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Sunday, September 18, 2011

खाना बर्बाद करना सामाजिक अपराध है

हरिराम पाण्डेय
17 सितम्बर 2011
खाने-पीने की वस्तुओं और विनिर्मित उत्पादों के दाम बढऩे से अगस्त माह में सालाना आधार पर महंगाई बढ़ कर 9.78 प्रतिशत पर पहुंच गयी। यह कुल मुद्रास्फीति का 13 माह का उच्च स्तर है। मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी से भारतीय रिजर्व बैंक की चिंता और बढ़ गयी है और इससे यह संकेत मिलता है कि केंद्रीय बैंक द्वारा मार्च 2010 के बाद से महंगाई पर अंकुश के लिए किए जा रहे प्रयास प्रभावी साबित नहीं हुए हैं। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति जुलाई माह में 9.22 प्रतिशत थी। अगस्त में यह 0.56 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 9.78 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गयी। जुलाई 2010 के बाद यह महंगाई की दर का सबसे ऊंचा आंकड़ा है। उस समय मुद्रास्फीति 9.98 प्रतिशत पर थी। अब सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है कि किस तरह बढ़ती महंगाई तथा घटती वृद्धि दर की समस्या से निपटा जाये। पिछले 18 माह में केंद्रीय बैंक ने नीतिगत दरों में 11 बार बढ़ोतरी की है। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने मुद्रास्फीति के आंकड़ों पर कहा कि यह दस प्रतिशत के करीब है। सरकार की तरह रिजर्व बैंक की निगाह भी इस पर है। रिजर्व बैंक से लेकर सरकार ने महंगाई पर चिंता तो जाहिर की है लेकिन जमीनी स्तर पर ऐसी कोई ठोस पहल सामने नहीं आई जो जनता को थोड़ी राहत दे सके। अब जबकि महंगाई पर नियंत्रण की कोई कोशिश कारगर साबित नहीं हो पा रही है, सरकार ने इसे थामने के लिए दूसरा रास्ता अख्तियार किया है। चूंकि मांग का महंगाई से सीधा ताल्लुक है इसलिए सरकार चाहती है कि शादी-ब्याह, पार्टियों तथा अन्य सामाजिक आयोजनों में होने वाली भोजन की बर्बादी नियंत्रित की जाए।
मेहमानों की संख्या तय करने की बात भी छिड़ी थी। इस मामले में सरकार की दलील है, जो ठीक भी है कि जिस देश में 160 लाख टन अनाज सड़ जाता हो, 22 करोड़ लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हों और हर साल हजारों लोग भूख के कारण मौत का शिकार हो रहे हों, वहां खाने की बर्बादी को काबू कर लाखों का पेट भरा जा सकता है। लिहाजा, खाद्य मंत्रालय की पहल से खाने की बर्बादी को बतौर अध्याय पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने का प्रयास चल रहा है। ताकि बच्चों को इस बारे में जागरूक किया जा सके। खाद्य सामग्री की बर्बादी विश्वव्यापी है। फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) की रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में एक साल में करीब 130 करोड़ टन खाद्य सामग्री या तो बेकार चली जाती है या फिर उसे फेंक दिया जाता है। यह कुल उत्पादन का एक-तिहाई है। आंकड़ों के अनुसार विकासशील देशों में 63 करोड़ टन और औद्योगिक देशों में 67 करोड़ टन खाने की बर्बादी होती है। अफ्रीका महाद्वीप में हर साल करीब 23 करोड़ टन भोजन का उत्पादन होता है, जबकि अमीर देशों में 22.2 करोड़ टन खाना बर्बाद हो जाता है। यानी, जितना खाना एक महाद्वीप में रहने वाले लोगों की सालभर की भूख मिटाता है उतना तो अमीर मुल्क बर्बाद कर देते हैं। एक अन्य अध्ययन के अनुसार अमरीका और ब्रिटेन में संपन्न लोग जितना भोजन बेकार करते हैं उससे 1.5 अरब लोगों को खाना खिलाया जा सकता है। हालांकि भोजन की इस बर्बादी का प्रामाणिक आंकड़ा फिलहाल उपलब्ध नहीं है। चिंता और चर्चाओं का आधार अनुमान है। जहां तक भारत का मामला है विवाह, पार्टियों और दूसरे सामाजिक-निजी आयोजनों में 15 से 20 प्रतिशत खाना बेकार चला जाता है। गांव-देहात की अपेक्षा महानगरों और छोटे-बड़े शहरों में बर्बादी अधिक है। देश-दुनिया में खाने की बर्बादी की यह आम तस्वीर है लेकिन इस बर्बादी की परिभाषाओं में असमानता है। संभवत: इसी वजह से अब तक कोई ठोस डाटा भी उपलब्ध नहीं है। प्रामाणिक दस्तावेज भी नहीं है। खाद्य मंत्रालय के आग्रह पर भोजन की बर्बादी का आंकड़ा जुटाने के लिए भारतीय लोक प्रशासन संस्थान (आईआईपीए) महानगरों में सर्वेक्षण का काम शुरू करने वाला है। ऐसे में लोगों की आदतों में बदलाव से ही कुछ अंकुश संभव हो सकता है। इसीलिए सरकार ने पाठ्यक्रम के जरिए जागरूकता की पहल की है ताकि लोगों को बर्बादी रोकने के लिए तैयार किया जा सके और लोग आत्मनियंत्रण का रुख करें। इस समग्र तस्वीर को देख कर सहज ही कहा जा सकता है कि जूठन छोडऩा और खाना बर्बाद करना सामाजिक अपराध है।

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