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Thursday, August 23, 2012

'कोयलेÓ की कालिख में कितना कालापन?



22.8
हरिराम पाण्डेय
पिछले दिनों कोयला घोटाला पर कैग की रिपोर्ट पर बवाल मचा हुआ है। वैसे अगर अर्थ शास्त्र के मनोविज्ञान को देखेंगे तो ऐसा होना ही था क्योंकि सन 197& में कोयला खदानों का राष्टï्रीयकरण खुद बुरी नीतियों के फलस्वरूप हुआ और गलत नीतियों के नतीजे भी गलत ही होते हैं। लेकिन उस समय इस नीति को लागू करते समय सरकार या अफसरों ने ऐसा नहीं सोचा था। तब कोयला क्षेत्र पूंजी के अभाव से ग्रस्त था और उसे आधुनिकीकरण की दरकार थी। श्रमिकों की स्थिति दयनीय थीं और अवैज्ञानिक खनन नीतियां अमल में लायी जा रही थीं। पूर्व कोयला सचिव वीएन कौल का मानना है कि कोयला खदानों का राष्ट्रीयकरण भारी भूल थी क्योंकि शुरू से ही राष्ट्रीयकृत खदानें देश की कोयला मांगों को पूरी कर पाने में नाकाम साबित हो रही हैं। वास्तविक खामी कोयला खदान राष्ट्रीयकरण अधिनियम की नीतियों में है , जिनकी उपयोगिता खत्म हो चुकी है लेकिन राजनीतिक विरोध के चलते राष्ट्रीयकरण की नीति की समीक्षा करने के तमाम प्रयास विफल रहे। कोयला खदानों का संपूर्ण राष्ट्रीयकरण भी लंबे समय तक नहीं टिका। वर्ष 1976 में इस्पात, ऊर्जा और सीमेंट जैसे बुनियादी ढांचे के महत्वपूर्ण क्षेत्रों को कोयले की आपूर्ति के लिए सार्वजनिक क्षेत्र का हस्तक्षेप कम करने और उत्पादकता बढ़ाने वाली नीतियां प्रस्तावित की गयीं। इस्पात के उत्पादन में संलग्न निजी कंपनियों को बंधक खदानों का स्वामित्व दे दिया गया और दूरदराज के इलाकों में निजी क्षेत्र को सब-लीजिंग की अनुमति दी गयी। 199& में सरकार ने कोयला क्षेत्र को पावर जेनरेशन और 1996 में सीमेंट उत्पादन के लिए खोल दिया। विवेकाधीन आवंटनों की नीति में अनेक बार संशोधन किया गया। वर्ष 2004 तक कोयला मंत्रालय की समझ में आ गया कि केंद्र और राÓय के अधिकारियों की स्क्रीनिंग कमेटी की अनुशंसाओं के आधार पर विवेकाधीन आवंटन नीति में पारदर्शिता का अभाव था। कोयला मंत्रालय ने कानून मंत्रालय से परामर्श लिया कि क्या कानून में बदलाव लाये बिना विवेकाधीन आवंटन के स्थान पर प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की प्रक्रिया अपनायी जा सकती है? पहले तो कानून मंत्रालय ने कहा कि कार्यपालिका के आदेश से यह किया जा सकता है, लेकिन बाद में वह इसे लेकर बहुत निश्चित नहीं रह गया। कुछ राÓयों ने भी नीलामी का विरोध किया।
सन 2004 के बाद से ही प्रधानमंत्री का यह सोच रहा है कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी ही उचित तरीका है और उन्होंने कोयला मंत्रालय को तुरंत कार्रवाई के निर्देश देते हुए कैबिनेट में प्रस्ताव भिजवाने को कहा। दु:ख की बात है कि राष्ट्रीयकरण की अनुपयुक्त नीति को समाप्त कर कोयला क्षेत्र में आमूलचूल सुधार लाने की बात किसी ने नहीं सोची और कैग भी इसे रेखांकित कर पाने में नाकाम रहा। इसी पृष्ठभूमि में कैग की ऑडिट रिपोर्ट सामने आयी। मीडिया ने लोगों को बताया कि वर्ष 2005 से 2009 के बीच निजी कंपनियों को कोयला खदानों के मनमाने आवंटन के कारण सरकारी खजाने को 1.86 लाख करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ। यह भी कहा गया कि सरकार ने प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी के लिए 28 जून 2008 की तारीख तय कर दी थी, लेकिन इसके बावजूद वर्ष 2009 तक विवेकाधीन आवंटन जारी रहा और इस तरह निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाया गया। रिपोर्ट में कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्य भी उजागर हुए हैं, लेकिन 57 बंधक खदानों के लिए 19 बड़े व्यावसायिक घरानों को लाभ पहुंचाए जाने के आंकड़े ही सुर्खियों में रहे। हालांकि मौजूदा हालात को देखते हुए सरकार और विपक्ष में राजनीतिक विभाजन अप्रत्याशित नहीं है। भाजपा ने प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग की है, लेकिन वह भूल गयी कि जब वह सत्ता में थी, तब उसने भी विवेकाधीन आवंटन की प्रणाली अपनायी थी। एनडीए और यूपीए दोनों की सरकारों ने कोयला क्षेत्र में विवेकाधीन आवंटन की पुरानी प्रणाली का समर्थन किया है। मनमोहन सिंह तो वास्तव में पहले ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी की प्रणाली अमल में लाने का सुझाव दिया था। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी इस मौके का फायदा उठाकर पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप मॉडल अपनाने के लिए सरकार की आलोचना कर रही है और वही पुराना बाजार विरोधी राग अलाप रही है। वह यह नहीं समझ पा रही है कि प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी प्रक्रिया बुनियादी माक्र्सवादी आग्रहों के अनुरूप नहीं होगी। कैग की रिपोर्ट पर मीडिया का रवैया भी सनसनी फैलाने वाला ही रहा है। कैग की रिपोटर््स बहुत संस्थागत प्रयासों के बाद तैयार होती है और उनका ध्यान से अध्ययन करने की जरूरत होती है। कैग की अनुशंसाओं पर कोई धारणा बनाने से पहले पी ए सी में उनकी ब्योरेवार पड़ताल की जाती है। हम अभी यह नहीं जानते कि निजी कंपनियों को कथित रूप से लाभ पहुंचाए जाने के आरोपों की हकीकत क्या है।

लोकचेतना को भ्रष्टï होने से रोके मीडिया



23.8
हरिराम पाण्डेय
विख्यात चिंतक एवं वेदवेत्ता डॉ. उमाकांत उपाध्याय ने सन्मार्ग को टेलीफोन कर सामाजिक विपर्यय और राष्टï्र भावना शून्यता पर भारी क्षोभ जाहिर किया और कहा कि भारतीयों के संस्कारों को जिनेटिकली भ्रष्टï करने का षड्यंत्र चल रहा है। उन्होंने उसे रोकने के लिये मीडिया से अनुरोध किया। वस्तुत: यह चिंता का विषय है क्योंकि भारत राष्टï्र वसुधा पर ऐसी संस्कृति का संवाहक है जो प्रेम, करुणा, संवेदना के भावों से भरा है और समूची मानवता के कल्याण की बात करता है। ऐसी महान संस्कृति हमारे लिए प्रेरणा का कारण होनी चाहिए। किंतु गुलामी के लंबे काल खंड और विदेशी विचारों ने हमारे गौरव ग्रंथों व मान बिंदुओं पर गर्द की चादर डाल दी। इस पूरे दृश्य को इतना धुंधला कर दिया गया कि हमें अपने गौरव का, मान का, ज्ञान का आदर ही न रहा। यह हर क्षेत्र में हुआ। हर क्षेत्र को विदेशी नजरों से देखा जाने लगा। हमारे अपने पैमाने और मानक भोथरे बना दिये गये। स्वामी विवेकानंद उसी स्वाभिमान को जगाने की बात करते हैं। महात्मा गांधी से जयप्रकाश नारायण तक ने हमें उसी स्वत्व की याद दिलायी। सोते हुए भारत को जगाने और झकझोरने का काम किया। ऐसे समय में जब एक बार फिर हमें अपने स्वत्व के पुन: स्मरण की जरूरत है तो पत्रकारिता बड़ा साधन बन सकती है। भारत के संदर्भ में पत्रकारिता लोकजागरण का ही अनुष्ठान है। स्वाधीनता आंदोलन के दौर में ही देश में तेजी से पत्रकारिता का विकास हुआ। देशभक्ति, जनजागरण और समाज सुधार के भाव इसकी जड़ों में हैं। आजादी के बाद इसमें कुछ बदलाव आये और आज इस पर बाजारवादी शक्तियों का काफी प्रभाव दिख रहा है। फिर भी सबसे प्रभावशाली संचार माध्यम होने के नाते मीडिया की भूमिका पर विचार करना होगा। तय करना होगा किस तरह मीडिया लोक संस्कारों को पुष्ट करते हुए अपनी जड़ों से जुड़ा रह सके। साहित्य हो या मीडिया, दोनों का काम है - लोकमंगल । राजनीति का भी यही काम है। लोकमंगल सबका ध्येय है। लोकतंत्र का भी यही उद्देश्य है। संकट तब खड़ा होता है जब लोक नजरों से ओझल हो जाता है। लोक हमारे संस्कारों का प्रवक्ता है। वह बताता है कि क्या करने योग्य है और क्या नहीं। इसलिए लोकमानस की मान्यताएं ही हमें संस्कारों से जोड़ती हैं और इसी से हमारी संस्कृति पुष्ट होती है। मीडिया दरअसल ऐसी ताकत के रूप में उभरा है जो प्रभु वर्ग की वाणी बन रहा है, जबकि मीडिया की पारंपरिक संस्कृति और इतिहास इसे आम आदमी की वाणी बनने की सीख देते हैं। समय के प्रवाह में समाज जीवन के हर क्षेत्र में गिरावट दिख रही है। किंतु मीडिया के प्रभाव के मद्देनजर इसकी भूमिका बड़ी है। उसे लोक का प्रवक्ता होना चाहिए ऐसे में इसकी सकारात्मक भूमिका पर विचार जरूरी है। भारतीय संस्कृति में सामाजिक संवाद की अनेक धाराएं हैं, परंपराएं हैं। हमें उन पर ध्यान देने की जरूरत है। मीडिया इसी संवाद का केंद्र है। वह हमें भाषा भी सिखाता है और जीवन शैली भी प्रभावित करता है। खासकर दृश्य मीडिया पर आज जैसी भाषा बोली और कही जा रही है, उससे सुसंवाद कायम नहीं होता, बल्कि तनाव बढ़ता है। असम की घटना के बाद देश भर में जो हुआ वह इसका प्रमाण है। हमारे जनमाध्यम ही समाज में मची होड़ और हड़बड़ी को सहज संवाद में बदल सकते हैं, लेकिन बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह लोक को नष्ट करने का षड्यंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं। इसे बचाने के लिए, संरक्षित करने के लिए और इसके विकास के लिए समाज और मीडिया दोनों को साथ आना होगा। तभी हमारे गांव बचेंगे, लोक बचेगा और लोक बच गया तो संस्कृति बचेगी।

Sunday, August 19, 2012

मनोवैज्ञानिक जेहाद की साजिश



-हरि राम पाण्डेय
19 अगस्त 2012
उत्तर-पूर्व के निवासियों का दक्षिण भारत से लगातार पलायन जारी है और महाराष्टï्र में भारी तनाव व्याप्त है। इसे देख कर और सुन कर देश भर में सही सोचने वाले आशंकित हैं। लेकिन आम आदमी लाचार है। हम देख रहे हैं कि विगत 20 मई से इंटरनेट, विभिन्न सोशल मीडिया और मोबाइल फोन एवं आई पैड के माध्यम से प्रॉक्सी जिहाद चल रहा है। इसकी शुरुआत म्यांमार के राखिने प्रांत से हुई। वहां बौद्धों और राहिंगा मुसलमानों के बीच संघर्ष हो गया। इस संघर्ष में दोनों तरफ के लगभग 80 लोग मारे गये। दर असल रोहिंगा मुसलमानों को म्यांमार बंगलादेशी घुसपैठिया मानता है। इस संघर्ष के बाद वहां बड़े पैमाने पर लोग उस क्षेत्र को छोड़ कर चले गये। भारी पैमाने पर आंतरिक विस्थापन हुआ। उसी समय से भारत , बंगलादेश और म्यांमार के कुछ अज्ञात कट्टïरपंथी तत्वों ने इंटरनेट और सोशल मीडिया के जरिये म्यांमार की सरकार को बदनाम करना शुरू कर दिया और मुस्लिम एकजुटता प्रदर्शित करने लगा। म्यांमार के प्रेजिडंट सीन थीन ने ओ आई सी के प्रतिनिधिमंडल से बातें कीं। उन्होंने उस प्रतिनिधि मंडल को बताया कि कैसेे सोशल मीडिया और इंटरनेट के जरिये यह बताने की कोशिश की कि कैसे झूठी तस्वीरों और मनगढ़ंत खबरों के आधार पर सरकार को बदनाम किया जा रहा है। दरअसल ये अफवाहें न केवल म्यांमार को अस्थिर करने की साजिश हैं बल्कि बंगलादेश की शेख हसीना सरकार को भी अस्थिर करने का षड्यंत्र है। क्योंकि हसीना सरकार ने रोहिंगाओं को बंगलादेश में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी है। साथ ही यह भारत में विद्वेष फैलाने का प्रयास है। इससे दोतरफा काम करने की कोशिश की जा रही है। यदि हसीना सरकार कमजोर होती है तो जेहादी ताकतवर होंगे और भारत पर दबाव बना सकते हैं, साथ ही भारत स्वयंमेव विपर्यय में उलझ जायेगा। चंद मुस्लिम कट्टïरपंथी ताकतें और समूह हैं जो रोहिंगा मुसलमानों पर जुल्मोसितम की झूठी तस्वीरें और ब्यौरे फैला रहीं हैं। इन तस्वीरों और ब्यौरों का असर धार्मिक विचारों वाले मुसलमानों के मन पर बड़ा तीखा होता है और उनमें क्रोध जमा होने लगता है। असम में भड़की हिंसा के विरोध में गत 5 अगस्त को मुम्बई के आजाद मैदान में सभा के बाद उपद्रव इसी गुस्से की अभिव्यक्ति थी। सोशल मीडिया पर डाली गयी तस्वीरों और झूठे ब्योरों से गुस्साये लोगों के समक्ष मुस्लिम नेताओं के भड़काऊ भाषणों ने आग में घी का काम किया। भीड़ ने पुलिस पर हमले किये यहां तक महिला पुलिस के सदस्यों पर भी हमले किये गये, एक अनाम सैनिक के स्मारक को तोड़ डाला और मीडिया के लोगों को पीटा। मीडिया के लोगों पर हमले के बारे में उनका कहना था कि वे सही बात नहीं बता रहे हैं। दरअसल उस भीड़ का अचेतन तो सोशल मीडिया पर डाली गयी तस्वीरों और कहानियों को ही सच मान रहा था इसलिये मीडिया के ब्यौरे को वे गलत मान रहे हैं और मीडिया से क्रोधित हैं। कई मुस्लिम नेताओं ने मुम्बई उपद्रव की निंदा की है। मुम्बई के बाद इन कट्टïर पंथियों ने दक्षिण भारत में अपनी साजिश शुरू कर दी। दक्षिण भारत में बड़ी संख्या के पूर्वोत्तर वासी पढ़ रहे या काम काज कर रहे हैं। यहां यह अफवाह फैलायी जा रही है कि भारत सरकार चूंकि असम में रह रहे बंगलादेशियों को नागरिकता नहीं दे रही है इसलिये इस इलाके में पूर्वोत्तर के लोगों को भी नहीं रहने दिया जायेगा। यहां यह गौर करने वाली बात है कि यह मनोवैज्ञानिक जेहाद धर्म आधारित नहीं है बल्कि क्षेत्र आधारित है। जो लोग दक्षिण भारत या मुम्बई-पुणे से भाग रहे हैं उनमें केवल हिंदू नहीं हैं, बल्कि ईसाई भी हैं। अब पलायन कर रहे ये लोग जब अपनी विपदगाथा के साथ पूर्वोत्तर में अपने घर पहुंचेंगे तो साम्प्रदायिक तनाव की एक नयी लहर शुरू होगी। आजादी के बाद से उत्तर-पूरब के लोगों और भारत की शेष आबादी के मन में एक खास किस्म का विभाजन था जिससे विभिन्न तरह के विद्रोह हो रहे थे। विगत दस वर्षों में ये विद्रोह धीमे पडऩे लगे थे। पूर्वोत्तर के नौजवानों की एक बड़ी संख्या अपने को भारत से साथ जोडऩे लगे थे जिससे विद्रोही संगठनोंं को मिलने वाले जांबाज नौजवानों की तादाद घट गयी और दूसरी तरफ वहां के युवक युवतियां देश के अन्य भागों में जाने लगे। इस नये मनोवैज्ञानिक जेहाद से डर है कि कहीं फिर ना मानसिक विभाजन हो जाये और पूर्वोत्तर तथा देश के शेष भाग के बीच एक बड़ी और चौड़ी खाई ना बन जाये। दुर्भाग्यवश हमारी सुरक्षा एजेंसियां इस मनोवैज्ञानिक जेहाद को समय पर नहीं भांप सकीं और ना अभी दोषियों को ढूंढ कर उन्हें निष्क्रिय करने की कोशिश होती दिख रही है। जो लोग इस जंग को अंजाम दे रहे हैं उन्हें तत्काल नेस्तनाबूद किया जाना चाहिये और साथ ही पलायन करने वाले लोगों में सुरक्षा का विश्वास पैदा किया जाना चाहिये वरना आने वाले दिन बड़े भयानक परिणाम ला सकते हैं।

राजनीतिक दलों के एकजुट होने की जरूरत



-हरि राम पाण्डेय
18 अगस्त 2012
बंगलुरू से उत्तर पूर्व, खासकर, असम के लोगों में भगदड़ मची हुई है। सरकार के लाख आश्वासन के बावजूद वे आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं। असम के कोकराझाड़ में रहवासियों और घुसपैठियों में संघर्ष के बाद कुछ निहित स्वार्थी तत्वों ने उसे मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा का रूप दे दिया और अफवाहों की चिंगारी छोड़ दी जिसने दावानल का रूप ले लिया है। अफवाह बम सुनियोजित अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा है। सुरक्षा एजेंसियों को इसकी भनक तो थी, लेकिन जिस तरह इसे अंजाम दिया गया उससे वे भी सकते में हैं। आई बी के वरिष्ठ अधिकारी मान रहे हैं कि असम हिंसा के बाद जिस तरह का अभियान चलाये जा रहा है वह बेहद खतरनाक है। सोशल मीडिया के जरिए चलाए जा रहे इस अभियान का मकसद देश में अल्पसंख्यकों को मास मोबिलाइज करना है। आई बी के एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, इस मुहिम के पीछे वे जिहादी ताकतें हैं जो भारत में अस्थिरता फैलाना चाहती हैं। मुंबई में हुई हिंसा इसकी बानगी भर थी। एनआईए सूत्रों के मुताबिक, इस मुहिम के पीछे लश्कर-ए-तायबा और आईएसआई का हाथ है। सूत्रों के मुताबिक, चार सालों में लश्कर ने देश में ऐसे ओवर ग्राउंड ग्रुप खड़े कर दिए हैं जो कभी भी कुछ भी करने को तैयार हैं। आतंकवादी संगठनों के लिए खुलेआम काम करने के लिए लाखों लोग हाजिर हैं। कुछ जनप्रतिनिधि भी इस मुहिम में शामिल हैं। सोशल मीडिया ने इसमें अहम भूमिका निभायी। बंगलुरू और कर्नाटक के अन्य शहरों में फैलने वाली अफवाहें असुरक्षा के एक खास दुष्चक्र की तरफ इशारा करती हैं। कर्नाटक में पिछले कुछ सालों से सामाजिक असहिष्णुता की एक लहर सी चल रही है, जिसे बीजेपी के नेतृत्व वाली राज्य सरकार का अघोषित समर्थन प्राप्त है। वहां दिनदहाड़े चर्च जलाए गये तो तत्कालीन मुख्यमंत्री बी एस येदयुरप्पा ने इसे धर्मांतरण के विरुद्ध स्वाभाविक प्रतिक्रिया बताया। ऐसे में अपने खिलाफ कोई अफवाह फैल जाने के बाद सुरक्षा के सरकारी दावों पर यकीन कैसे करे? इसमें कोई शक नहीं कि कुछ निहित स्वार्थी तत्व असम के दंगों को एक बड़े सांप्रदायिक तनाव जैसा रूप देने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि कुछ अन्य लोग उनकी इस कोशिश को अपनी सियासत का मोहरा बना लेने का जुगाड़ भी बिठा रहे हैं। बंगलोर से जा रहे लोगों का कहना था कि जरूरत पडऩे पर उनकी मदद के लिए कोई आगे आयेगा, इसका उन्हें कोई भरोसा नहीं है। बहुलतावादी संस्कृति में यकीन रखने वाले एक लोकतांत्रिक समाज के लिए इससे ज्यादा शर्मिंदगी की बात और क्या हो सकती है? इसलिये जरूरी है कि जब तक असम और म्यांमार में साम्प्रदायिक स्थिति नियंत्रित नहीं हो जाती तबतक देश भर की पुलिस और खुफिया एजेंसियों को बेहद सतर्क रहने की जरूरत है। यही नहीं पुलिस और राजनीतिक नेतृत्व के लिये भी जरूरी है कि वह इस स्थिति पर मुस्लिम नेताओं के निकट सम्पर्क में रहें और उनसे हालात को सुधारने के लिये सहयोग लें। उन्हें बताएं कि असम और अन्य तनावग्रस्त क्षेत्रों में सरकार क्या कदम उठा रही है तथा वे इस स्थिति का राजनीतिक लाभ न उठाएं। अगर कोई मुस्लिम नेता इस सलाह को न माने तो पुलिस को कानून के अनुसार उस पार कार्रवाई जरूर करनी चाहिये और राजनीतिक नेतृत्व को इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। यही नहीं सभी राजनीतिक दल एक जुट होकर इस अफवाह को रोकने और समग्र रूप में देश वासियों में कानून के प्रति भरोसा पैदा करने का प्रयास करें।




Tuesday, August 14, 2012

मानवीय सहायता रोकें नहीं



असम में भड़की हिंसा की चिनगारी मुम्बई न केवल पहुंची है बल्कि उसके शोलों की आग भी महसूस होने लगी है। मानवीय कानून जाति भेद नहीं मानता है, ना किसी नस्ल या क्षेत्र का भेद मानता है और न घुसपैठियों और रहवासियों में फर्क करता है, यहां तक कि अपराधी अथवा दुर्दांत आतंकवादी भी अगर हिरासत में हैं तो उन्हें भी भोजन और औषधि दिये जाने का प्रावधान होता है। अंतरराष्टï्रीय कानून के अंतर्गत हर देश को घुसपैठियों को रोकने का अधिकार है और इसके लिये सीमा पर कंटीले तारों की बाड़ लगाने या फौज को तैनात करने और उसे घुसपैठियों को देखते ही गोली मार देने तक का आदेश देने तक का अधिकार है। अगर कोई घुस आया भी तो उसे कानून के अंतर्गत गिरफ्तार करने और सीमा से बाहर कर देने का अधिकार है। संसद में भाजपा के नेता ने असम के दंगे पर बयान देते हुए कहा कि वह घुसपैठियों और असम के मूल निवासियों के बीच का संघर्ष था। बेशक ऐसा ही था लेकिन क्या इससे हिंसा का औचित्य प्रमाणित हो जाता है। जब तक वे घुसपैठिये हमारे देश में हैं तब तक अंतरराष्टï्रीय मानवीय कानूनों के अंतर्गत उनकी जान की हिफाजत करना , उन्हें भोजन तथा औषधि इत्यादि देना सरकार का दायित्व है। सरकार इससे इंकार नहीं कर सकती है। लेकिन खबरें मिल रहीं हैं कि असम , बंगलादेश और म्यांमार के कई क्षेत्रों में हाल की हिंसा के परिप्रेक्ष्य में मुसलमानों के समूह को घुसपैठिया मानकर सरकारें अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रही हैं। म्यांमार के राखिने प्रांत में अभी हाल में रोहिंगा मुसलमानों और बौद्धों में संघर्ष समाचारों के बीच शिकायतें मिलीं हैं कि रोहिंगाओं को बंगलादेशी घुसपैठिया करार देकर म्यांमार की सरकार और सेना कोई सहायता नहीं दे रही है। पश्चिमी देशों की कुछ सरकारों ने जैसे फ्रांस ने म्यांमार की सरकार से अनुरोध किया है कि वह रोहिंगाओं की दशा पर ध्यान दे। बंगलादेश की सरकार ने भी कथित तौर पर राखिने में मारकाट के बाद वहां से पलायन करने वाले रोहिगाओं को मानवीय सहायता नहीं देने का आदेश दिया है साथ ही 1990 से शरणार्थी शिविरों में रह रहे रोहिंगाओं को दी जाने वाली सहायता को भी रोक देने का आदेश दिया है। जुलाई के आखिरी हफ्ते तक मिली जानकारी के मुताबिक बंगलादेश सरकार ने रोहिंगा शरणार्थी शिविरों में राहत का काम कर रहे ब्रिटिश और फ्रांसिसी दलों से कहा है कि वे राहत कार्य बंद कर दें क्योंकि इससे और शरणार्थी यहां पहुंचने लगेंगे। अमरीकी सरकार और राष्टï्रसंघ शरणार्थी उच्चायोग ने बंगलादेश सरकार से अनुरोध किया है कि वह राहत स्थगन आदेश वापस ले। बंगलादेश के कोकराझाड़ और बोडो इलाके में हाल के दंगों के बाद बड़ी संख्या में मुस्लिम आबादी अपने घरों से पलायन कर राहत शिविरों में आ गयी। अब खबरें मिल रहीं हैं कि सरकार राहत दिये जाने के मामले में भारतीय मुसलमानों और उस पार से आये मुसलमानों में भारी विभेद कर रही है। अगर ये खबरें सच हैं तो इस स्थिति को तत्काल खत्म किया जाना चाहिये।
अंतरराष्टï्रीय कानूनों का पालन करने और मानवीय सहायता कार्यों को करने में भारत का प्रशंसनीय रिकार्ड रहा है। यह सच है कि भारत में बंगलादेशी घुसपैठियों की भारी संख्या है और वे हमारी सुरक्षा के लिए खतरा भी हैं लेकिन जब तक वे यहां हैं तब तक अंतरराष्टï्रीय कानूनों के तहत हिफाजत के हकदार हैं। जब तक ऐसा हो सकता है तब तक बिना भेदभाव के राहत कार्य चलना चाहिये वरना यह गुस्सा उन्हें ठेलकर आतंकियों के खेमे में पहुंचा देगा।

Saturday, May 5, 2012

गुदगुदी या बेहयाई

हरिराम पाण्डेय
फिल्म अभिनेत्री रेखा और जया बच्चन का नाम राज्य सभा के लिये अनुमोदित किया है सरकार ने। इसे लेकर मीडिया में बड़ी चर्चा है। रसदार कहानियां गढ़ी जा रहीं हैं। वे कहां बैठेंगीं, एक साथ बैठेंगी या नहीं, बैठेंगी तो बतियायेंगी या नहीं वगैरह-वगैरह।
इस सिलसिले में एक प्रसंग बताना पड़ रहा है। वह जमाना था जब ना 'पिपली लाइवÓ थी और ना बटुकनाथ एपीसोड। जमाना था जब सन्मार्ग के सम्पादक यशस्वी सम्पादक रामअवतार जी गुप्त हुआ करते थे। उन दिनों सन्मार्ग में एक 'बोल्डÓ तस्वीर छप गयी। अब पूरे स्टाफ की खिंचाई हो गयी। उन्होंने अपने डिप्टी को आदेश दिया कि दुबारा ऐसा ना हो। उस दिन इसका कारण समझ में नहीं आया था। बस इतना ही समझा गया था कि 'नैतिकता के प्रति बेहद निष्ठïावान आदमी हैं इसलिये यह आदेश दिया।Ó पर कुछ दिनों के बाद की घटना है जब प्रोफेसर मटुकनाथ की प्रेमिका जूली को उनकी पत्नी सरेआम पीटती है। टेलीविजऩ चैनल वाले किसी प्रायोजित कार्यक्रम की तरह इसका लाइव प्रसारण करते हैं। फिर बाद में लूप में डालकर बार-बार दिखाते हैं। आश्चर्य न पिटायी में है न टीवी चैनलों की बेहयाई में। आश्चर्य उस गुदगुदी में है, जो मन के भीतर होती है। आश्चर्य है कि यह सब देखकर मन नहीं पसीजता, दुख नहीं उपजता। चरमसुख जैसा कुछ मिलता सा लगता है। ऐसा ही सुख तब भी मिलता था जब अखबारों में और बाद में पत्रिकाओं में तस्वीरें देखा करते थे। बार-बार देखा करते थे।
याद है आपको? घर की बड़ी बहू सोनिया गांधी के दिवंगत देवर की पत्नी और घर की छोटी बहू मेनका गांधी को घर से निकाल दिया गया था। सामान सड़क पर पड़ा था। एक छोटा बच्चा सामान के साथ खड़ा था। याद है आपको मन कैसा मुदित होता था ये तस्वीर देखकर? मन बावरा है। तरह-तरह की कल्पनाएं करता है। अब तक वो तस्वीर मन में है। अब भी वह नजर लगाए रखता है कि संसद के भीतर दोनों बहुओं के बीच कभी नजरें मिलती हैं या नहीं। खबरों पर नजर रहती है, छोटी बहू के घर बहू आ रही है तो बड़ी बहू की प्रतिक्रिया कैसी है।
आश्चर्य है कि बेगानी शादी में अब्दुल्ला क्यों दीवाना हो जाता है। अरे शादी में हो जाए तो हो जाए, शादी टूटने-बिखरने लगती है तो भी चटखारे लेने में मजा आता है।
किसी ने फुसफुसाकर कहा था, देश के सबसे बड़े औद्योगिक घराने की बहू एक पूर्व मिस इंडिया से नाराज है। होती है तो हो, हमारी बला से। लेकिन आश्चर्य है कि मन में गुदगुदी हुई। दिल में एक लहर उठी। वह फुसफुसाहट एक कान से सुनी और फिर तुरंत दूसरा कान भी लगा दिया। परमानंद इसी को कहते होंगे। अब हर कोई अखबार के कोने के कॉलम में पढ़ रहा था कि मिसेस शाहरुख खान यानी गौरी इन दिनों प्रियंका चोपड़ा नाम की एक फिल्म अभिनेत्री से नाराज हैं। सुना है कि उन्होंने कई और अभिनेता पत्नियों को अपनी नाराजगी में साझेदार बना लिया है। है तो बुरा। लेकिन क्या करें कि मन मंद-मंद मुस्काता है। पुराने खाज को खुजलाने जैसा सुख मिलता है। सौतिया डाह की खबर जैसा सुख परनिंदा में भी नहीं। अब फिर बात आती है संसद में। जया बच्चन के घर के सामने वाले आंगन में बैठा बोफोर्स नाम का भूत 25 साल बाद ले- देकर टला। राहत की सांस को दो दिन भी नहीं बीते थे कि अपने पत्रकार भाई-बहन लोग उनके पिछले आंगन की तस्वीरें लेने लगे। पूछा तो कहा कि पिछले दरवाजे से एक और भूत घुस आया है। रेखा नाम का। रेखा जी, कुछ ही दिनों में माननीय सांसद होंगी। बस शपथ लेने की देर है। लेकिन लोग क्या-क्या चुटकुले सुना रहे हैं। एक आदरणीय मित्र ने लिखा, जो अमिताभ नहीं कर पाए वो सरकार ने कर दिया, जया और रेखा अब एक ही हाउस में हैं। बाद में पाया कि मित्र की कल्पनाशीलता फेसबुक नाम के जंजाल में फैल गयी है। हर कोई ऐसा ही कुछ लिख रहा है और साथ में एक इस्माइली चिपका रहा है।
गुदगुदी असर दिखा रही है। किसी ने कहा, 'जिसने अमिताभ को बोफोर्स में झूठा फंसाया था, उन्हीं लोगों की करतूत है कि अब बोफोर्स से छूटे तो राज्यसभा में फंसा दिया।Ó
लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं कि किस दिन दोनों देवियां आमने-सामने होंगीं। एक कल्पनाशील पत्रकार मित्र ने सलाह दी, 'राज्यसभा के सिटिंग अरेंजमेंट का ग्राफिक बनवाकर उसमें दिखाओ कि जया कहां बैठेंगीं और रेखा कहां बैठेंगीं। इसे वेबसाइट पर लगवाओ। देखो कैसे हिट होता है।Ó कल्पना के घोड़े भाग रहे हैं। लोग आंखे मूंदे मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं। इस महंगाई के जमाने में लोगों को मुफ्त में सुख मिल रहा है। आश्चर्य है कि कोई दुखी नहीं है। आपको अगर दुख है, तो अपना इलाज करवाइए। ये मटुकनाथ उर्फ चौराहे पर प्रेम का गलीज जमाना है। हमारी मीडिया के पास यही सब सुनाने के लिये है और हमारा यही मूल्यबोध है। हो सकता मेरे इस विरोध का हमारे पाठक विरोध करें पर यह तो तय है कि आज पीढ़ी मूल्यहीनता के गहरे गर्त में गिर चुकी है और खास किस्म की बेहयाई को हम तरक्की का चोला पहना रहे हैं।

तरक्की की राह में खुद सरकार रोड़ा

हरिराम पाण्डेय
एक कहावत है न कि व्यापार में लक्ष्मी का वास होता है। इसका मतलब अगर आर्थिक तरक्की करनी हो तो व्यापार को अपनाएं। पर यहां की एक टे्रजेडी है कि हमारे यहां सर्विस सेक्टर फल- फूल रहा है और व्यापार पिट रहा है। बाजार डूबता है। अबसे कोई दो दशक से ज्यादा वक्त हुआ सरकार ने व्यापार को बढ़ावा देने के लिये लाइसेंस राज खत्म किया, आर्थिक उदारीकरण शुरू किया गया पर व्यापार में इजाफा नहीं हुआ। अभी हाल में एक रपट आयी कि 'भारत के बिजनेस में सबसे बड़ी रुकावट यहां की सरकार है।Ó इस बयान के दूसरे हिस्से में पॉलिटिक्स को इकॉनमी पर भारी पड़ता बताया गया है।
पिछले हफ्ते जिस वक्त 'इंटरनेशनल रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्सÓ भारत की रेटिंग घटाने की धमकी दे रही थी, यह बयान दूसरी एजेंसी 'मूडीजÓ की तरफ से आया। रेटिंग घटाया जाना या इनकी धमकी कितना मायने रखती है। इससे प्रणव मुखर्जी का हिसाब ही खराब नहीं होता, हमारे-आपके घर-दफ्तर में मुसीबतें पैदा होने लगती हैं। लिहाजा इनकी बात हमें सुननी तो होगी ही। मूडीज का बयान हम अपनी बदकिस्मती पर ही अनसुना कर सकते हैं, क्योंकि हमारी पॉलिटिक्स और गवर्नेंस सचमुच हमें पीछे धकेल रही है। हम अपना रास्ता खुद रोकने की एक ऐसी मिसाल पेश करने जा रहे हैं, जिस पर दुनिया भविष्य में तरस खाने लगेगी। इस ट्रेजेडी को समझिए। भारत इस वक्त उम्मीदों, जरूरतों और काबिलियत की एक उफनती हुई नदी है। इस नदी को अगर इसका रास्ता नहीं मिले तो या तो वह अनगिनत धाराओं में बंटती हुई बेलगाम हो जाएगी या फिर एक ठहरे हुए तालाब में खत्म हो जाएगी। कैसे माहौल को बेहतर बनाने के बजाय देश के बेहतरीन दिमाग नई उलझनें ईजाद करने में जुटे हैं। सरकार जनता की तरफ से देश को चलाने की अथॉरिटी रखती है और उसे कोई भी कानून बनाने का हक है, लेकिन कानूनों के भी अपने कायदे होते हैं, उनका अपना दर्शन होता है। उनके भी कुछ स्टैंडर्ड हैं, जो इंसानी तरक्की के उसूलों पर टिके हैं। लिहाजा कानून भी अच्छे और बुरे होते हैं, लेकिन सबसे बुरा कानून वह है, जो आज की खामियों को दूर करने के नाम पर पिछली तारीख से लागू कर दिया जाता है। ऐसे फितूरी बदलावों के मुल्क में कौन कदम रखने की हिम्मत करेगा?
सरकार को पैसा चाहिए। बहुत-सा पैसा, क्योंकि देश पर ढेर सारा कर्ज लदा है, क्योंकि जितना खर्च उसे करना पड़ता है, उतनी टैक्स से कमाई नहीं है। मौद्रिक घाटे का हाल बहुत बुरा है। सरकारी फाइनेंस की इस बदहाली ने ही रेटिंग एजेंसियों का पारा गर्म कर रखा है। सरकार जब बिजनेस से ज्यादा वसूलेगी तो ही उसका हिसाब ठीक होगा और देश की साख सुधरेगी। लेकिन, यह हिसाब खराब हुआ कैसे? क्योंकि सरकार को खर्च करने की हड़बड़ी मची हुई है। इसलिए सोशल सेक्टर में ऐसी-ऐसी स्कीमें शुरू की जा रही हैं, जिन्हें पूरी दुनिया में लाजवाब बताया जाता है। इन पर लाखों करोड़ रुपए का खर्च आना है, जबकि इससे पहले ही जो हजारों करोड़ गरीबों की भलाई के नाम पर लुटाए जा रहे हैं, उनका ही इंतजाम करने में सरकारों की हालत पतली होती रही है। ये नए लाखों करोड़ रुपए कहां से आएंगे, कोई नहीं जानता। अगर जीडीपी की दर इतनी-इतनी रहेगी और इतना-इतना रेवेन्यू आएगा, तो सब इंतजाम हो जाएगा। लेकिन पहले ही जीडीपी और रेवेन्यू के सरकारी अंदाजे इस कदर नाकामयाब होते आए हैं कि किसी को उन पर यकीन नहीं है। हैरतअंगेज है यह कि फटे जेब के साथ कोई कैसे इतने बड़े सपने देखने की जुर्रत कर सकता है। और वह भी तब, जब कोई गारंटी नहीं कि सरकारी खजाने से निकला पैसा पहुंचेगा कहां? सरकार खुद मानती है कि गरीबों को एक रुपए में से 20 पैसे मिलते है। बाकी 80 पैसे कहां लग जाते हैं यह सब जानते हैं। भारत का सोशल सेक्टर दरअसल दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला है। एक दूसरे तरीके से भी कंगालों की यह लूट भारत का बंटाधार कर रही है। मनरेगा और पीडीएस ने गांवों में एक घटिया दर्जे की इकॉनमी तैयार कर दी है, जिसने कार्यक्षमता का बंटाधार कर दिया है।
दलालों, घूसखोरों और निठल्लों का एक संसार सरकार की शह पर पनप रहा है। भारत बेमिसाल तरक्की के रास्ते पर खड़ा है, इसे सब मानते हैं। सब इसके आगे बढऩे की प्रतीक्षा में हैं और यह वहीं खड़ा ऊंघ रहा है। जब तक सरकार अपने सोच नहीं सुधारेगी तब तक तरक्की के सपने ही देखे जा सकते हैं और वह भी दिवास्वप्न।

Sunday, April 22, 2012

अमर उजाला में दिनांक 23-4-2012 को संपादकीय पेज पर प्रकाशित एक आलेख


Sunday, March 25, 2012

घुटने टेकता ओडिशा, डरा हुआ बंगाल



हरिराम पाण्डेय (26.3.2012)
माओवादियों ने शनिवार को ओडिशा के सत्ताधारी दल के एक विधायक का अपहरण कर लिया। इसके पहले उन्होंने आंध्र ओडिशा बार्डर स्पेशल जोन के गंजम जिले के सरोदा इलाके से दो इतालवी पर्यटकों का अपहरण कर लिया था। पुलिस ने बताया कि इनमें से एक को रिहा कर दिया है। इसके पूर्व कोरापुट जिले के आलमपद इलाके में उनके द्वारा बिछायी गयी बारूदी सुरंग को हटाने के क्रम में दो पुलिसवाले मारे गये और एक घायल हो गया था। यही नहीं बरगढ़ में एक ठेकेदार की माओवादियों ने गोली मार कर हत्या कर दी। यह सब गत एक हफ्ते में हुआ। यह सब तब हुआ जब माओवादियों को गत एक साल में भारी नुकसान हो गया था, खासकर उनके नेतृत्व काडर में। इन घटनाओं को देखकर लगता है कि ओडिसा में उनकी क्षमता अभी भी सरकार को पंगु बना देने के लिये काफी है। माओवादियों द्वारा किसी विदेशी पर्यटक के अपहरण की यह पहली घटना थी। परंतु इस मामले में माओवादियों का प्रयास कम और अवसर का हाथ ज्यादा था। क्योंकि दोनों इतालवी पर्यटक उस क्षेत्र में क्यों गये थे यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है। इनमें एक बासकुसो पाउलो मामूली 'एडवेंचर टूअर ऑपरेटरÓ है तथा दूसरा, क्लाउडियो कोलांगिलो एक पर्यटक हैं और उस क्षेत्र में उनका कोई प्रयोजन नहीं दिखता है। माओवादियों द्वारा जारी सी डी में उन्हें उस इलाके में घूमता हुआ पकड़ा गया था। माओवादियों द्वारा जारी सी डी में कहा गया गया था उनका अपराध है कि 'अन्य विदेशियों की तरह वे उस क्षेत्र के आदिवासियों से बंदरों की तरह बरताव कर रहे थे और उनका मजाक बना रहे थे।Ó इस क्षेत्र में बोंडा आदिवासी निवास करते हैं और जब इस वर्ष फरवरी में 'टूअर आपरेटरोंÓ ने इस क्षेत्र के पर्यटन की योजना प्रकाशित की तो सरकार ने इस पर तत्काल रोक लगा दी। सरकारी रेकाड्र्स के मुताबिक बासकुसो ने इस इलाके के पर्यटन के लिये अनुमति मांगी थी पर सरकार ने नामंजूर कर दिया था। परंतु उसने इस अस्वीकृति को ताक पर रख कर उस इलाके में पर्यटक को ले जाने का दुस्साहस किया। इन्हें रिहा करने के लिये माओवादियों ने 13 मांगें रखी हैं। इनमें अधिकांश वही हैं जो मलकान गिरि के जिला मजिस्ट्रेट विनील कृष्ण के अपहरण के समय पेश की गयीं थीं। विनील कृष्ण का अपहरण गत 16 फरवरी 2011 को हुआ था और लम्बी वार्ता चली थी और आठ दिन के बाद वे रिहा हो सके थे। माओवादियों ने इस बार सरकार की वार्ता की पेशकश को मानने से इनकार कर दिया है। उनका कहना है कि उस बार जो वायदे किये गये थे वे पूरे नहीं हुए। इस बार उन्होंने जो मांगें रखी हैं उनमें प्रमुख हैं , राज्य भर में माओवादियो के खिलाफ चलाये जा रहे अभियान को बंद किया जाय और शुभश्री पंडा उर्फ मिली सहित 600 माओवादियों को रिहा किया जाय। शुभश्री पंडा ओडिशा राज्य आार्गेनाइजिंग कमिटि के सचिव सब्यसाची पंडा की पत्नी है और इसके नियंत्रण में गंजाम जिला है जहां से दोनो इतालवी पर्यटकों का अपहरण किया गया है। इसके अलावा जिन लोगों को रिहा करने की मांग की गयी है वे हैं गणनाथ पात्र। गणनाथ पात्र नारायण पटना के 'चासी मुलिया आदिवासी संघÓ के सलाहकार हैं और नारायण पटना में नहीं घुसने की शर्त पर इनकी जमानत हो चुकी है पर उन्होंने जेल से निकलना स्वीकार नहीं किया। इनके अलावा है माओवादियों की केंद्रीय मिलिटरी कमीशन के सदस्य आशुतोष सौरेन। मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने मानवता के आधार पर अपहृत लोगों को रिहा कर देने की अपील की है। सरकार ने कहा है कि 'कानून के दायरे में उनसे बातचीत की जायेगी।Ó माओवादियों ने वार्ता के लिये तीन मध्यस्थों के नाम पेश किये हैं। इनमें से एक सी पी आई (माओवादी) की पोलित ब्यूरो का सदस्य नारायण सान्याल है जो कि फिलहाल झारखंड की गिरिडीह जेल में बंद है, दूसरा है, दंडपाणि मोहंती और तीसरा है विश्वप्रिय कानूनगो। मोहंती विनील कृष्ण के अपहरण के समय भी मध्यस्थ थे और मोहंती पेशे से वकील हैं तथा सब्यसाची पंडा की बीवी शुभश्री की पैरवी वही कर रहे हैं। यहां यह बता देना प्रासंगिक है कि विनील कृष्ण के अपहरण के समय हो रही वार्ता के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने मुख्यमंत्री को सलाह दी थी कि वे किसी माओवादी की रिहाई न स्वीकारें क्योंकि इससे एक गलत नजीर बनेगी। लेकिन मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने उनकी सलाह नहीं मानी थी। इस बार भी लगता नहीं है कि सरकार कुछ ज्यादा दृढ़ता दिखायेगी, क्योंकि मसला दो विदेशियों का और एक विधायक का है और माओवादियों ने स्पष्टï चेतावनी दे दी है कि वे बंधकों को समाप्त कर देंगे। माओवादी अपनी बात से डिगेंगे या भविष्य में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन आयेगा ऐसा नहीं लगता बशर्ते सरकार ने कोई बहुत बड़ी कमजोरी ना दिखायी। वैसे भी सब्यसाची पंडा अपनी पार्टी में बहुत उपेक्षित हैं और एक बार उनपर अनुशासनात्मक कार्रवाई भी हो चुकी है। हो सकता है कि उन्होंने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिये ये अपहरण किया हो। ऐसी स्थिति में ओडिशा में भारी हिंसा की आशंका है और वह हिंसा पश्चिम बंगाल के सीमा क्षेत्रों में भी फैल सकती है।

क्या हम इस तंत्र को लोकतंत्र कह सकते हैं



हरिराम पाण्डेय ( 24.3.2012)
सरकार और जनता के रिश्तों पर बात करनी हो तो बड़ी कठिनाई होती है। अब पिछले साल राम लीला मैदान में आधी रात को हुई पुलिस कार्रवाई की ही बात लें। इस पर गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया। फैसले ने उस सबसे बड़े सवाल को रेखांकित कर दिया है जिससे हमारा लोकतंत्र मौजूदा दौर में जूझ रहा है। वह है विश्वास की कमी। देश की आम जनता अगर शांतिपूर्ण विरोध के मकसद से इक_ा होती है और वह किसी तरह की तोडफ़ोड़ जैसी गतिविधियों में शामिल नहीं होती, शांतिपूर्वक मैदान में बैठी रहती है तो यह सोचने का कोई कारण नहीं बनता कि अगले दिन कुछ ज्यादा लोग जमा हो जाएं तो कानून व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। आखिर सरकार अपने ही लोगों से इस कदर आशंकित क्यों रहती है कि शांति भंग होने की आशंका से निपटने के लिए उसकी पुलिस को शांति भंग करनी पड़ जाती है? इस आशंका को किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए स्वाभाविक तो नहीं ही कहा जाएगा।
मगर, बात दूसरी तरफ भी जाती है। लोगों का भी सरकार पर वैसा ही अविश्वास है। उनका अपने नेताओं पर, अपने मंत्रियों पर, अपने विधायकों-सांसदों पर कोई यकीन नहीं रह गया है। यह बात एक बार नहीं बार-बार रेखांकित हुई है। तो सवाल यह है कि आखिर जनता अविश्वसनीय नेताओं को क्यों स्वीकार किए हुए है? इस सवाल के दो ही जवाब हो सकते हैं। पहला जवाब तो वे सारे नेता और वे सब लोग देते हैं जिन्हें शासकों की जमात में शामिल किया जा सकता है। वह जवाब यह है कि दरअसल लोगों का अपने प्रतिनिधियों, नेताओं, मंत्रियों यानी शासकों पर अविश्वास है ही नहीं। मीडिया और अण्णाा हजारे, बाबा रामदेव जैसे चंद निहित स्वार्थी तत्व दुष्प्रचार करते हैं। अगर जनता का नेताओं पर भरोसा नहीं होता तो वह इन्हें क्यों कर बर्दाश्त करती? वह इन्हें बर्दाश्त किए जा रही है, अपने आप में यही एक तथ्य काफी है यह साबित करने को कि जनता नेताओं पर भरोसा करती है और कमोबेश असंतोष के साथ उनके नेतृत्व को स्वीकार करती है।
दूसरा जवाब यह है कि जनता का अपने नेताओं पर कोई भरोसा नहीं रहा है। वह अगर इन्हें बर्दाश्त कर रही है तो उसकी इकलौती वजह यह है कि उसके पास कोई बेहतर विकल्प नहीं है। इस जवाब के पक्ष में सबूत के तौर पर यह दलील ठोकी जाती है कि जब भी जनता को बेहतर विकल्प मिलता दिखता है - चाहे वह अण्णा हजारे हों या कोई और- तो वह उस विकल्प की ओर बढ़ती है। ऐसा गैर राजनीतिक विकल्प आम जनता में जिस तरह का जोश अचानक जगा देता है, उसी से साबित हो जाता है कि आज के पूरे राजनीतिक वर्ग से जनता किस कदर खफा है।
सबूतों के अभाव में किसी एक फैसले पर पहुंचना मुश्किल होने की वजह से हर कोई अपनी सुविधा और सहूलियत के हिसाब से किसी एक दलील को स्वीकार कर लेता है। इतना तय है कि अगर आप पहला जवाब चुनते हैं तो आपको यह मानना होगा कि आज के नेता-मंत्री जो भी कर रहे हैं उसी में देश का भला है। जहां तक थोड़े-बहुत असंतोष की बात है तो उससे निपटने के लिए कभी अलां, कभी फलां को चुनते रहें। 'सभी नेता चोर हैंÓ और 'सारे एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैंÓ जैसे बयान देने का अधिकार आपके पास नहीं रह जाएगा।
अगर आप दूसरे जवाब को चुनते हैं तो और बड़ी दिक्कत में फंसेंगे। उस केस में आप इतना कहकर नहीं बच पाएंगे कि जनता ने सभी दलों को खारिज कर दिया है। आपको नया लोकतांत्रिक विकल्प भी सुझाना पड़ेगा। अगर आपको भी कोई विकल्प नहीं सूझ रहा हो तो फिर नया विकल्प खोजने या नया विकल्प बनाने की जिम्मेदारी भी आपके सिर आएगी। इन दोनों कठिन जवाबों में से कौन सा जवाब चुनना चाहिए इस कठिन सवाल पर आप माथापच्ची करें, हम उस सवाल पर लौटते हैं जिसे सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने रेखांकित किया है, विश्सवनीयता की कमी का सवाल। तो अगर नेताओं को जनता पर और जनता को नेताओं पर भरोसा नहीं रह गया है और फिर भी दोनों एक-दूसरे का पल्लू थामे हुए हैं तो सोचिए क्या हम इस तंत्र को लोकतंत्र कह सकते हैं?

नहीं सुधरेगा उत्तर प्रदेश



हरिराम पाण्डेय ( 23.3.2012)
समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी के नेताओं - कार्यकत्र्ताओं के लिये निर्देश जारी किया है कि वे आम जनता के बीच अच्छा आचरण प्रस्तुत करें। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी कहा कि वे अपनी पार्टी के कार्यकत्र्ताओं की गुंडागर्दी बिल्कुल नहीं बर्दाश्त करेंगे। जातिगत और सांप्रदायिक राजनीति का गढ़ होने की वजह से देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले इस महत्वपूर्ण प्रांत में काफी समय से वस्तुत: सरकार नाम की कोई चीज थी ही नहीं। चुनाव के दौरान उन्होंने वादा किया कि उनकी सरकार आयी तो विकास और उन्नति की बातें होंगी। बदले की राजनीति नहीं होगी, आपराधिक तत्वों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और उनसे सख्ती से निपटा जाएगा। जनता ने उनकी बातों पर एतबार कर लिया। चुनाव के दौरान डी पी यादव जैसे मंत्री को टिकट नहीं देकर उन्होंने अपने वायदों पर चलने की उम्मीद भी जगायी थी परंतु शपथ ग्रहण के बाद से जो कुछ भी हो रहा है वह बहुत खतरनाक संकेत है। अखिलेश को निर्णायक बहुमत मिलने के कुछ दिनों के भीतर ही दावों और वादों की हकीकत सामने आने लगी। समाजवादी पार्टी के जीतते ही उसके समर्थक गुंडागर्दी पर उतर आए। कुछ जगहों से रिपोर्टें आयीं कि विजय जुलूस के दौरान समर्थक हथियार लहराते देखे गए। यह एक तरह से चेतावनी थी कि अब हम से मत टकराना। बात यहीं नहीं रुकी। अखिलेश ने समझौता करने की पारंपरिक राजनीति के सामने हथियार डाल दिए और अपनी कैबिनेट में 'कुंडा का गुंडाÓ के नाम से मशहूर बाहुबली कुंवर रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को शामिल कर लिया।
बात यहीं खत्म हो जाती, तो भी संतोष होता। इससे भी बुरा होना था। मंत्रियों में जब विभागों का बंटवारा हुआ तो राजा भैया को जेल मंत्री बनाया गया। अखिलेश और उनके विचारों के प्रबल समर्थकों के लिए भी यह किसी झटके से कम नहीं था।
राजा भैया का आपराधिक इतिहास रहा है। वह अब भंग हो चुके पोटा कानून के तहत जेल में रहे हैं और उनके घर पर रेड मारने वाले पुलिस ऑफिसर की हत्या के आरोपी हैं। संदेहास्पद परिस्थिति में पुलिस अधिकारी की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी। सीबीआई अभी भी इस मामले की जांच कर रही है। इसके अलावा भी उनके खिलाफ मुकदमों की लंबी लिस्ट है। इस विधानसभा चुनाव के दौरान राजा भैया ने चुनाव आयोग में जो हलफनामा जमा किया है, उसके मुताबिक उनके खिलाफ लंबित आठ मुकदमों में हत्या की कोशिश, अपहरण और डकैती के मामले भी शामिल हैं। उत्तर प्रदेश गैंगेस्टर ऐक्ट के तहत भी उनके खिलाफ मामला चल रहा है।
अखिलेश लंबे-चौड़े वादे के साथ सत्ता में आये हैं और शासन (सुशासन) के लिए तरस रही सूबे की जनता उनकी ओर उम्मीद भरी निगाह से देख रही है। जैसा कि पड़ोसी राज्य बिहार ने दिखाया है कि वोटर भी अंत में केस और संप्रदाय की राजनीति के बजाय उन्नति और विकास को तरजीह देते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग तर्क दें कि उत्तर प्रदेश जैसे सूबे में जहां प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ आरोप तय किए जाने में जाति और दूसरी बातों का ध्यान रखा जाता है, राजा भैया एक पीडि़त हैं और उनके खिलाफ ज्यादातर मामले झूठे हैं। राजा भैया को कैबिनेट में शामिल किए जाने पर पूछे गए सवाल के जवाब में अखिलेश ने भी यही तर्क दिया। पर, क्या अखिलेश ने यह नहीं सुना है कि सार्वजनिक जीवन जीने वाले और उनके सहयोगियों को शंका से परे होना चाहिए। एक तो दागी को मंत्री बनाया, उस पर से उसे जेलों का इंचार्ज बना दिया। जहां तक लोगों के नजरिए की बात है, तो निश्चित रूप से यह उन्हें पचता नहीं दिख रहा है। और, नजरियों का प्रबंधन बेहद जरूरी है। यह एक चोर को पुलिस का दर्जा देने जैसा है। यानी आशंका है कि फिर वही सब होगा जो अबतक यूपी में होता आया है। महाकवि धूमिल से क्षमा याचना के साथ उनकी पंक्तियों में मामूली संशोधनों के बाद कह सकता हूं कि 'इतना बेशरम हूं कि उत्तर प्रदेश हूॅं....।Ó

प्रख्यात अालोचक डा नामवर सिंह के साथ एक सेमिनार में





महात्मा गांधी अंतरराष्टरीय विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित विचार गोष्ठी में विख्यात समालोचक एवं विश्वविद्यालय के कुलाधिपति डा. नामवर सिंह एवं सन्मार्ग हिंदी दैनिक के सम्पादक हरिराम पाण्डेय

Thursday, February 2, 2012

सोनार बांग्ला की काली तसवीर


अमर उजाला में एक फरवरी 2012 को प्रकाशित

हरिराम पाण्डेय
शस्य श्यामला भूमि और सोनार बांग्ला के नाम से मशहूर पश्चिम बंगाल के गांव आरंभ से ही गरीबी और भुखमरी का शिकार रहे हैं। एक तरफ गरीबी और कर्ज से ऊबकर खुदकुशी करते किसान हैं, दूसरी तरफ बीमार बच्चों को तड़पते और मरते देखने के लिए मजबूर मां-बाप। यही नहीं, मुर्शिदाबाद और मालदह जिलों से बच्चों की तस्करी और युवतियों की परोक्ष रूप से खरीद-फरोख्त भी सोनार बंगला के काले पक्ष का खुलासा करते हैं।
राज्य के विभिन्न अस्पतालों में बच्चों की लगातार मौत ने एक बार फिर यहां की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की हकीकत पर से परदा उठा दिया है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि राज्य में औसतन साल भर में 40,000 बच्चे विभिन्न कारणों से मौत के शिकार होते हैं। केवल विगत एक जनवरी से 31 जनवरी के बीच राज्य के विभिन्न अस्पतालों में 100 से ज्यादा बच्चे मर गए, जिनकी उम्र तीन घंटे से तीन साल के बीच थी। मौजूदा सरकार इसे साजिश बताती है, जबकि बच्चों के मां-बाप इसे अस्पतालों की लापरवाही बताते हैं। डॉक्टरों का कहना है कि चिकित्सा सुविधाओं और चिकित्सकों की कमी के कारण यह सब हो रहा है। हालांकि केंद्र सरकार में स्वास्थ्य राज्य मंत्री और तृणमूल कांग्रेस के नेता सुदीप बंदोपाध्याय का दावा है कि राज्य में शिशु मृत्युदर घटी है और बच्चों की मौत का प्रचार साजिश है। लेकिन उनके पास इसका कोई जवाब नहीं है कि साजिश कौन कर रहा है। यही हाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का भी है।
सरकार और उसके समर्थक चाहे जो कहें, पर सचाई यह है कि राज्य में शुरू से अब तक स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। यहां के सरकारी अस्पतालों पर सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं का राज चलता रहा है। ये राजनेता डॉक्टरों का अपमान करते हैं, जिससे उनका नैतिक बल गिरता है। इसके अलावा सरकारी अस्पतालों में भरती रोगियों की तादाद दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। जिन अस्पतालों में बच्चों की मौत हुई है, उनमें क्षमता से तीन गुना ज्यादा बच्चे भरती हैं। ये बच्चे डायरिया, सांस में तकलीफ या कुपोषण के शिकार हैं। तीनों स्थितियों में शरीर की प्रतिरोधक क्षमता घट जाती है और तरह-तरह की बीमारिया धर दबोचती हैं।यही नहीं, आर्थिक दुरावस्था के कारण गर्भ के दौरान माताओं को उचित पोषाहार नहीं मिलने के कारण बच्चे जन्म से ही कमजोर होते हैं। इसके अलावा महंगी दवाओं तक पहुंच नहीं होने से मां-बाप असहाय होते हैं।
पश्चिम बंगाल की सबसे बड़ी त्रासदी है यहां की शासन व्यवस्था, जो अपनी हर कमजोरी को पूर्ववर्ती सरकार पर डालकर किनारा कर लेती है। इसके अलावा यहां की विपन्न आर्थिक स्थिति को सामाजिक व्यवस्था और मूल्य पद्धति भी दुखद बनाती हैं। मुहल्ले के क्लबों और खेल संघों को करोड़ों रुपये बांटने वाली सरकार अस्पतालों में सस्ती दवा नहीं मुहैया कराती। दूर-दराज के प्रखंड स्तरीय अस्पतालों में मामूली दवाएं तक नहीं हैं। बंगाल के पूर्वी क्षेत्र में सबसे ज्यादा मौतें सांप काटने से होती हैं और बच्चे इसके सबसे ज्यादा शिकार हैं। लेकिन स्थानीय सरकारी अस्पतालों में इसके इलाज की कोई व्यवस्था नहीं है। डॉक्टर मरीजों को शहर ले जाने का सुझाव न देकर इलाज का नाटक करते हैं। इसके बारे में प्रशासन को भी जानकारी होती है, लेकिन वह भी असंवेदनशील रवैया अपनाता है।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पश्चिम बंगाल में 10.6 फीसदी आबादी को साल भर पर्याप्त भोजन नहीं मिलता।ऐसे में बीमार होना स्वाभाविक है। अस्पतालों में बच्चों की मौत एक सामाजिक संकट है। कुपोषित और बीमार बच्चों को तभी अस्पताल लाया जाता है, जब उनकी हालत नियंत्रण से बाहर चली जाती है। ऐसे में डॉक्टरों के अभाव से जूझते अस्पताल कुछ नहीं कर पाते। सरकार को चाहिए कि सभी रेफरल अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में सस्ती दवा की दुकानें खुलवाने की व्यवस्था करे। सरकार यदि व्यापक कल्याण चाहती है, तो उसे इस दिशा में कुछ करना ही होगा।

Monday, January 30, 2012

बंगाल में ममता और मारवाडिय़ों ठनी

- हरिराम पाण्डेय
पश्चिम बंगाल में इन दिनों प्रवासी राजस्थानियों , जिन्हें यहां मारवाड़ी कहा जाता है, और सरकार में तनाव पैदा हो गया है। आमरी अस्पताल कांड में गिरफ्तार निदेशकों के मामले में फिकी के बयान पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की प्रतिक्रिया से राज्य मारवाड़ी काफी नाराज से प्रतीत हो रहे हैं अस्पताल में आग की दुखद घटना के बाद अस्पताल के केवल मारवाड़ी निदेशकों को ही गिरफ्तार किया गया जबकि बंगाली निदेशकों को कार्रवाई के दायरे से बाहर रखा गया। हालांकि, एएमआरआई घटना से संबंधित बिल्कुल अव्यवस्थित तरीके से चयनित गिरफ्तारियां निश्चित रूप से निंदनीय हैं, लेकिन बंगाल में व्यापार और राजनीति के रिश्तों की बदलती प्रकृति को जानना रोचक है।
याद कीजिए 60 का दशक जब नक्सलियों के पूंजीवाद विरोधी आंदोलन के दौरान कोलकाता (तब कलकत्ता) में किसी भी मारवाड़ी व्यापारी पर कोई हमला नहीं हुआ। 80 के दशक तक खेतान, गोयनका, खेमका, चितलांगिया, कनोडिय़ा और कोठारी, लोढ़ा, रुइया और तोदी बंधुओं ने तेजी से अपना व्यापार साम्राज्य खड़ा करना शुरू कर दिया। इनमें से ज्यादातर औद्योगिक साम्राज्य उन ब्रिटिश कंपनियों के अधिग्रहणों से स्थापित हुए, जिनके प्रवतज़्क विदेशी मुद्रा विनिमय अधिनियम लागू होने के बाद भारत छोड़ गए थे। अधिनियम लागू होने के बाद उनके लिए भारतीय सहायक इकाइयों में हिस्सेदारी घटाना जरूरी था। गौर करने वाली बात यह रही कि लगातार हड़ताल और तालाबंदी की वजह से राज्य में उस दौरान काम का नुकसान होने वाले दिनों की संख्या बढ़ती जा रही थी, लेकिन मारवाड़ी समुदाय को कोई परेशानी नहीं हुई और उनकी कमाई क्षमता भी नहीं घटी। मसलन, 70 के दशक के अंत तक जूट उद्योग बड़े पैमाने पर मारवाडिय़ों के हाथों में चला गया। मजदूरी को लेकर मिलों के कर्मचारी काम बंद करते रहे और मिल मालिक अक्सर तालाबंदी की घोषणा करते रहे, नतीजतन जूट किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। ऐसे दशकों पुराने मामलों के प्रति वैचारिक रूप से सवहारा वर्ग की खैरख्वाह पार्टी का ध्यान जाना चाहिए था, लेकिन ऐसे दलों के प्रतिनिधियों ने इन मसलों की कोई परवाह नहीं की।
इसके बाद पश्चिम बंगाल की राजनीति में बनर्जी के उभार से वर्षों पुराना समीकरण बड़े पैमाने पर बिगडऩे लगा क्योंकि उद्योगपतियों ने वाम मोर्चे पर भरोसा किया था, वे भी अब बंगाल से कदम पीछे खींच रहे हैं।
जबसे ममता बनर्जी ने सत्ता संभाली तबसे उन्होंने उद्योग विरोधी अपनी छवि को खत्म करने के लिये कई उपक्रम किये। जिसमें बंगाल लीड्स ताजा उदाहरण है। बंगाल लीड्स के परिणाम के बारे में प्राप्त जानकारी के मुताबिक उद्योगपतियों ने ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखायी है। यहां यह बता देना जरूरी है कि राज्य के वित्त मंत्री अमित मित्रा को यह पद इसलिये मिला कि वे फिकी के सेक्रेटरी जनरल रह चुके हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि फिकी , जिसमें अभी भी मारवाड़ी समुदाय के उद्योगपतियों का बाहुल्य है। मित्रा बखूबी जानते हैं कि यह भारतीय उद्योगपतियों का स्वदेशी मंच हुआ करता था और उसे पक्का राज मल्टीनेशनल्स के संगठन एसोचेम के मुकाबले जी डी बिड़ला ने आरंभ किया था। परंपरागत तौर पर फिकी के अधिकांश सदस्यों के व्यवसायिक सम्पर्क कोलकाता से थे और हैं। ये लंबा सम्पर्क प्रमाणित करता है कि बंगाल में बंगाली मारवाड़ी विभाजन नहीं था। यहां तक कि चुनाव के पहले वित्त मंत्री अमित मित्रा ने कहा था कि - ममता जी मारवाड़ी समुदाय की जरूरतों, भावनाओं और अपेक्षाओं को अच्छी तरह समझती हैं और मैं समझता हूं कि राज्य में पूंजी का निवेश कैसे होगा-इसी कारण से उम्मीद थी कि यहां इस तरह के सामुदायिक विभेद नहीं होगा। यहां तक अमित मित्रा ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान साफ कहा था कि एक अर्थशास्त्री के तौर मैं विगत कई वर्षों से देख रहा हूं कि यहां से पूंजी का पलायन हो रहा है और राज्य का आर्थिक विकास हतोत्साहित हो रहा है। अगर हम बहुत जल्दी इस प्रवृत्ति को उलटने का प्रयास नहीं करते हैं तो काफी विलम्ब हो जायेगा और बात बिगड़ जायेगी। लेकिन हकीकत कुछ और ही नजर आ रही है। हालांकि मारवाड़ी समुदाय के प्रति नकारात्मक रुख रखने के लिये मशहूर पूर्ववर्ती माक्र्सवादी सरकार के लेजेंड मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने अपने सम्बंध सुधार रखे थे। उनके बारे में कहा जाता था कि सी पी एम के एम का अर्थ मारवाड़ी है।
परंतु आमरी कांड के बाद ममता जी की टिप्पणियों से पूरा समुदाय क्षेभ में है। यहां तक कि शहर के मशहूर औद्योगिक घराने के मुखिया का कहना है कि वे यहां अब और निवेश के मूड में नहीं हैं। जबकि वे महानुभाव पहले ममता जी के हर आयोजन में दिखते थे। बंगाल लीड्स सम्मेलन में भी उद्योगपति बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं दिखे। कई बड़े उद्योगपति तो दिखे ही नहीं। कई बड़े परिवार जो अस्पताहल के धंधे में थे उनहोंने कारोबार समेटना शुरू कर दिया है और कई अस्पताल बंद हो रहे हैं। शहर के एक मशहूर अस्पताल श्री विशुद्धानंद अस्पताल के ्रदरवाजे बंद होने के बाद सरकार के आश्वासन के बाद खुला है। लेकिन कई बड़े मारवाड़ी परिवार जिन्होंने आजादी के बाद यहां की अर्थ व्यवस्था को सुधारने मे बहुत बड़ा योगदान किया है, वे अब पूंजी समेटने के चक्कर में हैं और अनमें से कई ने तो खुल कर कहना भी आरंभ कर दिया है कि वे अब यहां से कारोबार समेट कर गुजरात या राजस्थान में पूंजी लगायेंगे। यहां तक कि मारूति के पूर्व प्रबंध निदेशक जगदीश खट्टïर का कहना है कि आमरी के निदेशकों के खिलाफ जो भी कार्रवाई की जा रही है वह कानून के अनुरूप होनी चाहिये वरना इससे पूंजी निवेश प्रभावित होगा।
वतज़्मान माहौल में मारवाडिय़ों के खिलाफ सख्त शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है। ज्यादातर मारवाडिय़ों ने कारोबार के विस्तार की योजनाएं बनाई थीं, लेकिन उनके ताजा निवेश पर विराम लग गया है। उनमें से कुछ तो कंपनी बोर्ड छोडऩे पर भी विचार कर रहे हैं, जहां वे स्वतंत्र निदेशकों की भूमिका में हैं।
ममता बनर्जी मैनिकियन (एक विशेष और प्राचीन पंथ जहां अच्छे और बुरे की सतत लड़ाई चलती है) ब्रांड की राजनीति करती हैं, जिसका मतलब है कि वामपंथ के प्रति उनका निष्ठुर रवैया हमेशा बरकरार रहेगा। लिहाजा वाम
मोर्चे से जुड़ाव का खमियाजा मारवाड़ी समुदाय को भी झेलना होगा। एएमआरआई त्रासदी से भी यही संदेश मिला है और यह देखना है कि कौन सा पक्ष इससे क्या सबक लेता है। - लेखक वरिष्ठï पत्रकार हैं

Tuesday, January 10, 2012

हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में सर्वाधिक प्रसारित समाचार पत्र ..आज समाज.. में 10-1-2012 को प्रकाशित आलेख

Saturday, January 7, 2012

31 दिसम्बर 2011 को दिल्ली और चंडीगढ़ से प्रकाशित आज समाज में सम्पादकीय पेज पर प्रकाशित लेख


व्यापक मानवाधिकार क्रांति की जरूरत
- हरिराम पाण्डेय
आजादी के तुरत बाद नेता और प्रशासन मीडिया को 'मैनेजÓ कर समाज और विभिन्न जनसमुदायों में अपने कार्यो के प्रति धारणाओं का निर्माण करती थी। इसी 'मैनेजमेंटÓ के बल पर कई शासनकाल स्वर्णिम हो गये। इसके बाद एक परिवर्तन आया। उसमें सरकार मडिया से मिलकर जनता में बनने वाली धारणाओं को 'मैनेजÓ करती थी। आपातस्थिति के दौरान यह प्रयोग नाकाम साबित हुआ। अब एक नयी स्थिति पैदा हो गयी है। अब धारणाओं को ही नियंत्रित करने का प्रयास किया जा रहा है। पश्चिम बंगाल की ताजा राजनीति में दो स्थितियां इसका स्पष्टï उदाहरण हैं। पहली स्थिति है उद्योगीकरण के विरोध में ममता बनर्जी का लोगों के दिलो दिमाग पर छा जाना और दूसरा अस्पताल अग्निकांड में सरकार के कामकाज के प्रति प्रकार के विरोध के स्वर का अभाव।
वाम मोर्चा ने विगत 30 वर्षों के शासन काल में यहां के समाज की सामाजिक धारणाओं को एक रेखीय कर दिया था। जिसमें सत्ता को आदर्शों से जोड़ कर जनधारणाओं में विरोध को न्यूनतम कर दिया गया था। वर्ग संघर्ष का नारा देने वाली सरकार ने सबसे ज्यादा हानि संघर्ष को ही पहुंचायी लेकिन तब भी कुछ नहीं हुआ। समाजिक स्तर पर किसी प्रकार के विप्लव की चिंगारी नहीं दिखी। धारणाओं को 'मैनेजÓ करने का इससे बढिय़ा उदाहरण नहीं मिलेगा। उद्योगीकरण के उद्देश्य से भूमि अधिग्रहण को ममता जी ने बंगाल के विपन्न समाज की एक रेखीय मानसिकता को जनता के अस्तित्व से जोड़ दिया और उससे उत्पन्न स्थिति को बदलाव का कारक बना दिया। लेकिन समाज के सोच का ढांचा नहीं नहीं बदल सका। ममता जी ने इसके लिये ठीक वही 'ऑडियो- विजुअल Ó तरीका अपनाया जो आजादी की लड़ाई के आखिरी दिनों में महात्मा गांधी ने अपनाया था। इसमें धारणाओं को 'मैनेजÓ नहीं बल्कि उन्हें नियंत्रित किया जाता है। इसका ताजा उदाहरण है आमरी अस्पताल कांड।
इस अस्पताल के बेसमेंट में एक रात अचानक आग लग गयी और पूरा अस्पताल गाढ़े धुएं से भर गया। दर्जनों मरीज मारे गये। सरकार ने आनन-फानन में अस्पताल प्रबंधन के लोगों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया और मुआवजे की घोषणा कर दी। विदेशी नेताओं ने भी सहानुभूति जाहिर की। सरकार से किसी को भी कोई शिकायत नहीं। लेकिन इस डर से इंकार नहीं किया जा सकता कि अगले चंद दिनों में ऐसी भयानक घटना फिर होगी। यह घटना इतिहास में गुम हो जायेगी। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
इसमें सबसे हैरतअंगेज बात है कि यह कांड प्रशासन और सिविल सोसायटी के सामुदायिक चिंतन की असफलता का प्रतीक है। धारणाओं को नियंत्रित करने वाले इस शासन तंत्र में उम्मीद है कि इस दिशा में कभी भी जोरदार ढंग से बात नहीं उठेगी। लोकतंत्र में ऐसी घटना हुई और अब तक कोई सार्थक कारवाई नहीं हो पायी यह न केवल स्तम्भित करने वाली घटना है बल्कि निंदनीय भी है। हमारा राज्य या हमारा मुल्क कहां है और उसका भविष्य क्या होगा वह इसीसे पता चलता है कि ऐसी घटनाओं पर सरकार क्या कार्रवाई करती है और इसके रोकथाम के लिये कितने कारगर कदम उठाये जा रहे हैं। इस घटना के प्रति जो रुख देखा गया है उससे नहीं लगता कि भविष्य सही है। आखिर क्यों?
चलिये डाक्टरों से शुरू करते हैं, क्योंकि यह एक वर्ग है जिस पर हमारे देश का स्वास्थ्य टिका है। डाक्टर जब स्नातक हो कर निकलते हैं तो 'हिप्पोके्रटीजÓ की शपथ लेते हैं। इस शपथ में कहा जाता है कि 'वे अपने रोगियों को किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचने देंगे।Ó लेकिन जो खबरें मिल रहीं हैं उससे तो लगता है कि आग लगने के बाद फायर ब्रिगेड को बुलाने के बदले वहां से डाक्टर ही सबसे पहले भागे। क्या यह मामला गैर इरादतन हत्या का नहीं है? क्या उनपर मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिये? यही बात अस्पताल के कर्मचारियों और पहरेदारों पर भी लागू होती है। हैरत होती है कि क्या प्रभावित रोगियों के परिजनों की ओर से एक सामूहिक याचिका क्यों नहीं दायर की गयी और यह भी नहीं लगता कि हमारी अदालतें इसे समुचित अवधि , मान लें कि 6 माह में, निपटा सकेगी। अब बात आती है अस्पताल के मालिकों की। जो पता चला है उसके मुताबिक अस्पताल में कई नियमों का उल्लंघन किया गया था। अग्निशमन नियमों! की पूरी अनदेखी की गयी थी। भवन निर्माण कानून की बिल्कुल परवाह नहीं की गयी थी। ऐसा लगता है कि मालिकों ने किसी भी नियम या कानून की परवाह नहीं की। वरना कोई भी सोचने समझने वाला इंसान इस घटना की पहले ही कल्पना कर सकता था। यह स्थिति साफ बताती है कि उनपर भी गैर इरादतन मानव वध का मुकदमा चलाया जाना चाहिये। दुनिया के हर सभ्य देश में इस अपराध के लिये मृत्युदंड है। अब आती है बात सरकार की। वर्तमान राज्य सरकार ने राज्य की बीमार स्वास्थ्य सेवा को ठीक करने के लिये कई कदम उठाये। उन कदमों का जम कर प्रचार भी हुआ। अस्पताल में जब आग लगी तो मुख्यमंत्री अविलम्ब घटनास्थल पर पहुंच गयीं। उन्होंने मुआवजा भी घोषित किया और दोषियों कठोर दंड की भी घोषणा की। लेकिन क्या सरकार दोषी नहीं है। सरकारी महकमों को मालूम था कि इस अस्पताल में अग्निशमन और भवन कानूनों का पूरी तरह उल्लंघन हुआ है। तब उन्होंने अस्पताल को इतने दिनों तक क्यों चलने दिया जबकि वे अनुमान लगा सकते थे कि इतनी बड़ी घटना हो सकती है। अथवा यह सरकार इतनी नाकारा है कि उसकी एजेंसियों ने कोई खबर ही नहीं दी और इतने लोगों की जान चली गयी। अगर ऐसा है तो अभी कहां - कहां कितने लोगों की जानें जाएंगी यह भगवान ही जानें। अगर सरकार जानती थी तो उसने आंखें क्यों मूंद रखी थी। बेशक किसी सरकार पर गैर इरादतन हत्या का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता लेकिन कोई सरकार अगर ऐसे संस्थानों! को बढ़ावा देती है तो क्या होगा इसका अंदाजा सहज ही लगया जा सकता है। सरकार को इतनी आसानी से नहीं बख्शा जा सकता। यह सिविल सोसायटी और कोर्ट दोनों के लिये अवसर है कि अपनी ताकत दिखाये और सरकार को इसके किये की सजा दे।
लोकतंत्र का मूल उद्देश्य जनता के जीवन, स्वतंत्रता और खुशी की पड़ताल है। जनता के प्रतिनिधियों का यह कर्तव्य है कि वह लोकतंत्र के इन आदर्शों की रक्षा करें। सरकार इस कसौटी पर बिल्कुल नाकार साबित होती है। एक अस्पताल जो अपने यहां इलाज के लिये काफी ऊंची कीमत वसूलता है वह नियमों! को ताक पर रख कर अपना कारगोबार करता है और सरकार को कोई चिंता नहीं। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है? लोकतंत्र में सरकार द्वारा जनता के विश्वास के सर्वनाश का इससे बड़ा उदाहरण हो ही नहीं सकता।
यही हाल ह हमारी केंद्र सरकार का। रिकार्ड तोड़ घोटाले और उसके बाद भी नीचता भरी बेशर्मी से शासन करना यह लोकतंत्र के साथ गद्दारी नहीं तो और क्या है। सरकारों के इस रवैये से आम जनता के भीतर इतनी कुंठा व्याप गयी है कि उसका विरोध मर गया। यही कारण है कि लाशों पर लाशों के अंबार लग रहे हैं और जनता के बीच से आवाज नहीं उठ रही है। सिविल सोसायटी चुप है। इसके लिये कौन दोषी है? या भारत की जनता की किस्मत ही है कि उस पर वही सरकार शासन करेगी जिसमें अपनी सुरक्षा और उसके अधिकारों का कोई ख्याल नहीं है। यह बेहद खतरनाक स्थिति है। ज्वभिन्न सरकारों ने देश की सामूहिक अभिज्ञा को लगभग समाप्त कर दिया है और अब विभिन्न तंत्रों से उसे जो सूचनाएं दी जा रहीं हैं वह धारणाओं को नियंत्रित कर उसके प्रभावों को निर्देशित कर रहीं हैं। हमारे देश में एक शून्य निर्मित हो गया है। इस शून्य को भरने के लिये एक अभिज्ञ और सक्रिय सिविल सोसायटी की जरूरत है जो सूचना के निश्चेतना जनक प्रभावों को समझे। एक ऐसी सिविल सोसायटी जिसका मुख्य उद्देश्य अपने समाज के लोगों की हिफाजत , अभिव्यक्ति की आजादी और मानवाधिकार की रक्षा हो तथा जो एक ऐसे स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली का भागीदार हो जो मुख्य उद्दश्यों! को आघात पहुंचाने वाले तत्वों को निर्दयतापूर्वक कुचल दे। बस केवल आशा की जा सकती है कि ये घटनाएं देश में एक नयी सिविल सासायटी के उद्भव का पथ तैयार करेगी और इसके बाद एक शक्तिशाली मानवाधिकार क्रांति आयेगी जो वास्तविक अर्थों में भारत को स्वतंत्र बना देगी। अगर ऐसा नहीं होता है तो हम इससे भी खराब स्थिति में जीने के लिये अभिशप्त होंगे। - लेखक वरिष्ठï पत्रकार हैं

Friday, January 6, 2012

दैनिक अमर उजाला के 6 जनवरी 2012 के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख

इंदिरा भवन के मसले पर कांग्रेस- ममता भिड़े

टूट सकता है केंद्र में यूपीए गठबंधन
- हरिराम पाण्डेय
कोलकाता के इंदिरा भवन के नाम बदलने को लेकर पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में बढ़ते तनाव का असर अब दिल्ली में दिखने लगा है। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कांग्रेस को नीचा दिखाने और राज्य में उसे अप्रासंगिक बना देने की कोशिश तो तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी आरंभ से ही कर रहीं हैं। पीछे की घटनाओं को अगर नजर अंदाज कर दें तब चुनाव में सीटों के बंटवारे को लेकर हुज्जत से बात बढ़ती हुई इंदिरा भवन तक आ पहुंची है और अब दोनों पाटियां सड़कों पर मुियां ताने दिखायी पड़ रहीं हैं। हालांकि इंदिरा भवन का मसला कांग्रेसी पाखंड से ज्यादा कुछ नहीं कहा जायेगा लेकिन जिस ढंग से ममता बनर्जी ने इसे उठाया है और जिस कवि के नाम पर नया नाम करण करना चाह रहीं है वह उनकी राजनीति महत्वाकांक्षा के अलावा कुछ नहीं है। हालांकि ममता जी अब भवन का नाम नहीं बदलने पर राजी हो गयीं हैं लेकिन उसमें नजरुल स्मृत्ति संग्रहालय की बात पर वह अड़ी हुई हंैं। यद्यपि इंदिरा जी के नेमप्लेट के भीतर नजरुल का संग्रहालय राज्य में एक खास किस्म की असंगति पैदा करेगा।
इंदिरा भवन 1972 के दिसम्बर में कांग्रेस अधिवेशन के लिये बना था। वहां इंदिरा जी ने प्रवास किया था। लेकिन इसके बाद कांग्रेस की सरकार रही नहीं और माकपा के मुख्यमंत्री ज्योति बसु का वह आवास बना। कांग्रेस का वह अधिवेशन पाकिस्तान पर विजय और बंग्लादेश के बनने के भावोन्माद के साये में आयोजित हुआ था और 40 साल के बाद उस भवन को लेकर बंगाल में सियासत गरमा रही है। मंगलवार को राइटर्स बिल्डिंग (बंगाल के सचिवालय) के इतिहास में सबसे लम्बे प्रेस कांफ्रेंस में ममता बनर्जी ने कांग्रेस पर सीधा आरोप लगाया कि 'उसने तृणमूल को राजनीतिक मात देने के लिये वामपंथियों से हाथ मिला लिये हैं। Ó ममता बनर्जी ने साफ कहा कि 'उन्होंने कभी भी एक लफ्ज मनमोहन सिंह या सोनिया गांधी के बारे में कुछ भी गलत नहीं कहा पर कांग्रेस के लोग सड़कों पर खड़े होकर मुझे अपशब्द कह रहे हैं।Ó ममता बनर्जी का गुस्सा चरम पर था।
दूसरी तरफ इस अवसर का राजनीतिक दोहन करने के लिये ममता बनर्जी के प्रेस कांफ्रेंस के तुरत बाद श्ीपीएम नेता सूर्य कांत मिश्र ने उनकी आलोचना करते हुये कहा कि 'दस वर्षों तक ज्योति बसु ने उस भवन में निवास किया पर उन्होंने नाम नहीं बदले। इस कदम से तो न इंदिरा जी को प्रतिष्ठïा मिलेगी और ना नजरूल को। जहां तक कांग्रेस और माकपा के हाथ मिलाने का सवाल है ममता जी पार्टी के कार्य कर्ता इसी बहाने से दोनों दलों के लोगों पर हमले कर रहे हैं।Ó
साथ ही नजरुल जन्मोत्सव कमिटि ने भी इसका विरोध किया है और कहा है कि सरकार का यह कदम इंदिरा गांधी और नजरुल इस्लाम दोनों का अपमान है। नजरुल जन्मोत्सव कमिटि की ओर से नजरुल अकादमी की अध्यक्ष प्रो. मिरातुल नाहर ने कहा कि 'एक आदमी का नाम हटाकर दूसरे का देने का अर्थ ह दूसरे को भी अपमानित करना।Ó
हालांकि यह सच है कि ममता बनर्जी विरोधों और अवसरों की परवाह नहीं करती हैं पर मनोवैज्ञानिक तौर पर वे बेहद महत्वोन्मादी हैं और अब वे शायद ही इस जगह पीछे हटें।
ऐसा होना कोई नयी बात नहीं है। कृषि या अभावग्रस्त पृष्ठभूमि वाली महिला राजनीतिज्ञों- नेताओं के साथ अक्सर ऐसा होता है। मयावती और जय ललिता का उदारण सामने है। विख्यात समाज वैज्ञानिक हैगन के अनुसार 'महिलाओं में वर्ग परिवर्तन, खास कर कृषि या उसी तरह के वर्ग से बाहर निकल कर उच्च वर्ग की और दौडऩे के साथ ही उनके व्यक्तित्व में भी बदलाव आ जाते हैं और वे बदलाव अधिकांश सृजनहीन और नकारात्मक होते है।Ó जहां तक ममता बनर्जी का सवाल है उन्होंने लोकतांत्रिक अपेक्षाओं को मानवीय स्वर दिया है लेकिन उनकी तानाशाह प्रवृत्ति इस पर असर डाल सकती है। वे इससे वाकिफ भी हैं और जब भी तृणमूल कांग्रेस में लोकतांत्रिक कायदों की कमी के बारे में पूछा जाता है तो वे तुरत बिगड़ï जाती हैं।
महज 19 सांसदों के साथ उन्होंने 206 सांसदों वाली मजबूत कांग्रेस को इस साल चार बार पटखनी दी है और हर बार अत्यंत अहम मामले में। उन्होंने बांग्लादेश में तीस्ता नदी जल बंटवारे पर बातचीत का हिस्सा बनने से इंकार कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ठोकर लगाई। इसके बाद खुदरा कारोबार लेकर भी अड़ी रहीं और सरकार को वह प्रस्ताव मुल्तवी करना पड़ा। तेल की कीमतों को लेकर और फिर लोकपाल के मसले पर। हर बार कांग्रेस के अहं को उन्होंने ठोकर मारी है। वे कांग्रेस को बखूबी समझती हैं। वह वही विधि अपना रहीं हैं जो कांग्रेस पार्टी अपने गठबंधन के सहयोगियों के लिये अपनाती है। अगर फ्रैंक सिनात्रा की मानें तो कह सकते हैं कि 'बात मानो नहीं तो रास्ता लोÓ की तकनीक कांग्रेस अपनाती है और अब ममता जी अपना रहीं हैं। ममता कांग्रेस से दबेंगी नहीं, क्यों कि इसके लिये उनके पास कोई कारण नहीं हैं, क्योंकि उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने के आसार नहीं के बराबर हैं। उन्हें किसी पोल के खुल जाने का डर नहीं, क्योंकि उनके पास सीबीआई से छुपाने के लिए कोई बड़ा घोटाला ही नहीं है। इसलिए वे दिल्ली की ब्लैकमेलिंग को लेकर चिंतित नहीं हैं। वे नहीं जानतीं कि निरीह या दब्बू कैसे हुआ जाए। दिल्ली भी चुप है। इस सारे प्रकरण में जो सबसे महत्वपूर्ण सियासी गुत्थी है वह है कांग्रेस की शीर्ष नेता सोनिया गांधी की चुप्पी। ममता बनर्जी का हर प्रहार केवल कांग्रेस के अहं को ठोकर नहीं मारता बल्कि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह को कमजोर भी करता है। कांग्रेस पर यह प्रहार एक तरह से राहुल गांधी के लिये मदगार भी है। यही कारण है कि कांग्रेस ममता बनर्जी के प्रहार से बचने का कोई प्रयास नहीं कर रही बल्कि वह उनके 19 सांसदों को अप्रासंगिक बना देना चाहती है।
अभी जो स्थिति है उसमें ममता बनर्जी के लगातार प्रहार दिखायी पड़ रहे हैं तो कांग्रेसी भी पीछे नहीं हैं। कांग्रेस ने किनारे से हमला बोलना शुरू कर दिया है। युवा कांग्रेस की नेता मौसम नूर ने इंदिरा भवन मामले में पश्चिम बंगाल सरकार के फैसले की कड़ी आलोचना की है। केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस तृणमूल कांग्रेस के लगातार विरोध से आजिज आ गई लगती है। यही वजह है कि पार्टी के भीतर तृणमूल कांग्रेस के बिना यूपीए गठबंधन को चलाने के लिए विकल्पों पर मंथन शुरू हो गया है। कांग्रेस ऐसे सहयोगी की तलाश कर रही है, जो हर तरह के हालात में उसके साथ रहे। पार्टी से जुड़े सूत्रों के मुताबिक उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद 22 सांसदों वाली समाजवादी पार्टी को कांग्रेस तृणमूल की जगह संभावित साथी के तौर पर देख रही है। कांग्रेस के कुछ रणनीतिकारों ने सलाह दी है कि तृणमूल को बाहर का रास्ता दिखाने के बाद कांग्रेस-सपा गठबंधन तैयार कर वामपंथी दलों के साथ पुराने रिश्ते में जान फूंककर 2014 के लोकसभा चुनाव में जाना बेहतर विकल्प होगा। कांग्रेस की हालत खासकर प्रधानमंत्री के टूटते अहं एवं विखंडित होती मर्यादाओं को देख कर लगता है कि ममता बनर्जी के सहयोग से सरकार बचाने से ज्यादा बड़ा शाप कुछ नहीं हो सकता।
तृणमूल कांग्रेस के नेता तो अब खुल्लम खल्ला कह रहे हैं कि उन्हें बंगाल में सरकार चलाने के लिये किसी की जरूरत नहीं है और कांग्रेस हाई कमान ने अपने कार्यकर्ताओं को ममता पर हमले करने की खुली छूट दे रखी है। लेकिन इसमें बंगाल के कांग्रेसियों का कुछ नहीं बनने वाला। वे सिर्फ दिल्ली के जहर को यहां उगल रहे हैं। इससे दोनों के रिश्ते नष्टï हो सकते हैं लेकिन बंगाल के कांग्रेसी नेता घाटे में रहेंगे। यह सियासी दूरंदेशी नहीं कही जा सकती है। कांग्रेस को अभी कुछ निर्णायक करनेे में लगभग तीन महीने का समय लग सकता है। उत्तर प्रदेश और अन्य 4 राज्यों में चुनाव के बाद ही कुछ हो पाने की संभावना है। उत्तर प्रदेश में जो सबसे आदर्श स्थिति होगी वह है सपा का सबसे बड़ी पार्टी के रूप में जीत कर आना लेकिन उस स्थिति में उसे सरकार चलाने के लिये कांग्रेसी सांसदों की मदद लेनी होगी। अगर ऐसा होता है तो दिल्ली ममता जी से पल्लाझाड़ सकती है और सपा को साथ ले सकती है। अगर सपा साथ आ जाती है तो 2014 तक उसके सांसद कांग्रेस के बंधुआ रहेंगे।
यह तब ही हो सकता है जब सपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरे। यदि ऐसा नहीं होता(जिसकी उम्मीद बहुत कम है) तब ममता से गठबंधन उसी समय तक रहेगा जबतक कांग्रेस के लिये मनमोहन सिंह अपरिहार्य हैं। दिल्ली के दरबार में सरगोशियां होने लगीं हैं और सियासत में कानाफूसी को शोर में बदलते देर नहीं लगती। सोशल मीडिया के इस दौर में यह शोर आनन फानन में व्यापक हो जाता है और उसके बाद जनमत का रूप ले लेता र्है। - लेखक वरिष्ठï पत्रकार हैं