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Sunday, May 15, 2011

विवादित स्थल पर नया फैसला : देश को बचाना जरूरी


हरिराम पाण्डेय
9 अप्रैल 2011
देश को राजनीतिक, सामाजिक और साम्प्रदायिक रूप में गहरे तक विभाजित कर देने वाले मसले, रामजन्मभूमि विवाद, में एक और नया मोड़ उस समय आ गया, जब सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को इस विवाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट के 30 सितंबर-2010 के फैसले को स्थगित कर दिया और साथ ही फैसले पर अचरज भी जाहिर किया। अदालत ने अपने फैसले में यह ताकीद किया है कि विवादित स्थल से जुड़े 67.730 एकड़ भूमि पर भी कोई धार्मिक कार्यक्रम संपन्न नहीं होगा। इसके पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट के लखनऊ पीठ ने यह मान लिया था कि 1428 ईस्वी में रामलला के मंदिर की छत को तोड़कर ऊपर मस्जिद की छत ढाली गयी थी और फिर 1992 में मस्जिद तोड़ दी गयी थी। यहां यह बता देना जरूरी है कि राममंदिर विवाद अपने वर्तमान स्वरूप में धार्मिक कम और राजनीतिक ज्यादा है। इस बार जो सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है, उसका आधार कि क्या अदालती फैसले आस्थाओं के आधार पर हो सकते हैं या उनके लिए वास्तविकता और साक्ष्य तथा कानून का आधार जरूरी है। अब सवाल उठता है कि अयोध्या मसले में अब अंतिम निर्णय क्या होगा और उस निर्णय का हमारे देश के मानस पर क्या असर पड़ेगा? यहां एक प्रश्न विचारणीय है कि इसके संबंध में उचित क्या होना चाहिए? क्या हम अपने देश की सामाजिक बुनावट को और मजबूत करना चाहते हैं अथवा उसे छिन्न - भिन्न करना चाहते हैं? रामजन्मभूमि का मसला देश के हिंदू साइक में राजनीति की सीढिय़ां चढ़कर पहुंचा है। राजनीतिक लाभ के लिए जनभावनाओं को भड़काने हेतु इसका उपयोग किया जाता रहा। नतीजा यह हुआ कि हमारे देश का 'सर्वधर्म समभावÓ का चरित्र ही संदेहास्पद लगने लगा। हर तरह के प्रयास किये गये। यह मसला सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक तौर पर हल नहीं किया जा सका और फिर यह विवाद घूम फिरकर अदालत में पहुंच गया है। हाई कोर्ट ने इस ओर प्रयास भी किया था पर संबंधित पक्षों में किसी ने इसे नहीं माना एवं अब सुप्रीम कोर्ट के सामने समस्या है कि यदि वह कानून, साक्ष्य और सबूत के आधार पर निर्णय करता है तो क्या निहित स्वार्थी राजनीतिक तत्व इसका लाभ उठाने से बाज नहीं आयेंगे। यह तो तय है कि सन् 1992 की स्थिति अब नहीं है। समाज वैचारिक तौर पर काफी आगे बढ़ चुका है। इसके दो ज्वलंत सबूत हैं। पहला कि, जब इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला सन् 2010 में आया था तो उस समय आशंका थी कि देश में एक बार फिर धर्मोन्माद की लहर फैलेगी पर वैसा कुछ नहीं हुआ और दूसरी बार जब सोमवार को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तो देश के किसी भाग में कोई सामाजिक हलचल नहीं हुई। ऐसी स्थिति में उम्मीद नहीं है कि धार्मिक मुद्दों पर जनमत इधर से उधर हो सकता है। हालांकि संभव है कि कुछ तत्व धार्मिक उन्माद भड़काने का प्रयास करें पर यह कार्य समाज के बुद्धिजीवियों का है कि वे उन तत्वों की कोशिशों को नजरंदाज करने के लिए देश के मानस को तैयार करें।
'ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने
लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पायी।Ó

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