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Wednesday, May 25, 2011

देश की आबादी के बड़े हिस्से पर महिलाओं का शासन


हरिराम पाण्डेय
23.05.2011
देश की वर्तमान महिला मुख्यमंत्रियों में अब तक की अंतिम मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने शुक्रवार को शपथ ली। इसी के साथ देश की आबादी के सबसे बड़े हिस्से पर महिलाओं का शासन हो गया। यह भारत के इतिहास में तेरहवीं सदी में रजिया सुल्तान के बाद पहली ऐसी स्थिति है। इंदिरा गांधी जरूर लंबे अर्से तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं, लेकिन एक प्रधानमंत्री का देश की रोजमर्रा की जिंदगी पर उस तरह सीधा दखल नहीं होता, जैसा किसी मुख्यमंत्री का हो सकता है। अतएव इस दौर की इन पांच महिलाओं, ममता, जयललिता, मायावती, शीला दीक्षित और सोनिया गांधी, को रजिया सुल्तान की वारिस कहा जा सकता है। नारी सशक्तीकरण के पैरोकारों को यह योग बेशक खुश कर सकता है।
लेकिन जब हम उम्मीद करते हैं कि ऊंचे पदों पर ज्यादा महिलाएं आएं, तो इसके पीछे हमारा एक खास सोच काम कर रहा होता है। हम यह सोचते हैं कि चलो, मर्दों का राज तो बहुत देख लिया, क्या पता औरतें उनसे बेहतर साबित हों। जब वे परिवार को चलाती हैं, तो मां, बहन, बेटी या बीवी होती हैं और हर रोल में वे प्यार बरसाती हैं। जब वे पी एम या सी एम होंगी, तो वे अपने राज्य की निगरानी उसी प्यार और फिक्र के साथ करेंगी। हम पुरुष शासकों की तुलना देवताओं से नहीं करते, लेकिन महिला शासकों को देवी की इमेज ओढ़ लेने में देर नहीं लगती। हम उनसे उदार शासन की उम्मीद करने लगते हैं, जिसका जिक्र सिर्फ किताबों में होता आया है। पावर में महिलाओं की कामयाबी का मतलब क्या है? क्या सियासत या पावर की दुनिया में महिलाओं के आने से महिला-पुरुष बराबरी के अलावा कुछ और भी बदलता है? क्या हम उनसे कुछ ऐसे और बेहतर की उम्मीद कर सकते हैं, जो मर्द लीडरों से नहीं कर सकते?
घर में मर्द और औरतों के रोल और बर्ताव में फर्क है, क्योंकि इसका इंतजाम समाज ने इतने वक्त से किया है कि संस्कार भी बदल गया है, लेकिन ऑफिस में यह बात मायने नहीं रखती। लिहाजा सियासत भी औरताना और मर्दाना नहीं होती। सीएम-पीएम चाहे मर्द हों या औरत, उन्हें एक सी ही जिम्मेदारियां उठानी होती हैं। इसलिए हम देखते हैं कि ममता बनर्जी, जयललिता, शीला दीक्षित, मायावती और सोनिया गांधी में समानताएं नहीं हैं। उनके स्टाइल जुदा-जुदा हैं और इमेज भी। ममता काफी तेज-तर्रार, लेकिन सादगी पसंद हैं, जबकि जयललिता के शाही लाइफ स्टाइल के किस्से मशहूर हैं। उन पर करप्शन के भी ढेरों इल्जाम हैं और एक सी एम के तौर पर उनका कामकाज औसत ही माना जाता है। शीला स्टाइलिश और हाई क्लास हैं, लेकिन उनकी पड़ोसी मायावती के पास इन शौकों में उलझने की फुरसत नहीं है। वे अपने बेबाक अंदाज में दलित क्रांति की मसीहा बनने पर आमादा हैं। ठीक इस समय वे सोनिया से तीखी तकरार में मशगूल हैं, जो उन्हें किसी न किसी तरह यूपी की गद्दी से उखाड़ फेंकने का ख्वाब देख रही हैं।
क्या इन महिलाओं ने अपने इलाके में ऐसा कुछ किया है, जो एक महिला होने के नाते वे ही कर सकती थीं। इसका जवाब है- नहीं। ममता कैसी सीएम साबित होंगी, यह आगे चलकर ही पता चलेगा, लेकिन जयललिता और मायावती का रेकॉर्ड कोई यादगार नहीं रहा है। शीला के जमाने में दिल्ली ने बहुत तरक्की की है और वह बार-बार इलेक्शन जीतती रहती हैं, लेकिन फिर भी देश के सबसे नामी लीडर्स में उन्हें अभी नहीं गिना जाता। जो हैसियत राजशेखर रेड्डी ने (मृत्यु के पहले) आंध्र में, मोदी ने गुजरात में और नीतीश ने बिहार में बना ली, वह इन महिलाओं से कहीं आगे है, और ये सभी पुरुष हैं। जैसे अच्छा या बुरा होना जेंडर से तय नहीं होता, वैसे ही अच्छा या बुरा शासक होने के लिए मर्द और औरत का फर्क जरूरी नहीं। पावर गेम में जेंडर अगर मायने रखता है, तो कुछ चालों को चलने के तरीके के मामले में रखता होगा। पर्सनल स्टाइल का, लोगों से बर्ताव का फर्क हो सकता है, लेकिन जो भी नतीजा होगा, उस पर जेंडर का ठप्पा नहीं बचेगा। होता भी होगा, तो वह नजर नहीं आएगा, क्योंकि अच्छे या बुरे फैसले का असर उससे नहीं बदलेगा। मसलन मोदी के अच्छे फैसले गुजरात का उतना ही भला करेंगे, जितना ममता के अच्छे फैसले बंगाल का।
तो रजिया सुल्तान के बाद महिलाओं को मिली इस कामयाबी का असली मतलब क्या है? सिर्फ यही कि हम सदियों के भेदभाव से बाहर निकल रहे हैं। जिस मुल्क में औरतों और मर्दों के बीच बराबरी पर सवाल बने हुए हों, उसमें इतनी सारी महिलाएं सबसे ऊंचे ओहदे तक जा पहुंचीं- यह बदलते और सुधरते भारत की मिसाल है। 1236 में जब इल्तुतमिश ने अपने नाकारा बेटे को पीछे छोड़कर बेटी रजिया को सुल्तान मुकर्रर किया था, तो उसने जेंडर के फर्क पर काबिलियत को तरजीह दी थी। वह ऐसे वक्त में बराबरी के लिए खड़े होने की मिसाल थी, जो दुनिया में और कहीं नहीं देखी गयी। इतनी सदियों बाद आज भी जब कोई महिला अपने सिर पर ताज रखती है, हम बराबरी के उस सपने की तरफ एक कदम बढ़ जाते हैं। बराबरी की तरफ उठा हर कदम सोसायटी को बेहतर बनाता है। औरतों का सत्ता में आ जाना करप्शन और खराब शासन का अंत नहीं है। वह उस समाज का अंत जरूर है, जो आखिरकार करप्शन और खराब शासन को पैदा करता है।

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