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Tuesday, May 17, 2011

पश्चिम बंगाल का उद्धार


हरिराम पाण्डेय
पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनाव में ऐतिहासिक विजय हासिल करने वाली ममता बनर्जी 20 मई को शपथ लेंगी। उनकी विजय के और माकपा की पराजय के कारणों के बारे में अब तक बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है। इतनी बातें हो चुकी हैं कि राज्य गौण हो गया है। आखिर ममता जी की शासन का आधार यह राज्य ही है और इस पर विचार होना बाकी है कि उसका उद्धार कैसे हो? यूं तो माकपा के पास ठंडे दिमाग से सोचने वालों का अभाव नहीं था पर गड़बड़ी हुई उसके मनोविज्ञान से। माकपा अपने दीर्घ शासनकाल के कारण आत्ममुग्ध हो चुकी थी और इस दौरान उसे किसी की परवाह नहीं थी। उसने अपनी ऐंठ और अहंकार के कारण लोकसम्पर्क को अवरुद्ध कर दिया था तथा लोकमानस में व्याप्त गुस्से की जानकारी देने वाले प्रेस को नजर अंदाज कर दिया था। यही कारण था कि राज्य के विकास के लिये जब तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टïाचार्य ने राज्य से उजड़ गये उद्योगों को पुन: स्थापित करने के प्रयास स्वरूप उद्योगपतियों को आमंत्रित किया और उन्हें स्थापित करने के लिये सिंगुर तथा नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण आरंभ किया तो जैसा अक्सर होता है गांव वालों ने विरोध शुरू कर दिया। उस विरोध को दबाने की गरज से सरकार ने अपने काडरों को उतार दिया। प्रेस ने इसे भयानक जुल्म की संज्ञा देकर प्रचारित कर दिया। लेकिन गलती यहां भी नहीं हुई क्योंकि चुनाव प्रेस नहीं लड़ते। लेफ्टिस्टों से बड़ी गलती यह हुई कि इस स्थिति का लाभ उठाने का अवसर ममता जी को हासिल होने दिया। अनवरत जुझारू उस महिला ने सड़कों पर व्याप्त आतंक के प्रति जनता में साहस पैदा करने का काम किया। ठीक वही जो महात्मा गांधी ने चम्पारण में निलहे किसानों में किया था। बाकी का काम जनता ने कर दिया। इसके पहले चर्चा थी कि ममता जी में भी भाषण देने का वही पुराना रोग है जो वामपंथियों में था। यह सच भी था। वे शायद ही किसी की बात सुनती थीं, लेकिन चुनाव के कुछ पहले यह देखा गया कि वे दलीलों और बातों के प्रति थोड़ी संवेदनशील हुई हैं। वे बातें- दलीलें भी सुनती हैं और उनका वजन भी देखती हैं। उन्हें इस बात का इल्म है कि उनके चारों तरफ सियासी और बौद्धिक तौर पर अयोग्य तथा निहायत पाखंडी लोग जमा हैं। हालांकि राजनीति में ऐसा होना असामान्य नहीं है। क्योंकि राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण शर्त पार्टी के प्रति अंधभक्ति (लॉयल्टी) होती है और ऐसी स्थिति में बौद्धिकता पंगु हो जाती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मेधावी लोग सियासत में नहीं होते। जरूर होते हैं और वे अपनी मेधा का उपयोग अपने विरोधियों को परास्त करने में करते हैं। लेकिन उक्त प्रकार का उपयोग तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टी में संभव नहीं है क्योंकि यहां तो एक ही नेता सब कुछ तय करता है। अतएव नयी सरकार में मेधावी लोगों का भारी अभाव है। ममता जी थोड़े से रिटायर्ड नौकरशाहों के बल पर बंगाल का पुनरुद्धार करने जा रहीं हैं। मसलन चेम्बर ऑफ कामर्स के अमित मित्रा, जिन्हें वित्त मंत्रालय मिलना तय है, बेशक उत्तर भारत के उद्योगपतियों से अच्छा सम्बंध रखते हैं पर 80 के दशक के बाद अर्थव्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन हुआ है और उद्योग अब कृषि को बढ़ावा देने के बदले सेवा क्षेत्र को विकसित करते हैं। इसलिये दक्षिण भारतीय उद्योगों में तेज विकास हुआ है और श्री मित्रा दक्षिण भारतीय उद्योगपतियों से उतने हमवार नहीं हैं। जहां तक आई टी क्षेत्र का सवाल है वह इस समय अराजक दौर से गुजर रहा है। इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था एक नये दौर से गुजर रही है और अभी से कहना संभव नहीं है कि कौन सी आर्थिक गतिविधि इस समय देश के आर्थिक विकास के लिये उपयोगी होगी। इन दिनों पश्चिम और उत्तर भारत में जो औद्योगिक विकास हुआ है उसका आधार वाहन और कपड़ा उद्योग है जो कि विशाखापत्तनम, चेन्नई, कोयम्बटूर, गोवा जैसे अत्यंत विकसित बंदरगाहों पर निर्भर है। यह मॉडल पश्चिम बंगाल में संभव नहीं है, क्योंकि यहां ले- देकर एक कामचलाऊ बंदरगाह है हल्दिया। यहां पर्यटन उद्योग को विकसित किया जा सकता है , क्योंकि राज्य में पर्यटन स्थलों और रिसोट्र्स के लिये प्रचुर संभावनाएं हैं। ममता जी को राज्य के आर्थिक विकास के लिये अपना फारमूला तय करना होगा जिससे राज्य का पुनरुद्धार हो सके।

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