कभी आपने सोचा है कि मध्ययुगीन राजा कैसे होते थे। यदि सत्तर के दशक में या उसके बाद पैदा हुई पीढ़ी से आपा राजा के बारे खासकर उसकी जीवन शैली के बारे में बताने के लिये कहें तो बड़ा नाटकीय वर्णन करेगा। आप सोचेंगे उससे तो अछच आज का कारपोरेट जीवन है। यहां कहने मतलब है कि समय के साथ जीवन शैली भी बदलती और प्राचीन शैली उबाऊ तथा हास्यास्पद लगने के साथ साथ गलत भी लगने लगती है। इसी तरह उस शैली के मापने के सारे पैमाने भी पुराने पड़ चुके होते हैं। अब्से कुछ दशक पहले तक फेसबुक , स्मार्ट फोन या यू ट्यूब की कल्पना नहीं की जा सकती थी पर आज वह आम है। यानी जीने के तौर तरीकों में बड़ा फर्क आया है। फिर एक सवाल उठता है कि यदि तौर तरीके बदलते हैं तो उन तौर तरीकों के डायनामिक्स को मापने का पैमाना क्यों एक रहता है। आधुनिक अर्थशास्त्र के आविर्भाव से अब तक समाज या प्रतिव्यक्ति खुशहाली मापने का एक ही तरीका चल रहा है वह है, सकल घरेलू उत्पाद ,यानी जी डी पी ,के आंकड़े। अर्थ शािस्त्रयों से बातें करें तो वे इसके पक्ष में दलील देंगे कि इससे समाज में बेरोजगारी और विकास के नियामकों को तय करने में सहयोग मिलता है। परंतु जब जी डी पी की शुरुआत हुई थी तो हमारा समाज या यों कहें विश्व की अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही थी। वह समय था लगभग 30 के दशक का और फिर 40 के दशक में दुनिया युद्ध की लपटों से जूझने लगी। उस समय यह देखना जरूरी था कि हमारी घरेलू अर्थ व्यवस्था की उत्पादन क्षमता क्या है। उसी के मद्देनजर सकल घरेलू उत्पाद का पैमाना गढ़ा गया क्यों उस समय समाज की डायनामिक्स की चाबी अर्थ व्यवस्था के हाथों में थी। जमाना तेजी से बदल रहा है, सामाजिक प्रतिबंध खत्म हो रहे हैं और अर्थ व्यवस्थाओं की गतिविधियां बदल रहीं हैं। उदाहरण के लिये यह बताना सही हो गा कि 1984 में नाइजीरियाई अर्थ शािस्त्रयों ने आंकड़ों को कुछ इस तरह तैयार किया कि उसका जी डी पी 84 प्रतिशत हो गया। यही नहीं दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन में वेश्यालयों की बाढ़ आ गयी। पुरुष आाबदी में वृद्धि के समानुपातिक इसका विकास होने लगा। बर्टेंड रसल के मुताबिक वहां अर्थ व्यवस्था इसकी भूमिका दिखायी पड़ने लगी है। कई ऐसे और क्षेत्र थे जहां की महंगी कीमतों ने महंगाई की गलत तस्वीर पेश करनी शुरू कर दी। 50 के दशक में अमरीका को छोड़ कर हर देश में आर्थिक आंकड़ों में संशोधन किया जाने लगा। इन संशोधित आंकड़ों ने नये भ्रम की शुरुआत कर दी। भ्रम यह पैदा हुआ कि अमरीका को छोड़ सभी गलत हैं अमीरी केवल अमरीका में बढ़ रही है। जी डी पी के आंकड़ों में वृधि का मतलब खुशहाली बढ़ रही है परंतु ये धारणायें सही नहीं हैं। पहले जब साफ सफाई , चिकित्सा और ए सी अथवा रुम हीटर के चलन बढ़े थे तो यह माना गया कि खुशहाली बढ़ रही है पर दूसरे विश्व युद्ध के बाद खास कर 50 के दशक के बाद 90 का दशक पार करते करते यह धीरे धीरे आम हो गयी। यहां तक कि दक्षिण एशियाई विकासशील देशो में भी भी यह बात लाइफ स्टाइल का अंग बन गयी पर अर्थ व्यवस्था तो विकसित हुई नहीं। जी डी पी आंकड़े वहीं के वहीं रहे या बढ़े भी तो उससे अर्थ व्यवस्था को लाभ नहीं मिला। आज की जीवन शैली सेवा क्षेत्र के कारण विकसित हो रही है। महंगाई से मुकाबले के लिये हमारे देश में और अन्य देशों में भी स्त्री- पुरुष दोनो काम कर रहे हैं और वह सारी आय जीवन के सुतुलन में व्यय हो रही है। आप कहेंगे बाजार में कम्प्यूटर की तेजी है। कम्प्यूटर बनाने वालों से अगर पूछें तो वे बतायेंगे कि आपकी व्यक्तिगत पसंद या नापसंद को ध्यान में रख कर कम्प्यूटर का निर्माण हो रहा है। गूगल फेस बुक की सेवायें मुफ्त हैं पर इंटरनेट के खर्च बढ़ते जा रहे हैं। इनका अर्थ व्यवस्था के विकास में कोई योगदान नहीं है। फर्ज करें आप किसी ऐसे होटेल मे खाना खाो हैं जो महीने भर का दाम एक बार लेता है और वह एक खास तरह का मेनू ही बनाता है। ज्घ्से कोलकाता के मारवाड़ी बासा वाले करते हैं। एसे होटलों की बिक्री का अर्थ व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा या इसके उत्पादन का अर्थ व्यवस्था में क्या योगदान होगा। यही नहीं इन दिनों ऑन लाईन खरीददारी या ऑनलाइन बैंकिंग जैसी व्यवस्था काफी लोकफ्रिय है। पर उनसे होने वाली आय का अर्थ व्यवस्था में तबतक कोई योगदान नहीं माना जायेगा जब तक उस आय से इमारतें ना बनें या सड़कें ना बनें। अतएव अर्थ व्यवस्था या सामाजिक खुशहाली को मापने के नये पैमाने गढ़े जाएं। इसके लिये संभवत: तीन कदम उठाने जरूरी हैं। पहला कि जीडीपी आंकने की वर्तमान प्रक्रिया में इंटरनेट के उपयोग और क्रेडिट कार्ड के इस्तेमाल को भी जोड़ा जाय। यही नहीं घरों में जो औरतें निशुल्क काम करतीं हैं उनके श्रम को भी जोड़ाना चाहिये। यही नहीं घर में वृद्ध मां बाप की सेवा करने वालों के कार्य घंटों को भी अर्थ व्यवस्था के मानकोज्में जोड़ा जाय। इससे अमीर या गरीब लोगों में जो व्यय शैली है इसका पता चल पायेगा। मसलन एक गरीब आदमी बड़े स्कूलों फीस नहीं दे सकता और इस लिये बच्चों के पढ़ाने पर उसका खर्च पारिवारिक भोजन, वस्त्र या आवास के खर्चों से कम होता है। जबकि अमीरों में इसके विपरीत। वे बच्चों को प़ाने इत्यादि पर जितना व्यय करते हैं उसके मुकाबले भोजन , वस्त्र और आवास पर कम करते हैं। यानी अर्थ व्यवस्था में उनका प्रत्यक्ष योगदान कम होता है। यहीं नहीं अव्यक्त पूंजी जैसे, इंटरनेट चालन और हुनर जैसी वस्तुओं का भी आकलन होना चाहिये। अगर ऐसा नहीं होता है तो सारे आंकड़े गलत हों और दावे किताबी होंगे।
Tuesday, May 3, 2016
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