताप प्रचंड होता जा रहा है। पीने के पानी का अभाव तेजी से हो रहा है आहैर आने वाले दिनों में भारी जल संकट का खतरा नजर आ रहा है। हम भारतवासी हजारों बरस से पृथ्वी को माता कहते रहे हैं और स्वयं को पृथ्वी का पुत्र-‘माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्या:।’ क्षिति, जल, पावक और गगन समीर में हमारी लोलुपता का प्रदूषण है। पृथ्वी का ताप लगातार बढ़ा है। राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियां भी बढ़ी हैं, लेकिन पृथ्वी का ताप-उत्ताप नहीं घटा। पृथ्वी माता आहत हैं, पीड़ित, व्यथित और हताश हैं। तुलसी ने लिखा है ‘अतिशय देखि धर्म कै ग्लानी/परमसमीत धरा अकुलानी। ’ धर्म, न्याय ,सत्य और लोकहित विरोधी आचरण को देखकर पृथ्वी डरी और आकुल व्याकुल हो गई। व्याकुल पृथ्वी तुलसी के अनुसार देवों से निज संताप सुनाइस रोई। नदियों के बहाव वाले क्षेत्रों में हम भवन बनाते हैं। हम जल संपदा तहस-नहस करते हैं। वैदिक ऋषि पर्यावरण तत्वों के जानकार थे। उन्होंने वायु को पिता, भाई और मित्र बताया था। ऋषियों ने वायु की स्तुतियां की थीं। ऋग्वेद के दसवें मण्डल में पृथ्वी रक्षा के लिए वायु, जल, वनस्पति, नदी, वन, पर्वत की सुरक्षा की स्तुतियां हैं। एक मंत्र में कहा गया है कि पृथ्वी माता दुखी न हों। हमें कष्ट न दें – मां नो माता पृथ्वी दुरमतो धात। आज बढ़ते जल संकट का मुख्य कारण यही है। सुनकर हैरत हो सकती है कि विगत साठ वर्षों में जल की उपलब्धता 70 प्रतिशत कम हुई है। इसका कारण है तेजी से बढ़ती आबादी , जल स्रोतों का शोषण एवं जल स्रोतों की बरबादी। नेशनल कमीशन फार इंटीग्रटेड वाटर रिसोर्सेज डेवलपमेंट की एक रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक हमें 1545 अरब घनमीटर पानी की जरूरत पड़ेगी जो फिलहाल 843 अरब घन मीटर है। यह मात्रा स्वंय कहानी कहती है कि क्या हालात होने वाले हैं। दरअसल, आज मानवजन की अज्ञानता ने हमें इस मुहाने पर ला खड़ा किया है कि अब यह समझ में नहीं आ रहा कि इसमें सुधार की शुरुआत किस तरीके से हो?पर्यावरण के साथ हमारा शाश्वत रिश्ता रहा है। जीवन और पर्यावरण एक दूसरे के पूरक हैं। पर्यावरण के बगैर जीवन नामुमकिन है। शुद्ध पानी, पृवी, हवा हमारे स्वस्थ जीवन की प्राथमिक शत्रे हैं। सहअस्तित्व का ऐसा उदाहरण दूसरा कोई नहीं है। आखिर यह संकट हमारे बीच के रिश्तों में आए असंतुलन का कुपरिणाम ही तो है। संजीदा से इस अमूल्य धरोहर को संजोने के बजाय सरकारी-गैरसरकारी तरह-तरह के आयोजन होते हैं। हम धरती और पर्यावरण को बचाने का संकल्प लेते हैं। इसमें तीन बातें बेहद महत्त्वपूर्ण हैं। पहली, यह कि प्राकृतिक आपदा को कम करना। दूसरा, मेगासिटी पर बढ़ते दबाव को कम करने के बारे में विचार करना। हम स्मार्ट सिटी की तो बात करते हैं, लेकिन स्मार्ट विलेज को क्यों नहीं तरजीह देते हैं? साथ ही स्मार्ट कृषि को बढ़ावा देने की जरूरत है। एक बात तो स्पष्ट है कि अगर हम ग्रामीण इलाकों को विकसित करेंगे तो बड़े शहरों और महानगर पर बेवजह का पड़ने वाला दबाव कम होता जाएगा। तीसरा और अहम तथ्य यह कि हमें जीविका के वैकल्पिक साधन विकसित करने होंगे।जो लोग आशंका जताते हैं कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा वे गलत नहीं हैं। इसके भ्रूण दुनिया भर में अलग-अलग जगहों पर पैदा होने लगे हैं। जल-बंटवारे को लेकर भारत-पाक और भारत-बंगलादेश के बीच की तनातनी सुलझने का नाम नहीं ले रही। पिछले दिनों देश के भीतर ही पंजाब और हरियाणा में सतलुज-यमुना लिंक नहर को लेकर जीवित हो उठे विवाद के बाद सर्वोच्च न्यायालय को बीचबचाव करना पड़ा था। यानी पानी को लेकर देश के प्रदेशों में ही युद्ध की स्थिति निर्मित हो गई है! केरल हाईकोर्ट ने वर्ष 1990 में और बाम्बे हाई कोर्ट ने 2014 में साफ पानी को नागरिकों का हक बताया था। लेकिन साफ पानी तो दूर कई राज्यों में लोगों को बूंद-बूंद पानी को तरसना पड़ रहा है। दूसरी तरफ ऐसे लोगों की कमी भी नहीं है जो पानी को मुफ्त का माल समझकर बंगलों, निजी बगीचों, होटलों और कारखानों में बेरहमी से बहाते हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस वर्ष देश के 91 प्रमुख जलस्रोतों में मार्च के अंत तक सिर्फ इतना पानी पाया गया है कि वह मात्र 6 महीने ही चल सकता है। अगर बारिश ठीक से नहीं हुई तो एक बूंद पानी नहीं बचेगा। यूनेस्को की एक रपट के अनुसार विश्व में करीब 2.8 अरब रोजगार पानी पर निर्भर हैं। कृषि, मत्स्य-पालन और ऊर्जा उत्पादन जैसे कारोबार शत प्रतिशत पानी पर निर्भर हैं। अगर पानी न मिले तो दुनिया से 1.6 अरब रोजगार पल झपकते ही गायब हो जाएंगे। विश्व के औद्योगिक रोज़गार में फार्मा इंडस्ट्रीज, फूड प्रोसेसिंग, टेक्सटाइल्स और चमड़ा उद्योगों के पानी के बिना चलने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। कागज निर्माण, भवन निर्माण, रबर और प्लास्टिक उद्योग की सांस भी पानी से ही चलती है। अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्था ने आशंका जताई है कि अगर पानी की कमी इसी तरह बनी रही तो पूरे विश्व का सकल घरेलू उत्पाद 45प्रतिशत तक घट सकता है। ऐसे में गरीबी की कल्पना करना भी भयावह है। मनुष्य के विवेकहीन कृत्यों और पानी के लापरवाह उपयोग ने भारत ही नहीं दुनिया भर का जल-संकट बढ़ा दिया है। मानसून की लुका-छिपी के चलते प्रति वर्ष जनवरी के बाद से ही देश के अधिकांश शहरों में पानी कटौती आम बात हो गई है। आज देश के 10 करोड़ घरों में पीने के पानी का अभाव है। बच्चे दूषित पानी पीने को मजबूर हैं। भारत में प्रतिवर्ष लाखों बच्चे दूषित पानी पीने से होने वाली बीमारियों के चलते काल के गाल में समा जाते हैं। इधर अप्रैल चल रहा है इसके बाद मई, जून में जैसे-जैसे गर्मी बढ़ेगी, जलस्रोत सूखते जाएंगे। अधिकांश शहरों में बगल में बहने वाली नदियों से जलापूर्ति होती है। वे अब बेहद प्रदूषित और कृषकाय हो चुकी हैं अथवा सूख चुकी हैं। बेतरतीब शहरीकरण के कारण हालात बेक़ाबू होते जा रहे हैं। औद्योगिक घरानों को पानी का मालिक बनाने वाली नीति सबको प्यासा मार देगी। जरूरत जनता को पानी का मालिक बनाने की है। अगर देश में सरकार जल्दी कुछ सकारात्मक नहीं करती है तो जल के प्यासे लोग कहीं खून के प्यासे ना बन जाएं और देश में गृह युद्ध भड़क जाय।
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