हरिराम पाण्डेय
10 अप्रैल 2011
पश्चिम बंगाल की जनता ने इस बार अपना अंतिम मतदान पूरा कर लिया। आज उस मतदान का परिणाम सामने आयेगा। चैनल वाले और चुनावी पंडितों ने परिवर्तन की भविष्यवाणी की है और उसमें दम भी लगता है। सामाजिक हालत भी कुछ ऐसी ही है। परंतु इस परिवर्तन में विजयी और विजित में कितना अंतर होगा और सियासी समीकरण का अंतिम स्वरूप क्या होगा यह कहना अभी मुनासिब नहीं होगा या उसे जल्दबाजी में लिया गया निर्णय कहा जा सकता है। लेकिन 2011 के चुनाव के समय जो सामाजिक हालात देखे गये, उनसे तो ऐसा लगता है कि नतीजे स्थानीय व्यक्तित्व के आधार पर तय होंगे। इस बार का हर मुकाबला लोकल दिग्गजों में जोर आजमाइश की तरह था और वामपंथी दलों या कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी यही थी कि उनकी नीति लोकल कम अंतरराष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय ज्यादा थी। इस बार के चुनाव में यह साफ लगने लगा था कि गमलों में लगी कलमें जमीन में उगे पौधों के आगे बेकार हैं। पश्चिम बंगाल में ' मां, माटी, मानुषÓ का उद्घोष करने वाली ममता बनर्जी किसी देवालय की दुर्गा नहीं बल्कि सलवटों वाली साड़ी और हवाई चप्पल पहने सड़क किनारे रखी काली की प्रतिमा का मूर्त रूप हैं, जो विगत दो दशकों से वामपंथ से लोहा ले रही हैं। ममता जी ने भी कई बार घोर पराजय का मुख देखा है पर आज वे भारत की लेक वालेशा हैं। एक ऐसी नेता, जिसने देश की सबसे पुरानी कम्युनिस्ट सत्ता को लोकतांत्रिक पद्धति के माध्यम से पराजित करने की चुनौती दी है। देश में तृणमूल कांग्रेस के बारे में बहुत लोग न ही जानते हैं और न यह जानते हैं कि उस दल के और कौन नेता हैं और न यह जानते हैं कि उस पार्टी के क्या कार्यक्रम हैं और यह कैसा शासन चलायेगी? इस चुनाव में, जैसे कि संकेत मिल रहे हैं, ममता जी के जीतने की संभावना प्रबल है। इस मौके पर कांग्रेस को भी अपने सियासी अनुभवों की समीक्षा करनी होगी कि ममता जी की भांति कुदरती नेता को वह पार्टी क्यों नहीं प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर तैयार कर सकी और क्या कारण है कि प्रतिभाशाली लोकल नेता देर-सबेर पार्टी छोड़कर चले जाते हैं। पश्चिम बंगाल में इस बार का विधानसभा चुनाव व्यक्तित्व आधारित चुनाव था और अगर यह फार्मूला सफल रहा तो लोकसभा चुनाव भी इससे अलग नहीं होगा। यहां चाहे चुनावी पंडित जो कहें लेकिन एक बात तय है कि ममता जी के साथ खड़े जितने भी लोग थे वे अपनी जमीन से गहरे जुड़े थे, अपनी जमीन की राजनीतिक संस्कृति और आचरण से उनका गहरा जुड़ाव था। बेशक इस मौके पर राष्ट्रीय नेताओं का अन्य पार्टियों की ओर से आगमन हुआ लेकिन उनका कोई खास असर होगा यह नहीं लगता। चुनाव का निर्णय अपने क्षेत्र के लोकप्रिय व्यक्तित्वों से होगा। पार्टी के कार्यक्रम चाहे जितने लुभावने हों या गठबंधन के समीकरण चाहे जितने बेहतर हों लेकिन राष्ट्रीयस्तर के नेताओं की इस बार पूछ नहीं है।
Sunday, May 15, 2011
एक अलग दिशा दिखायेगा इस बार का चुनाव
Posted by pandeyhariram at 11:03 AM
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