हरिराम पाण्डेय
12 सितम्बर 2011
संसद में और यूं कहें भारत में मुख्य विपक्षी राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी अभी भी राजनीतिक प्रचार के पुराने तरीकों से चिपकी हुई है। भाजपा के 84 वर्षीय नेता लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्रा की घोषणा से तो ऐसा लगता है कि वे अभी भी नेपथ्य में रह कर संगठन के संचालन का दायित्व नहीं संभालना चाहते और ना यह चाहते हैं कि नौजवान लोग मंच पर आ कर नेतृत्व करें। आडवाणी फिलहाल संसदीय विपक्ष के सबसे कद्दावर नेता हैं और इस मुद्दे पर देश में जितना आक्रोश देखा जा रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए उनके इस कदम का नैतिक औचित्य समझ में आता है। लेकिन जहां तक मामला इसके राजनीतिक औचित्य का है तो वहां सवाल ही सवाल भरे पड़े हैं। देश के आम आदमी के लिए इस प्रस्तावित यात्रा से जुड़ी सबसे बड़ी चिंता यही होगी कि लगभग स्वत:स्फूर्र्त ढंग से उभरी भ्रष्टाचार विरोधी चेतना को इससे कहीं कोई झटका तो नहीं लगेगा।
जन लोकपाल विधेयक के लिए चल रहा जो आंदोलन इस चेतना की मुख्य अभिव्यक्ति बना हुआ है , उसका स्वरूप अब तक अराजनीतिक रहा है। किसी एक पार्टी का इसे भुनाने के लिए आगे आना लोगों में इसके प्रति अरुचि पैदा कर सकता है। वह भी तब , जब संबंधित पार्टी - बीजेपी - की कई राज्य सरकारों पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने या इसके प्रति नरम रवैया अपनाने के आरोप मीडिया में छाए हुए हों। दूसरा खतरा इस रथयात्रा के असर में समूची भ्रष्टाचार विरोधी चेतना को ही सांप्रदायिक रंग दे दिए जाने का है। अक्टूबर 1990 और नवंबर - दिसंबर 1992 के महीने इतिहास में भले ही क्रमश: इक्कीस और उन्नीस साल पीछे छूट गए हों लेकिन लालकृष्ण आडवाणी की ख्याति और स्मृति आज भी उनकी इन्हीं दो यात्राओं को लेकर है। इनके बाद वे चार और यात्राओं पर निकले , वह अब लोगों को याद नहीं है।
यह सही है कि आडवाणी की उपरोक्त दोनों राम रथयात्राओं ने उन्हें देश में और खुद अपनी पार्टी में भी कमोबेश अटल बिहारी वाजपेयी के कद का नेता बनाया , लेकिन दूसरी तरफ बीजेपी का दर्जा विपक्ष की सबसे सुसंगत पार्टी से घटाकर उग्र सांप्रदायिक नारों की सियासत करने वाली पार्टी जैसा बना देने में भी सबसे बड़ी भूमिका इन्हीं की रही। यह एक विडंबना ही है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खुद को बुरी तरह घिरी पा रही कांग्रेस ने आडवाणी की यात्रा - घोषणा का स्वागत किया है। इस सियासी फंदे का अहसास विपक्ष के सबसे कद्दावर नेता को समय रहते हो जाना चाहिए।
चाहे हम आडवाणी या भाजपा के विरोधी हों या समर्थक, इस कदम को सही रणनीतिक गर्जना मानना होगा। वैसे भी आधुनिक राजनीतिक इतिहास में यात्रा और आडवाणी एक दूसरे के पर्याय हैं। आडवाणी की यह पांचवीं अखिल भारतीय रथयात्रा होगी। इसके परिणाम का आकलन फिलहाल कठिन है, लेकिन जनता के बीच जाकर दलीय राजनीतिक संघर्ष का यह एक उपयुक्त कदम है। वैसे भाजपा में राजनीतिक संघर्ष का माद्दा तो छोडि़ए, ऐसे सोच तक रखने वालों का अभाव हो चुका है। ऐसी पार्टी का राजनीतिक भविष्य क्या होगा, इसका आकलन आसानी से किया जा सकता है। आखिर आडवाणी कब तक ताल ठोंकने के लिए बने रहेंगे।
Sunday, September 18, 2011
कब तक ताल ठोकेंगे आडवाणी जी
Posted by pandeyhariram at 11:22 AM
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