हरिराम पाण्डेय
9 सितम्बर 2011
आतंकवाद की समस्या दिनोंदिन चिंताजनक होती जा रही है। यह चिंता इसलिये नहीं कि आतंकवादी ज्यादा चालाक और चुस्त होते जा रहे हैं। बेशक यह भी एक कारण है पर यही एकमात्र कारण नहीं है। इसका मुख्य कारण कि वे कहीं दिखते नहीं हैं। 26/11 से अबतक आतंकवादी हमलों की नौ घटनाएं हो चुकी हैं- इनमें तीन दिल्ली में , तीन मुम्बई में और एक - एक पुणे, वाराणसी और बेंगलूर में - और अब तक सरकार को यह नहीं मालूम हो सका कि वे कौन लोग हैं, उनकी आइडिअलॉजी क्या है, किस परिवार से आये हैं, उनका उत्स क्या है और वे चाहते क्या हैं, वे कितने संगठित हैं, कितने ताकतवर हैं, देसी हैं या विदेशी हैं? 26 /11 के बाद से अब तक हम किसी ऐसे समाधान तक-पहुंच पाये कि दुबारा ऐसी घटना को कैसे रोका जाय। हमारी एजेंसियों के पास उचित और कारगर आंकड़ों का अभाव है। यहां तक कि राजीव गांधी की हत्या और संसद पर हमले के अपराध के सिवा कोई भी आतंकवादी हमले का केस सॉल्व नहीं हो सका। पुलिस किसी के इशारे पर कभी इसको पकड़ लेती कभी उसको पकड़ लेती है। और फिर 5 साल 10 साल बाद छोड़ देती है। कभी जब कोई पुलिस वाला किसी निष्कर्ष पर आता नजर आता है तो उसको ही मुंबई जैसे हमले में खतम कर दिया जाता है आज तक यह बात समझ में ही नेता क्यों नही मरते और, ना इनका कोई रिश्तेदार मरता है। हर हमले के बाद एक ई मेल आता है की फलां ने इसकी जिम्मेदारी ली है और पता चलता है की ये किसी कैफे से आया है और कैफे वाले के पास उस आदमी का कोई पहचान पत्र नहीं है। कहीं ना कहीं कोई ना कोई घपला और घोटाला है कोई ना कोई तार 'मिसिंगÓ है। देश के सारे जांच तन्त्र या तो इन्हीं के इशारे पर कम कर रहे हैं या फिर सक्षम नहीं हैं कि इनका असली चेहरा बेनकाब कर सकें। इसका चाहे जो भी कारण हो लेकिन है चिंता का विषय। क्योंकि मानव खुफियागीरी या मशीन खुफियागीरी दोनों आपसी सहयोग से काम करते हैं। एक नाकामयाब होता है तो दूसरे से उसकी भरपाई हो जाती है। अगर दोनों नाकामयाब रहे तो बड़ी विकट स्थिति होती है। अंधेरे में हाथ-पैर मारने के सिवा कुछ नहीं होता है। आतंकवाद विरोधी कार्रवाई के दरअसल तीन हिस्से होते हैं। घटना के बारे में पूर्व सूचना के आधार पर सामयिक एक्शन,दूसरा कि सतर्कता और पहरेदारी के बल पर घटना घटने से रोका जाना और तीसरा जांच के आधार पर आतंकवादियों को समाप्त कर देना। जब भी कोई आतंकी घटना होती है तो चारों तरफ शोर मचने लगता है लेकिन कभी कोई मूल तथ्यों पर ध्यान नहीं देता। आशा है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष वाले अब चेतेंगे और समन्वित रूप में तथा जिम्मेदाराना ढंग से सोचेंगे नकि अपने - अपने स्वार्थ के चश्मे से मामलों को देखेंतगे।
Sunday, September 18, 2011
क्यों हम हो जाते हैं नाकामयाब
Posted by pandeyhariram at 11:13 AM
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