हरिराम पाण्डेय
19 सितम्बर 2011
गुजरात के मुख्य मंत्री और भारतीय दक्षिणपंथी राजनीति के सुपरमैन नरेंद्र मोदी शनिवार से अनशन पर हैं। इस अनशन को लेकर ढेर सारी बातें हो रही हैं। कहीं आलोचना हो रही है और कहीं प्रशंसा। जबसे अण्णा हजारे ने अनशन के माध्यम से सरकार को घुटने टेकने के लिये मजबूर कर दिया था तबसे अनशन को दबाव का एक साधन बना लिया गया। और नरेंद्र मोदी विश्लेषण में एक शब्द है ' टीना फैक्टरÓ यानी जिसका कोई विकल्प नहीं हो। जिन्होंने इस शब्द का ईजाद किया था वे लोग ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित नेतृत्व शून्यता के नियम को भूल गए थे। यह नियम बताता है कि नेतृत्व शून्यता ज्यादा दिनों तक नहीं टिकती। जनभावना और सहनशीलता की एक सीमा है। एक बार जब यह सीमा पार हो जाती है, तो नेतृत्व अपने आप शून्य से उभरता है। कई बार यह बेचेहरा होता है, जैसा कि हमने इसे अरब क्रांति के दौरान देखा। कभी यह बेहद निम्न स्तरीय शालीन चेहरे के रूप में होता है और रातोंरात एक बड़े चेहरे के रूप में उभरता है, जैसे अण्णा हजारे।
सामाजिक और राजनीतिक नेतृत्व में दिलचस्प संबंध है। बहुत से विशेषज्ञ यह नहीं मानते इनमें कोई संबंध है, लेकिन एक खास स्थिति में इन दोनों में मजबूत रिश्ता होता है। यह अक्सर भारत और दुनिया के कई देशों में देखने को मिला है। भारत में गांधी से बहुत पहले सामाजिक नेतृत्व का न सिर्फ अस्तित्व था, बल्कि वह राजनीतिक नेतृत्व से कहीं अधिक मजबूत था। उस दौर में राजा अपने दुश्मनों से नहीं, बल्कि लोगों द्वारा पूजे जानेवाले साधु और फकीरों से डरते थे। इसका कारण था कि उनका कोई गुप्त एजेंडा नहीं होता था। कालांतर में ऐसे नेतृत्व का चेहरा भले बदल गया, लेकिन भारतीय मूल्य व्यवस्था में यह अवधारणा बची रही। हम वैसे लोगों का सम्मान करते रहे, जिन्होंने व्यापक समाज की बेहतरी के लिए अपने व्यक्तिगत हितों की तिलांजलि दे दी। यही कारण है कि प्रधानमंत्री पद त्यागने के सोनिया गांधी के फैसले को देशवासियों ने श्रद्धा और सम्मान की नजर से देखा। मनमोहन सिंह के प्रति सम्मान की भी यही वजह है, क्योंकि जनता जानती है कि वह व्यक्तिगत रूप से भ्रष्ट नहीं हैं। जब देश के लोग भ्रष्टाचार और महंगाई को लेकर काफी गुस्से में थे, तब भी वे बेदाग नेता के रूप में इन दोनों का आदर करते थे। यहां तक कि बहुसंख्यक लोग मानते हैं कि जो सरकार वे चलाते हैं, वह अयोग्य है और उनके कई सहयोगी भ्रष्ट हैं।
यही कारण है कि भारत का विशाल मध्यवर्ग भ्रष्टाचार के खिलाफ आखिरकार सड़क पर उतर आया। अण्णा हजारे दरअसल कांग्रेस के खिलाफ नहीं थे, लेकिन कांग्रेस ने यह जताकर बड़ी गलती की कि अण्णा उसके खिलाफ हैं। कांग्रेस को यह आत्मघाती कदम उठाने से बचना चाहिए था, लेकिन सत्ता में रहते हुए कांग्रेसी घमंडी हो जाते हैं। नतीजतन वही होना था, जो हुआ। व्यवस्था बनाम अण्णा की लड़ाई कांग्रेस बनाम अण्णा की लड़ाई बन गयी। इससे कांग्रेस ही नहीं, सोनिया, मनमोहन और राहुल की छवि भी खराब हुई। कांग्रेस ने अण्णा को अपना विरोधी मानकर जैसी गलती की, अब भाजपा भ्रष्टाचार-विरोधी माहौल को अपने अनुरूप मानकर वही गलती कर रही है। यह लहर भ्रष्टाचार के विरोध में है और किसी पार्टी के पक्ष में नहीं है। इसलिए अगर यह कांग्रेस को व्यापक स्तर पर नुकसान पहुंचा रही है, तो दूसरे दलों को भी सूक्ष्म स्तर पर चोट कर रही है। चुनावी नजरिये से कहें, तो कांग्रेस शासित प्रदेशों में यह गैरकांग्रेसी पार्टियों को मदद कर रही है। लेकिन जिन राज्यों में भाजपा-राजग सत्ता में है, वहां यह लहर उसको नुकसान पहुंचाएगी। जिनको यह महसूस हो रहा है कि नरेंद्र मोदी के अनशन से भाजपा को लोकसभा चुनाव में लाभ होगा वे संभवत: दिवास्वप्न देख रहे हैं। वैसे यह तो तय है कि सरकार चाहे किसी की भी हो, अण्णा का मुद्दा खत्म होने वाला नहीं है। अण्णा अब एक विचार बन गये हैं। यदि नरेंद्र मोदी और उनके साथी नेता समझते हैं कि सरकार बदलने पर लोग भ्रष्टाचार को भूल जाएंगे, तो वे वही गलती कर रहे हैं, जो कांग्रेस ने की। भूलना नहीं चाहिए कि अण्णा का आंदोलन व्यवस्था के खिलाफ है। अगर अण्णा चुप हो जाते हैं, तो कोई और नेतृत्व के उस शून्य को भरेगा तथा व्यवस्था को चुनौती देगा। नरेंद्र मोदी के अनशन का लक्ष्य सरकार को बदलना है व्यवस्था को नहीं। इसलिये इस अनशन से कोई ज्यादा उम्मीद नहीं है।
Sunday, September 18, 2011
अनशन से सरकार बदलेगी व्यवस्था नहीं
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खाना बर्बाद करना सामाजिक अपराध है
हरिराम पाण्डेय
17 सितम्बर 2011
खाने-पीने की वस्तुओं और विनिर्मित उत्पादों के दाम बढऩे से अगस्त माह में सालाना आधार पर महंगाई बढ़ कर 9.78 प्रतिशत पर पहुंच गयी। यह कुल मुद्रास्फीति का 13 माह का उच्च स्तर है। मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी से भारतीय रिजर्व बैंक की चिंता और बढ़ गयी है और इससे यह संकेत मिलता है कि केंद्रीय बैंक द्वारा मार्च 2010 के बाद से महंगाई पर अंकुश के लिए किए जा रहे प्रयास प्रभावी साबित नहीं हुए हैं। थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति जुलाई माह में 9.22 प्रतिशत थी। अगस्त में यह 0.56 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 9.78 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गयी। जुलाई 2010 के बाद यह महंगाई की दर का सबसे ऊंचा आंकड़ा है। उस समय मुद्रास्फीति 9.98 प्रतिशत पर थी। अब सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है कि किस तरह बढ़ती महंगाई तथा घटती वृद्धि दर की समस्या से निपटा जाये। पिछले 18 माह में केंद्रीय बैंक ने नीतिगत दरों में 11 बार बढ़ोतरी की है। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने मुद्रास्फीति के आंकड़ों पर कहा कि यह दस प्रतिशत के करीब है। सरकार की तरह रिजर्व बैंक की निगाह भी इस पर है। रिजर्व बैंक से लेकर सरकार ने महंगाई पर चिंता तो जाहिर की है लेकिन जमीनी स्तर पर ऐसी कोई ठोस पहल सामने नहीं आई जो जनता को थोड़ी राहत दे सके। अब जबकि महंगाई पर नियंत्रण की कोई कोशिश कारगर साबित नहीं हो पा रही है, सरकार ने इसे थामने के लिए दूसरा रास्ता अख्तियार किया है। चूंकि मांग का महंगाई से सीधा ताल्लुक है इसलिए सरकार चाहती है कि शादी-ब्याह, पार्टियों तथा अन्य सामाजिक आयोजनों में होने वाली भोजन की बर्बादी नियंत्रित की जाए।
मेहमानों की संख्या तय करने की बात भी छिड़ी थी। इस मामले में सरकार की दलील है, जो ठीक भी है कि जिस देश में 160 लाख टन अनाज सड़ जाता हो, 22 करोड़ लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हों और हर साल हजारों लोग भूख के कारण मौत का शिकार हो रहे हों, वहां खाने की बर्बादी को काबू कर लाखों का पेट भरा जा सकता है। लिहाजा, खाद्य मंत्रालय की पहल से खाने की बर्बादी को बतौर अध्याय पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने का प्रयास चल रहा है। ताकि बच्चों को इस बारे में जागरूक किया जा सके। खाद्य सामग्री की बर्बादी विश्वव्यापी है। फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) की रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में एक साल में करीब 130 करोड़ टन खाद्य सामग्री या तो बेकार चली जाती है या फिर उसे फेंक दिया जाता है। यह कुल उत्पादन का एक-तिहाई है। आंकड़ों के अनुसार विकासशील देशों में 63 करोड़ टन और औद्योगिक देशों में 67 करोड़ टन खाने की बर्बादी होती है। अफ्रीका महाद्वीप में हर साल करीब 23 करोड़ टन भोजन का उत्पादन होता है, जबकि अमीर देशों में 22.2 करोड़ टन खाना बर्बाद हो जाता है। यानी, जितना खाना एक महाद्वीप में रहने वाले लोगों की सालभर की भूख मिटाता है उतना तो अमीर मुल्क बर्बाद कर देते हैं। एक अन्य अध्ययन के अनुसार अमरीका और ब्रिटेन में संपन्न लोग जितना भोजन बेकार करते हैं उससे 1.5 अरब लोगों को खाना खिलाया जा सकता है। हालांकि भोजन की इस बर्बादी का प्रामाणिक आंकड़ा फिलहाल उपलब्ध नहीं है। चिंता और चर्चाओं का आधार अनुमान है। जहां तक भारत का मामला है विवाह, पार्टियों और दूसरे सामाजिक-निजी आयोजनों में 15 से 20 प्रतिशत खाना बेकार चला जाता है। गांव-देहात की अपेक्षा महानगरों और छोटे-बड़े शहरों में बर्बादी अधिक है। देश-दुनिया में खाने की बर्बादी की यह आम तस्वीर है लेकिन इस बर्बादी की परिभाषाओं में असमानता है। संभवत: इसी वजह से अब तक कोई ठोस डाटा भी उपलब्ध नहीं है। प्रामाणिक दस्तावेज भी नहीं है। खाद्य मंत्रालय के आग्रह पर भोजन की बर्बादी का आंकड़ा जुटाने के लिए भारतीय लोक प्रशासन संस्थान (आईआईपीए) महानगरों में सर्वेक्षण का काम शुरू करने वाला है। ऐसे में लोगों की आदतों में बदलाव से ही कुछ अंकुश संभव हो सकता है। इसीलिए सरकार ने पाठ्यक्रम के जरिए जागरूकता की पहल की है ताकि लोगों को बर्बादी रोकने के लिए तैयार किया जा सके और लोग आत्मनियंत्रण का रुख करें। इस समग्र तस्वीर को देख कर सहज ही कहा जा सकता है कि जूठन छोडऩा और खाना बर्बाद करना सामाजिक अपराध है।
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'कहीं यह कोई साजिश तो नहीं
हरिराम पाण्डेय
16 सितम्बर 2011
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नरेन्द्र मोदी की जीत बताया जा रहा है पर वास्तव में यह राहत भर है। गुजरात में 2002 के मुस्लिम विरोधी दंगों के दौरान गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड के मामले में सुप्रीम कोर्ट के एक विशेष खंडपीठ के सोमवार के फैसले से भारतीय जनता पार्टी में एक नये उत्साह का संचार करने की कोशिश की जा रही है और इसे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र्र मोदी की जीत के रूप में निरूपित किया जा रहा है। इसी के साथ अचानक अमरीकी कांग्रेस की रिपोर्ट कि मोदी भारत के प्रधानमंत्री पद के जबरदस्त प्रत्याशी हैं और अगले चुनाव में उनमें तथा राहुल गांधी में टक्कर होगी। भाजपा दोनों स्थितियों को मिला कर कुछ इस तरह प्रचारित कर रही है कि बस वह छा गयी भारतीय समाज पर। यह एक खास किस्म के प्रोपगैंडा की तकनीक है।
अमरीकी रपट के सामाजिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव का विश्लेषण तो आगे करेंगे मगर मोदी के संबंध में अदालत का फैसला, यह न तो मोदी की जीत है और न ही सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कोई क्लीन चिट दी है। यह ज्यादा से ज्यादा मोदी को मिली एक राहत है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस के पूर्व सांसद अहसान जाफरी की विधवा जकिया जाफरी की याचिका पूरी तरह रद्द नहीं की है बल्कि गुजरात के दंगों में नरेन्द्र मोदी और उनके सहयोगियों की भूमिका की जांच का जिम्मा अहमदाबाद की निचली अदालत को सौंप दिया है। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई के पूर्व निदेशक आर के राघवन के नेतृत्व में गठित विशेष जांच दल (एसआईटी) की रिपोर्ट और इस मामले में एमिकस क्यूरी (न्याय मित्र) की रिपोर्ट को भी निचली अदालत को सौंपने का आदेश दिया है। जकिया जाफरी ने सुप्रीम कोर्ट में इस संदेह के आधार पर याचिका दायर की थी कि गुजरात में जिस तरह से गवाहों पर दबाव डाला गया है और सबूतों को नष्ट किया गया है, उसे देखते हुए संभवत: उन्हें न्याय न मिले और मोदी तथा उनके सहयोगियों के खिलाफ जांच न की जाए। जाहिर है, एसआईटी मोदी से पूछताछ कर चुकी है। इसलिए अब अहमदाबाद की निचली अदालत एसआईटी की रिपोर्ट और एमिकस क्यूरी की रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए ही यह फैसला करेगी कि मोदी और उनके सहयोगियों के खिलाफ मामला चलाया जाए या नहीं और जांच आगे हो या नहीं। खुदा न खास्ता अगर अदालत मोदी एवं दूसरों के खिलाफ मामला बंद करने का फैसला करती है तो उसे पहले जकिया जाफरी का पक्ष सुनना होगा क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा स्पष्ट आदेश भी दिया है। यानी मामला फिर से निचली अदालत में चला गया है मगर कुछ नए आदेशों-निर्देशों के साथ। तो इसे कैसे मोदी की जीत मान लिया जाए? हां, अगर यह राहत है तो इस अर्थ में कि न्यायिक प्रक्रिया और लंबी हो गयी है। हमारे यहां न्याय में देरी के कारण ही लोगों को न्याय नहीं मिल पाता। बहरहाल, मोदी को एक न्यायिक प्रक्रिया के तहत ही मिली राहत से भाजपा के लोग फूल कर कुप्पा हो गये हैं। वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी उनके सुशासन के गीत गा रहे हैं और राज्यसभा में प्रतिपक्ष के नेता अरुण जेटली कह रहे हैं कि कांग्रेस को मोदी के खिलाफ प्रोपेगेंडा बंद कर देना चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तो यहां तक कह दिया है कि यह भाजपा तय करेगी कि मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाया जाए या नहीं। भाजपा बेहद जल्दी में है, इतनी जल्दी में कि अपने नेता को जरा सी राहत मिलने को ही वह अपनी जीत बता रही है, मानो इस आदेश के बाद मोदी पर लगे सारे आरोप अपने आप खत्म हो गए हों। क्या वास्तव में ऐसा माना जा सकता है जब हमें मालूम न हो कि एसआईटी आदि की रिपोर्टों में क्या लिखा है? इसे संयोग कहा जाय या अमरीकी साजिश, यह तो अभी स्पष्टï नहीं है। लेकिन देखने से ऐसा लगता है कि अपने मुस्लिम विरोधी गुस्से को उतारने और भारत में सामाजिक सौहार्द को छिन्न-भिन्न कर भारतीय विकास को अवरुद्ध करने की यह अमरीकी साजिश है। इसलिये देश की जनता को इससे गुमराह नहीं होना चाहिये।
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भारत- बंगलादेश समझौता
हरिराम पाण्डेय
15 सितम्बर 2011
भारत और बंगलादेश में हाल में जो भी समझौते हुए और जो सहमतियां बनीं, उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि दोनों देशों ने रिश्तों की एक ठोस बुनियाद रखी है। हालांकि बंगलादेशी समाज की साइकी को देखते हुए बहुत ज्यादा उम्मीद संभव नहीं है क्योंकि इसकी सफलता के लिये भविष्य में दोनों देशों की सरकारों को राष्ट्रीय संकल्प और लेनदेन की भावना के साथ काम करना होगा। जहां तक सवाल उपलब्धियों का है तो दोनों देशों ने 1974 से लटके शेख मुजीब-इंदिरा सीमा समझौते को संपन्न कर आपसी तनाव की एक बड़ी वजह दूर कर ली है। लेकिन यह स्थिति कब तक रहेगी यह कहना अभी मुश्किल है, क्योंकि बंगलादेशी भद्रलोक इसे भारत के हाथों सेलआउट की संज्ञा दे रहा है और चरमपंथी संगठन इसके पीछे पड़ गये हैं।
कुल 4090 किलोमीटर लंबी सीमा में मात्र छह किलोमीटर के इलाके में ही जहां-तहां पडऩे वाले गांव और कुछ हजार एकड़ जमीन विवाद की जड़ में थी जिस पर लेनदेन का समझौता कर दोनों देशों ने सीमा विवाद को हमेशा के लिए सुलझा लिया है। सीमा मसला दोनों देशों के बीच तनाव की एक बड़ी वजह था और यह बंगलादेश में भारत विरोधी राजनीतिक भावनाएं भड़काने का जरिया बना रहता था। वहां की भारत विरोधी उग्र ताकतों को इस काम में पाकिस्तान की आईएसआई से हर तरह की मदद मिलती थी। भारत की इस शिकायत को अवामी लीग की नेता मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना ने जब दूर किया तो दोनों देशों के बीच सहयोग बनाने और शक दूर करने की एक नयी जमीन बनी।
कहते हैं , ताली दोनों हाथ से बजती है। जब बंगलादेश की मौजूदा सरकार ने असम के उग्रवादियों के खिलाफ कार्रवाई कर भारत के साथ सुरक्षा मसलों में सहयोग करने का प्रमाण दिया तब भारत ने भी दो कदम आगे बढ़ कर बंगलादेश को तीस्ता नदी के जल के बंटवारे में अधिक उदारता दिखायी। लेकिन ऐन मौके पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री द्वारा इसे मंजूरी नहीं देने से बंगलादेश में भारत विरोधी ताकतों को फिर बल मिलेगा।
पूरे 12 साल बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री का बंगलादेश दौरा था और इसे लेकर वहां भारी उत्साह था। दो पड़ोसियों का आपस में इतना कम संवाद होना मधुर रिश्तों के लिए ठीक नहीं है। लेकिन भारत की सुरक्षा चिंताएं दूर करने के भरोसे के साथ ही प्रधानमंत्री के ढाका दौरे की तैयारी की गयी। करीब एक साल से इस दौरे की सफलता की तैयारी की जा रही थी। इसके तहत भारत ने बंगलादेश को कई तरह की व्यापारिक रियायतें भी दीं जिससे बंगलादेशी कपड़ा उद्योग को भारी लाभ होगा। दोनों देशों के बीच पांच अरब डालर का सालाना व्यापार पिछले साल हुआ है जो भारत की एकपक्षीय रियायतों के बावजूद काफी हद तक भारत के पक्ष में झुका हुआ है। बंगलादेश को भारत ने जो नवीनतम रियायतें दी हैं उनसे बंगलादेश की शिकायत काफी हद तक दूर होगी।
भारत और बंगलादेश के बीच सहयोग का रिश्ता दक्षिण एशिया के दूसरे देशों के लिये भी मिसाल बन सकता है। यदि भारत और बंगलादेश ने आर्थिक और राजनीतिक रिश्ते गहरे किये तो इससे होने वाले लाभों से दक्षिण एशिया के दूसरे देश भी सबक लेंगे। बंगलादेश जब भारत की अर्थव्यवस्था से लाभ उठायेगा तब पाकिस्तान का व्यापार जगत भी भारत के साथ इसी तरह के रिश्ते बनाने का दबाव अपनी सरकार पर डालेगा। शायद इसके बाद पाकिस्तान अपनी जमीन से होकर अफगानिस्तान को भी भारत के साथ व्यापार करने की सुविधा दे दे, क्योंकि इससे पाकिस्तान को राजस्व की आय होगी। इस तरह भारत और बंगलादेश के आर्थिक और राजनीतिक रिश्ते दक्षिण एशिया के दूसरे देशों के लिए मिसाल साबित होंगे और दूसरे पड़ोसी देश भी भारत की सुरक्षा चिंताओं को ध्यान में रखते हुए इसके साथ रिश्ते सामान्य बनाने की कोशिश करेंगे। इस तरह पूरे दक्षिण एशिया में आर्थिक सहयोग का एक नया माहौल बनेगा। इसलिए बंगलादेश के साथ भारत के बेहतर रिश्तों को केवल दो देशों के संबंधों के मद्देनजर ही नहीं देखा जाना चाहिए। इन रिश्तों का सुधरना भारत के लिए पूरे दक्षिण एशिया के संदर्भ में व्यापक महत्व रखता है।
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हमारी हिन्दी और उनकी अंग्रेजी
हरिराम पाण्डेय
14सितम्बर 2011
आज हिन्दी दिवस है। इस अवसर पर जरा कल्पना करें एक चुटकुले की, जिसमें कहा जाय कि 'पैंसठ साल से एक आजाद देश जिसकी कथित तौर पर राष्टï्रभाषा हिन्दी है उस देश में बड़ा अफसर बनने के लिये सबसे बड़ी योग्यता अंग्रेजी ज्ञान है।Ó कैसी हास्यास्पद स्थिति है, आप सोच सकते हैं। जिस दिन लार्ड मैकाले का सपना पूरा और गांधी जी का सपना ध्वस्त हो जाएगा, उस दिन देश पूरे तौर पर केवल 'इंडियाÓ रह जाएगा। हो सकता है, समय ज्यादा लग जाए, लेकिन अगर भारतवर्ष को एक स्वाधीन राष्टï्र बनना है, तो इन दो सपनों के बीच कभी न कभी टक्कर का होना निश्चित है।
जो देश भाषा में गुलाम हो, वह किसी बात में स्वाधीन नहीं होता और उसका चरित्र औपनिवेशिक बन जाता है। यह एक पारदर्शी कसौटी है कि चाहे वे किसी भी समुदाय के लोग हों, जिन्हें हिंदी को राष्टï्रभाषा मानने में आपत्ति है, वह भारतवर्ष को फिर से विभाजन के कगार तक जरूर पहुंचाएंगे। चाणक्य का कहना था कि 'किसी भी देश और समाज के चरित्र को समझने की कसौटी है कि उस देश और समाज का भाषा से सरोकार क्या है। जबकि भारतवर्ष में भाषा या भाषाओं के सवालों को निहायत फालतू करार दिया जा चुका है। मैकाले का मानना था कि जब तक भाषा के स्तर पर गुलाम नहीं बनाया जाएगा, भारतवर्ष को पूरी तरह, गुलाम बनाना संभव नहीं होगा। मैकाले का सोच था कि हिंदुस्तानियों को अंग्रेजी भाषा के माध्यम से ही सही और व्यापक अर्थों में गुलाम बनाया जा सकता है।
यह ऐसे अंग्रेजीपरस्त नेताओं का ही काला कारनामा था कि अंग्रेजी को जितना बढ़ावा गुलामी के 200 वर्षों में मिल पाया था, उससे कई गुना अधिक महत्व तथाकथित स्वाधीनता के केवल 65 वर्षों में मिल गया और आज भी निरंतर जारी है। जबकि गांधी जी का सपना था कि अगर भारतवर्ष भाषा में एक नहीं हो सका, तो ब्रिटिश शासन के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को आगे नहीं बढ़ाया जा सकेगा। भारत की प्रादेशिक भाषाओं के प्रति गांधी जी का रुख उदासीनता का नहीं था। वह स्वयं गुजराती भाषी थे, किसी अंग्रेजीपरस्त कांग्रेसी से अंग्रेजी भाषा के ज्ञान में उन्नीस नहीं थे, लेकिन अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम छेडऩे के बाद अपने अनुभवों से यह ज्ञान प्राप्त किया कि अगर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध स्वाधीनता संग्राम को पूरे देश में एक साथ आगे बढ़ाया जा सकता है, तो केवल हिंदी भाषा में, क्यों कि हिंदी कई शताब्दियों से भारत की संपर्क भाषा चली आ रही थी।
भाषा के सवाल को लेकर मैकाले भी स्वप्नदर्शी थे, लेकिन उद्देश्य था, अंग्रेजी भाषा के माध्यम से गुलाम बनाना। गांधी जी स्वप्नद्रष्टा थे स्वाधीनता के और इसीलिए उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया। पूरे विश्व में एक भी ऐसा राष्टï्र नहीं है, जहां विदेशी भाषा को शासन की भाषा बताया गया हो, सिवाय भारतवर्ष के। हजारों वर्षों की सांस्कृतिक भाषिक परंपरावाला भारतवर्ष आज भी भाषा में गुलाम है और आगे इससे भी बड़े पैमाने पर गुलाम बनना है। यह कोई सामान्य परिदृष्टि नहीं है। अंग्रेजी का सबसे अधिक वर्चस्व देश के हिंदी भाषी प्रदेशों में है।
भाषा में गुलामी के कारण पूरे देश में कोई राष्ट्रीय तेजस्विता नहीं है और देश के सारे चिंतक और विचारक विदेशी भाषा में शासन के प्रति मौन हैं। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा के सवालों को जैसे एक गहरे कोहरे में ढंक दिया गया है और हिंदी के लगभग सारे मूर्धन्य विद्वान और विचारक सन्नाटा बढ़ाने में लगे हुए हैं। राष्ट्रभाषा के सवाल पर राष्ट्रव्यापी बहस के कपाट जैसे सदा-सदा के लिए बंद कर दिए गये हैं। कहीं से भी कोई आशा की किरण फूटती दिखायी नहीं पड़ती।
इतने के बावजूद भारतीय अंग्रेजी का कद्र क्या है। प्रेमचंद और तुलसी को छोडिय़े हिन्दी के दूसरे दर्जे के लेखकों की श्रेणी में भारतीय अंग्रेजी लेखकों को खड़ा कर सकते हैं तो नाम गिनाएं। कैसी विडम्बना है कि बचपन से 6 वर्षों तक सी ए टी कैट और आर ए टी रैट रटता हुआ बच्चा अपने जीवन के 26-27 साल अंग्रेजी के ग्रामर, स्पेलिंग और प्रोननसिएशन सीखने में लगा देता है और तब भी अशुद्ध उच्चारण और शब्द प्रयोग करता है। भारत के जितने अंग्रेजीदां हैं उनमें से एक प्रतिशत भी ऐसे नहीं हैं जो उसी भाषा में सोचते हों और सीना ठोंक कर कह सकें कि वे उसी स्तर की अंग्रेजी जानते हैं जिस स्तर की हिन्दी एक अच्छी हिन्दी पढ़ा भारतीय जानता है।
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कब तक ताल ठोकेंगे आडवाणी जी
हरिराम पाण्डेय
12 सितम्बर 2011
संसद में और यूं कहें भारत में मुख्य विपक्षी राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी अभी भी राजनीतिक प्रचार के पुराने तरीकों से चिपकी हुई है। भाजपा के 84 वर्षीय नेता लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्रा की घोषणा से तो ऐसा लगता है कि वे अभी भी नेपथ्य में रह कर संगठन के संचालन का दायित्व नहीं संभालना चाहते और ना यह चाहते हैं कि नौजवान लोग मंच पर आ कर नेतृत्व करें। आडवाणी फिलहाल संसदीय विपक्ष के सबसे कद्दावर नेता हैं और इस मुद्दे पर देश में जितना आक्रोश देखा जा रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए उनके इस कदम का नैतिक औचित्य समझ में आता है। लेकिन जहां तक मामला इसके राजनीतिक औचित्य का है तो वहां सवाल ही सवाल भरे पड़े हैं। देश के आम आदमी के लिए इस प्रस्तावित यात्रा से जुड़ी सबसे बड़ी चिंता यही होगी कि लगभग स्वत:स्फूर्र्त ढंग से उभरी भ्रष्टाचार विरोधी चेतना को इससे कहीं कोई झटका तो नहीं लगेगा।
जन लोकपाल विधेयक के लिए चल रहा जो आंदोलन इस चेतना की मुख्य अभिव्यक्ति बना हुआ है , उसका स्वरूप अब तक अराजनीतिक रहा है। किसी एक पार्टी का इसे भुनाने के लिए आगे आना लोगों में इसके प्रति अरुचि पैदा कर सकता है। वह भी तब , जब संबंधित पार्टी - बीजेपी - की कई राज्य सरकारों पर भ्रष्टाचार में लिप्त होने या इसके प्रति नरम रवैया अपनाने के आरोप मीडिया में छाए हुए हों। दूसरा खतरा इस रथयात्रा के असर में समूची भ्रष्टाचार विरोधी चेतना को ही सांप्रदायिक रंग दे दिए जाने का है। अक्टूबर 1990 और नवंबर - दिसंबर 1992 के महीने इतिहास में भले ही क्रमश: इक्कीस और उन्नीस साल पीछे छूट गए हों लेकिन लालकृष्ण आडवाणी की ख्याति और स्मृति आज भी उनकी इन्हीं दो यात्राओं को लेकर है। इनके बाद वे चार और यात्राओं पर निकले , वह अब लोगों को याद नहीं है।
यह सही है कि आडवाणी की उपरोक्त दोनों राम रथयात्राओं ने उन्हें देश में और खुद अपनी पार्टी में भी कमोबेश अटल बिहारी वाजपेयी के कद का नेता बनाया , लेकिन दूसरी तरफ बीजेपी का दर्जा विपक्ष की सबसे सुसंगत पार्टी से घटाकर उग्र सांप्रदायिक नारों की सियासत करने वाली पार्टी जैसा बना देने में भी सबसे बड़ी भूमिका इन्हीं की रही। यह एक विडंबना ही है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर खुद को बुरी तरह घिरी पा रही कांग्रेस ने आडवाणी की यात्रा - घोषणा का स्वागत किया है। इस सियासी फंदे का अहसास विपक्ष के सबसे कद्दावर नेता को समय रहते हो जाना चाहिए।
चाहे हम आडवाणी या भाजपा के विरोधी हों या समर्थक, इस कदम को सही रणनीतिक गर्जना मानना होगा। वैसे भी आधुनिक राजनीतिक इतिहास में यात्रा और आडवाणी एक दूसरे के पर्याय हैं। आडवाणी की यह पांचवीं अखिल भारतीय रथयात्रा होगी। इसके परिणाम का आकलन फिलहाल कठिन है, लेकिन जनता के बीच जाकर दलीय राजनीतिक संघर्ष का यह एक उपयुक्त कदम है। वैसे भाजपा में राजनीतिक संघर्ष का माद्दा तो छोडि़ए, ऐसे सोच तक रखने वालों का अभाव हो चुका है। ऐसी पार्टी का राजनीतिक भविष्य क्या होगा, इसका आकलन आसानी से किया जा सकता है। आखिर आडवाणी कब तक ताल ठोंकने के लिए बने रहेंगे।
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अशौच धनÓ ही देश की सबसे बड़ी समस्या : जगद्गुरु
हरिराम पाण्डेय
12 सितम्बर 2011
जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की धारणा है कि आज हमारे राष्टï्र की सबसे बड़ी समस्या अशौच धन है और उसे प्राप्त करने का लोभ है। चातुर्मास्य के अवसर पर जगद्गुरु ने कोलकाता प्रवास के दौरान सन्मार्ग के सम्पादक हरिराम पाण्डेय से लम्बी बातचीत में अनेक विषयों और समस्याओं पर अपने विचार रखे। उन्होंने कहा कि राजनीति में धर्म को शामिल किये जाने का विरोध गलत है। उनका कहना है कि जब राज नहीं थे और राजनीति नहीं थी तब धर्म था और उसके आश्रय में ही मानव जाती का विकास हुआ। उसके बाद राज बने, राजा बनें और राजनीति बनी। अतएव धर्म का होना एक अनुशासन पैदा करता है। उन्होंने एक प्रश्न के उत्तर में धर्म की आधुनिक परिभाषा को स्वार्थपूर्ण और निहित उद्देश्य वाला बताया और कहा कि शास्त्रों , पुराणों और वेदों में जो परिभाषा वह ही सर्वश्रेष्ठï है। उन्होंने पुण्य को परिभाषित करते हुये कहा कि वह भी सत्कर्म जो मृत्यु पश्चात यश देता है और जिससे सद्भावना का विकास होता है वही पुण्य है। उन्होंने धर्मगुरुओं की सामाजिक और राष्टï्रीय भूमिका को रेखांकित करते हुये कहा कि राष्टï्र सर्वोपरि है और देश के धर्मपरायण लोगों के आध्यात्मिक तथा मानसिक विकास , उनकी समृद्धि तथा यश के लिये किया गया कर्म ही प्रमुख भूमिका है। प्रस्तुत है जगद्गुरु से सन्मार्ग की वार्ता का संक्षिप्त अंश:
सन्मार्ग: पुण्य क्या है?
जगद्गुरु: जब मनुष्य कोई कर्म करता है तो उसका फल कुछ काल के बाद प्राप्त होता है। यदि उस फल से संस्कार प्राप्त होते हैं तो वह सत्कर्म है। साथ ही सत्कर्म से मृत्यु के पश्चात भी यश उपलब्ध होता है यही पुण्य है।
सन्मार्ग: आज की सबसे बड़ी समस्या क्या है?
जगद्गुरु: आज की सबसे बड़ी समस्या है 'अर्थाशौच।Ó अर्थाशौच को स्पष्टï करते हुये जगद्गुरु ने कहा कि अपवित्र धन। वह धन जिसके श्रोत में शुचिता नहीं है। एक तरह से यह मानव समुदाय के सारे कष्टïों का मूल है।
सन्मार्ग: आप सनातन धर्म के सर्वोच्च गुरू हैं और करोड़ों लोग आपसे असीम श्रद्धा रखते हैं। आज अक्सर कहा जा रहा है धर्म छीज रहा है। आप जैसे गुरू के होते ऐसा क्यों होता है?
जगद्गुरु : हर युग में धर्मविरोधी धारायें रहीं हैं। आज भी, सनातन धर्मी मनुष्य धर्म परायण हैं और हम लोग उन्हें धर्म के मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करते हैं और लोग उस मार्ग का अनुगमन करते हैं।
सन्मार्ग : पश्चिमी देशों में और अपने देश के पश्चिमपंथियों में आजकल दक्षिणपंथी कट्टïरवाद की बहस चल रही है। यह प्रकारांतर से हिंदू धर्म पर प्रहार है। इस सम्बंध में आपके क्या विचार हैं?
जगद्गुरुï : सर्वप्रथम दक्षिणपंथी का जो कट्टïरवाद है वह हिंदूत्व से परे है। जो हिंदूधर्म को इससे जोड़ते हैं वे हिंदुत्व को खत्म करना चाहते हैं। ये हिंदुत्ववादी कभी हिंदु धर्म की मूल समस्याओं की बात नहीं करते। वे कभी हिंदू नेपाल को हिंदू राष्टï्र बनाये रखने के बारे में नहीं बोलते, गंगा को राष्टï्रीय नदी घोषित कराने की बात नहीं करते। शास्त्रोक्त मार्ग का अनुसरण करने वाला हिंदू है और वह हिंदू कभी कट्टïरपंथी हो ही नहीं सकता।
सन्मार्ग: क्या राजनीति में धर्म का उपयोग होना चाहिये?
जगद्गुरु : व्यक्ति और समाज धर्म के अनुसार जीवन व्यतीत करे इसी के लिये तो राजनीति है। आदि काल में जब राज नहीं थे, राजा नहीं थे, दंड नहीं थ और दांडिक भी नहीं थे तब धर्म के अनुसार ही मनुष्य अपना जीवन व्यतीत करता था। राजनीति का अर्थ है राजा की नीति। यदि राजा धर्म से नियंत्रित रहेगा तो राजनीति स्वयं धर्म से नियंत्रित हो जायेगी। धर्म तो छत्रों का भी छत्र है। लेकिन आज तो 'मत्स्य न्यायÓ है। यानी बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। इसी लिये धर्म को राजनीति से पृथक करने का स्वार्थपूर्ण अभियान चल पड़ा है ताकि उनकी राह में यह रोड़ा ना बने।
सन्मार्ग: हमारे धर्मगुरु अक्सर राष्टï्रीय समस्याओं और वैश्विक समस्याओं पर नहीं बोलते हैं जबकि उन्हें धर्म पर बाजारवाद और राजनीति के प्रहार से हिंदू धर्मावलम्बियों की रक्षा के लिये आप जैसे लोगों की ओर से मार्गदर्शन जरूरी है। इस सम्बंध में आप के क्या विचार हैं?
जगद्गुरु : धर्म गुरुओं का कत्र्तव्य है मानवमात्र की रक्षा। इसके लिये मैने अपने स्तर से अतीत में अनेक प्रयास किये हैं। जैसे, गंगा को राष्टï्रीय नदी घोषित करवाने का आंदोलन , गोहत्या बंद करवाने सम्बंधी आंदोलन इत्यादि के लिये मैने बहुत प्रयास किये। इस उम्र में भी प्रयासरत हूं। ये सारी बातें जनोन्मुखी हैं और इन्हें धर्म का बाना पहना कर दुष्प्रचारित किया जाता है। आज अन्न की समस्या है, प्रदूषण की समस्या है और गो हत्या विरोध का अर्थ है गोवंश की रक्षा। इसका ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव होता है यह बताने की जरूरत नहीं है। यही बात गंगा के साथ भी है यह नदी नहीं हमारी संस्कृति है और राष्टï्र की आजीविका की वाहक है। उन्होंने बाबा रामदेव की चर्चा करते हुये कहा कि जिस तरह से राष्टï्रीय समस्याओं को उन्होंने उठाया वह उचित नहीं है। वे विदेशों में जमा काला धन देश में लाने की बात करते हैं और उसे सरकारी सम्पत्ति घोषित करने की मांग करते हैं और साथ ही आरोप लगाते हैं कि सरकार भ्रष्टï है। वे क्या कह रहे वही स्पष्टï नहीं है। वे देश की समृद्धि की बात करते हैं तो समृद्धि काले धन को जब्त कर लेने से नहीं होगी बल्कि देश के लोगों में कठोर परिश्रम अनुशासन और ईमानदारी से होगी और इसके लिये केवल धर्म ही प्रेरित कर सकता है। उन्होंने कहा कि जो वंचित हैं उन्हें साधन मुहय्या कराना जरूरी है। जगद्गुरु ने झारखंड स्थित अपने आश्रम के चतुर्दिक 550 परिवारों का उदाहरण देते हुये बताया कि उनके दोनो समय के भोजन के राशन का आश्रम बंदोबस्त करता है न कि सरकारी व्यवस्था।
सन्मार्ग: ईसाई धर्म के सर्वोच्च गुरू पोप की बात विश्व का समस्त ईसाई समुदाय और हमारे हिंदु धर्मावलम्बी भी न केवल ध्यान से सुनते हैं बल्कि अमल भी करते दिखते हैं। लेकिन हमारे धर्मगुरुओं की बात पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता, क्या करण है?
जगद्गुरु: पोप की बात पर भी अमल नहीं होता। विभिन्न काल में उन्होंने युद्ध विरोधी बयान दिये , क्या युद्ध रुका। जो आप सबों को दिखता है वह पश्चिमी प्रचारतंत्र पर हमारी निर्भरता है और उनके प्रचार का यह सब कौशल है। यह एक तरह का षड्यंत्र है। इससे सावधान रहने की जरूरत है।
सन्मार्ग: क्या धार्मिक होते हुये भी धर्मनिरपेक्ष नहीं हुआ जा सकता?
जगद्गुरु : बिल्कुल हुआ जा सकता है। धार्मिक होने का अर्थ किसी धर्म से पक्षपात नहीं है। धर्म निरपेक्षता ही धर्म है। जहां तक हिंदू धर्म की बात है वह अत्यंत वैज्ञानिक है, इसमें किसी से विरोध नहीं है।
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बहुसंख्यकों की भावनाओं का सम्मान करें
हरिराम पाण्डेय
10 सितम्बर 2011
साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा की रोकथाम विधेयक 2011 को लेकर एक बार फिर राजनीतिज्ञ और राजनीतिक दल गोलबंद होने लगे हैं और देश के राजनीतिक ध्रुवीकरण की शुरुआत हो चुकी है। बिहार, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, उड़ीसा और पंजाब सहित कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने साम्प्रदायिक हिंसा विधेयक का तीव्र विरोध किया है और इसे 'निहित हितोंÓ की पूर्ति करने वाला बताया है और कहा है कि इससे देश का संघीय ढांचा कमजोर होगा। लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने शनिवार को यहां प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई राष्टï्रीय एकता परिषद (एनआईसी) की बैठक में साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा की रोकथाम विधेयक 2011 को खारिज करने की मजबूत दलील पेश की। उनका मानना है कि विधेयक के प्रावधान धर्म एवं जाति के आधार पर असहिष्णुता की भावना को बढ़ावा दे सकते हैं। उन्होंने विधेयक को अत्यंत 'खतरनाकÓ कहा। पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ दल तृणमूल कांग्रेस विधेयक के वर्तमान स्वरूप से सहमत नहीं है।
धर्म निरपेक्षता का अर्थ है कि सरकार की नीति और कार्य किसी भी मत, सम्प्रदाय, मजहब का समर्थन ना करे। जगद्गुरु शंकराचार्य जैसे धार्मिक नेता का भी मानना है कि 'धर्म निरपेक्षता अपने आप में एक धर्म है और इसमें किसी धर्म का विरोध नहीं होता और ना किसी वर्ग या मजहब से पक्षपात होता है। धर्म निरपेक्ष नीति से किसी वर्ग को न लाभ पहुंचता है और न किसी मजहब या पंथ को हानि पहुंचती है।Ó हमारे देश में हिन्दुओं को बहुसंख्यक कहा जाता है और मुसलमान या ईसाई आदि अल्पसंख्यक कहे जाते हैं। विख्यात चिंतक प्रो उमाकांत उपाध्याय ने अपने एक लेख में कहा है कि 'जब कोई नीति बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक लोगों के लाभ हित को ध्यान में रखकर बनायी जाती है तो यह पक्षपात पूर्ण होती है, यह धर्म या सम्प्रदाय की दृष्टि से धर्म निरपेक्ष नहीं कही जा सकती। देश के सभी नागरिक सरकार की निगाह में ,सरकारी नीति और कानून की दृष्टि से समान होते हैं। Ó संप्रग सरकार के प्रमुख रूप से दो नेता मुखिया हैं, डॉ. मनमोहन सिंह सरकार के नेता प्रधानमंत्री हैं और श्रीमती सोनिया गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष हैं तथा भारत सरकार की परामर्श देने वाली समिति की अध्यक्ष हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि सरकार की नीतियों का उत्तरदायित्व मुख्य रूप से इन्हीं दोनों का है। इनमें भी डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार श्रीमती सोनिया गांधी के परामर्श से चलती है अत: नैतिक रूप से श्रीमती सोनिया गांधी जिम्मेदार हैं तथा विधि और कानून की दृष्टि से डॉ. मनमोहन सिंह जिम्मेदार हैं। सम्पूर्ण संप्रग सरकार, उसके मंत्री, संप्रग के सभी घटक, श्रीमती सोनिया गांधी आदि सभी कांग्रेसी नेता यह कहते हैं कि संप्रग सरकार और उसकी नीतियां धर्म निरपेक्ष हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि सरकार जो भी करती है, जो भी लाभकारी कदम उठाती है वह किसी विशेष वर्ग या सम्प्रदाय के लिए नहीं है, क्योंकि सरकार किसी भी धर्म या मजहब का पक्षपात नहीं करती। लेकिन यह विधेयक क्या है? आखिर वे कौन सी ताकतें हैं जिनके दबाव में हमारी सरकार यह बहुसंख्यक विरोधी कानून बनाने पर आमादा है? क्या कारण है इसका? क्या सरकार को ऐसा महसूस होता है कि हमारे देश में बहुसंख्यक समाज से अल्पसंख्यक समाज को खतरा है? कानून बनाना सरकार का काम है लेकिन यह जनता के हित में होना चाहिये। जनता का अर्थ अल्पसंख्यक समाज नहीं है। सरकार को बहुसंख्यकों की भावनाओं का भी सम्मान करना चाहिये।
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क्यों हम हो जाते हैं नाकामयाब
हरिराम पाण्डेय
9 सितम्बर 2011
आतंकवाद की समस्या दिनोंदिन चिंताजनक होती जा रही है। यह चिंता इसलिये नहीं कि आतंकवादी ज्यादा चालाक और चुस्त होते जा रहे हैं। बेशक यह भी एक कारण है पर यही एकमात्र कारण नहीं है। इसका मुख्य कारण कि वे कहीं दिखते नहीं हैं। 26/11 से अबतक आतंकवादी हमलों की नौ घटनाएं हो चुकी हैं- इनमें तीन दिल्ली में , तीन मुम्बई में और एक - एक पुणे, वाराणसी और बेंगलूर में - और अब तक सरकार को यह नहीं मालूम हो सका कि वे कौन लोग हैं, उनकी आइडिअलॉजी क्या है, किस परिवार से आये हैं, उनका उत्स क्या है और वे चाहते क्या हैं, वे कितने संगठित हैं, कितने ताकतवर हैं, देसी हैं या विदेशी हैं? 26 /11 के बाद से अब तक हम किसी ऐसे समाधान तक-पहुंच पाये कि दुबारा ऐसी घटना को कैसे रोका जाय। हमारी एजेंसियों के पास उचित और कारगर आंकड़ों का अभाव है। यहां तक कि राजीव गांधी की हत्या और संसद पर हमले के अपराध के सिवा कोई भी आतंकवादी हमले का केस सॉल्व नहीं हो सका। पुलिस किसी के इशारे पर कभी इसको पकड़ लेती कभी उसको पकड़ लेती है। और फिर 5 साल 10 साल बाद छोड़ देती है। कभी जब कोई पुलिस वाला किसी निष्कर्ष पर आता नजर आता है तो उसको ही मुंबई जैसे हमले में खतम कर दिया जाता है आज तक यह बात समझ में ही नेता क्यों नही मरते और, ना इनका कोई रिश्तेदार मरता है। हर हमले के बाद एक ई मेल आता है की फलां ने इसकी जिम्मेदारी ली है और पता चलता है की ये किसी कैफे से आया है और कैफे वाले के पास उस आदमी का कोई पहचान पत्र नहीं है। कहीं ना कहीं कोई ना कोई घपला और घोटाला है कोई ना कोई तार 'मिसिंगÓ है। देश के सारे जांच तन्त्र या तो इन्हीं के इशारे पर कम कर रहे हैं या फिर सक्षम नहीं हैं कि इनका असली चेहरा बेनकाब कर सकें। इसका चाहे जो भी कारण हो लेकिन है चिंता का विषय। क्योंकि मानव खुफियागीरी या मशीन खुफियागीरी दोनों आपसी सहयोग से काम करते हैं। एक नाकामयाब होता है तो दूसरे से उसकी भरपाई हो जाती है। अगर दोनों नाकामयाब रहे तो बड़ी विकट स्थिति होती है। अंधेरे में हाथ-पैर मारने के सिवा कुछ नहीं होता है। आतंकवाद विरोधी कार्रवाई के दरअसल तीन हिस्से होते हैं। घटना के बारे में पूर्व सूचना के आधार पर सामयिक एक्शन,दूसरा कि सतर्कता और पहरेदारी के बल पर घटना घटने से रोका जाना और तीसरा जांच के आधार पर आतंकवादियों को समाप्त कर देना। जब भी कोई आतंकी घटना होती है तो चारों तरफ शोर मचने लगता है लेकिन कभी कोई मूल तथ्यों पर ध्यान नहीं देता। आशा है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष वाले अब चेतेंगे और समन्वित रूप में तथा जिम्मेदाराना ढंग से सोचेंगे नकि अपने - अपने स्वार्थ के चश्मे से मामलों को देखेंतगे।
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Wednesday, September 7, 2011
दिल्ली के दिल पर आघात
हरिराम पाण्डेय
8 सितम्बर 2011
दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर आज एक बार फिर बम धमाका हुआ है। यह धमाका गेट नंबर पांच के पास हुआ है। गृह मंत्रालय ने माना है कि यह आतंकवादी हमला है। केंद्रीय गृह सचिव आर. के. सिंह के मुताबिक सुबह 10.14 बजे धमाका हुआ। इसमें 11 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की गयी है। घायलों की तादाद 85 हो गयी है, इनमें कई की हालत गंभीर है। गृह सचिव के मुताबिक इस धमाके में आईईडी और टाइमर का इस्तेमाल किया गया है। धमाके में अमोनियम नाइट्रेट का भी इस्तेमाल किए जाने की खबर है। घायलों और मरने वालों की तादाद बढ़ सकती है। कुछ महीने पहले ही (25 मई को) दिल्ली हाईकोर्ट के परिसर में धमाका हुआ था। इस धमाके में अमोनियम नाइट्रेट का इस्तेमाल किए जाने की बात सामने आयी थी। जिस जगह पर यह धमाका हुआ है वहां लोग हाईकोर्ट में प्रवेश के लिए पर्चियां बनवाते हैं। गेट नंबर पांच ही मुख्य गेट है, यहां से अधिकतर वकील और उनके मुवक्किल अदालत परिसर में घुसते हैं। चश्मदीदों के मुताबिक जिस वक्त धमाका हुआ वहां गेट नंबर पांच के आसपास करीब 200 लोग मौजूद थे। हाईकोर्ट परिसर के बाहर हुए बम धमाके के बाद संसद भवन की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी कर दी गयी है। संसद भवन धमाके के स्थान से ढाई किलोमीटर की दूरी पर है। मशहूर इंडिया गेट हाईकोर्ट से बिल्कुल नजदीक है। पी चिदंबरम ने लोकसभा में दोपहर को बयान देते हुए कहा कि यह आतंकी हमला है। उन्होंने कहा कि दिल्ली आतंकवादियों के निशाने पर रही है। चिदंबरम ने मृतकों के परिजनों के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए घायलों को बेहतरीन इलाज मुहैया कराये जाने का आश्वासन दिया है। बम धमाके के बाद गृह मंत्रालय में उच्चस्तरीय बैठक हुई। केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम और वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने पीएम मनमोहन सिंह को इस बम धमाके की जानकारी दी है। पीएम इस वक्त बांग्लादेश दौरे पर हैं। पीएम ने इस बम धमाके की निंदा करते हुए इसे कायराना कार्रवाई करार दिया है। गृह मंत्रालय में विशेष सचिव (आंतरिक सुरक्षा) यू के बंसल ने कहा कि हाईकोर्ट के बाहर धमाके के बाद दिल्ली सहित पूरे देश में अलर्ट जारी कर दिया गया है। पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन हरकत-उल-जिहाद इस्लामी (हूजी) ने मीडिया को भेजे एक ई मेल संदेश में दिल्ली हाई कोर्ट के सामने हुए बम विस्फोट कांड की जिम्मेदारी ली है। इस ई मेल के मुताबिक हूजी की मांग है कि अफजल गुरु की मौत की सजा माफ की जाए। हालांकि सरकार ने अभी इस ई मेल संदेश की प्रामाणिकता स्वीकार नहीं की है। इस ई मेल संदेश की जांच की जा रही है। ई मेल संदेश में कहा गया है कि अगर अफजल गुरु की फांसी माफ करने की मांग मानी नहीं गई तो सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों में विस्फोटों की ऐसी कई घटनाएं होंगी। अफजल गुरु को संसद हमला मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2004 में फांसी की सजा सुनाई थी।
हमले के लिए बुधवार का दिन खास मकसद से चुना गया। इस दिन अदालत में ज्यादा भीड़ होती है। इसकी वजह यह है कि इस दिन जनहित याचिका की सुनवाई होती है। इसलिए आम दिनों की तुलना में काफी ज्यादा लोग अदालत आते हैं। बीते 25 मई को भी हाईकोर्ट के बाहर धमाका हुआ था। उस दिन भी बुधवार ही था। उस धमाके में जान माल का ज्यादा नुकसान नहीं हुआ था। माना जाता है कि वह वारदात आतंकियों ने 'रिहर्सलÓ के तौर पर अंजाम दी थी। अभी तक मिली जानकारी के अनुसार तो ऐसा लगता है कि यह हमारी सुरक्षा एजेंसियों को चुनौती है। दुनिया भर में 9/11 की घटना के बाद अपराध जांच और सुरक्षा में काफी इजाफा हुआ है पर हमारे देश में , अंतरराष्टï्रीय सहयोग के बावजूद, यह बुरी तरह नाकामयाब है। हमारा खुफिया तंत्र और आतंकवादी विरोधी एजेंसियां भारी कमियों से ग्रस्त हैं और उसे चुस्त- दुरुस्त बनाने की बातें केवल बातें हैं। विपक्षी दल भी लम्बी- लम्बी डींगें मारेंगे लेकिन वे भी राष्टï्रीय हित के इस मसले पर सरकार का ध्यान केंद्रित कराने में नाकामयाब रहे। जब इस पर वार्ता होती भी है तो एक दूसरे पर कीचड़ उछालने के सिवा कुछ नहीं हो पाता।
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मीठे पानी पर तीखी सियासत
हरिराम पाण्डेय
7 सितम्बर 2011
तीस्ता जल समझौता भारत -बंगलादेश द्विपक्षीय समझौते की कार्य सूची से अलग कर दिया गया। यह श्रेय पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी को जाता है। वह भी इसलिये कि वे प्रधानमंत्री के साथ ढाका जा रही थीं और समझौते के मसौदे को देख कर उन्होंने नहीं जाने का एलान कर दिया। इस बाधा ने बंगाल की भावनाओं से विश्वासघात को रोक तो दिया पर जब दिल्ली दरबार में पोशीदा धूर्तता से और असंवेदनशीलता के साथ समझौते के मजमून बनते हों तब कब तक ऐसा किया जा सकता है। इन सब बातों को देखकर तो ऐसा लगता है कि संविधान में एक ऐसा संशोधन जरूरी है जिसके तहत भारत की सुरक्षा , क्षेत्रीय अखंडता, समरनीतिक मामले से जुड़े अंतरराष्टï्रीय समझौतों के मसौदों पर संसद की मंजूरी अनिवार्य होनी चाहिए।
सुश्री ममता बनर्जी की ढाका यात्रा के मुल्तवी होने के बारे में विदेश सचिव ने कल जो भी कहा उससे यह तो पता चलता है कि कांग्रेस और तृणमूल में बन नहीं रही है और तृणमूल की नेता केंद्र से बेहद खफा हैं और इससे विदेशों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेइज्जती थोड़ी कम हुर्ई। लेकिन विदेश सचिव ने यह नहीं बताया कि जिस मसले पर पहले से ही समझौता था उस पर और अधिक उदार होने की क्या जरूरत पड़ी थी? विदेश सचिव रंजन मथाई ने यह तो बता दिया कि हमारे देश के संघीय ढांचे के अंतर्गत कोई भी समझौता राज्यों के परामर्श के बिना न होता है और न होगा। यह सिद्धांत प्रस्तावित तीस्ता जल समझौते के लिये जितना सच है उतना ही उन सभी अंतरराष्टï्रीय समझौतों के लिये भी होना चाहिए जिससे राज्यों अथवा राष्टï्र के हितों को आघात लगता हो। लेकिन अतीत के वाकयात बताते हैं कि यह सिद्धांत अनुपालन के मामले में बहुत सही नहीं है, खास कर भारत के साथ अन्य अंतरराष्टï्रीय समझौतों में। खास कर तीस्ता जल आवंटन मामले में। सुश्री ममता बनर्जी को पहले जो मसौदा दिखाया गया था उसमें लिखा था कि बंगलादेश को तीस्ता के जल का 25000 क्यूसेक जल दिया जायेगा। बाद में उसे चुपचाप बढ़ा कर 33000 क्यूसेक कर दिया गया। इससे ममता जी को बड़ा अपमान बोध हुआ। क्योंकि राज्य के हितों की हिफाजत उनका पहला कत्र्तव्य है और वैसे भी राज्य के हित बेशक राष्टï्र के हित भी होते हैं। पश्चिम बंगाल के लगभग पांच जिलों में कृषि के लिये तीस्ता के जल पर निर्भरता है और इन्हें कम जल दिये जाने का अर्थ होगा उन जिलों में व्यापक संकट। इसके अलावा समझौते में इस तरह की धोखाधड़ी का अर्थ होगा बंगलादेश में मनमोहन सिंह की वाहवाही के लिये अपने देश की जनता के साथ दगाबाजी। इसके पहले भी कई बार अंतरराष्टï्रीय समझौतों के मामले में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ऐसा किया है। वे समझौता होने के पहले तक बताते कम हैं और छुपाते ज्यादा हैं। जब समझौतों पर दस्तखत हो जाते हैं तो वे उसे देश को भेंट कर देते हैं और उसके नतीजों के लिये उनकी किस्मत पर छोड़ देते हैं। इस तरह की घटनाओं और क्रियाओं को रोका जाना चाहिये।
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शिक्षक आज पुनरावलोकन करें
हरिराम पाण्डेय
5 सितम्बर 2011
हम अपने आदर्शों को भूल न जायं, उन्हें बार-बार याद करके अपने जीवन में उतार सकें, इसी बात को ध्यान में रख विशिष्ट प्रेरकों के जन्म दिवसों को मनाने की शृंखला में ही शिक्षक दिवस को भी मनाया जाता है। किन्तु वर्तमान में हम किसी भी उत्सव को वास्तविक रूप में मना नहीं पाते। प्रत्येक दिवस को मनाते समय हम औपचारिकताओं की पूर्ति मात्र ही कर रहे होते हैं। उत्सव केवल एक आडम्बर बनकर रह जाता है। उसके पीछे छिपा हुआ उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता। जिस प्रेरणा या विचार के कारण हम उस दिवस को मनाते हैं, उस प्रेरणा या विचार को तो हम समारोह के पास फटकने ही नहीं देते। इसी बात को ध्यान में रखकर हम देखें शिक्षक दिवस को वास्तव में हम क्या करते हैं।
बताने की आवश्यकता नहीं कि शिक्षक दिवस डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिवस है। शिक्षक दिवस देश के सभी स्कूलों, कालेजों व विश्वविद्यालयों में मनाया जाता है। बड़े ही उत्तम-उत्तम भाषण दिये जाते हैं। वरिष्ठ छात्र-छात्राएं इस दिन अपने से कनिष्ठ छात्र-छात्राओं को पढ़ाते हैं और इस तरह शिक्षक बंधु एक दिन के लिए कुछ अवकाश पा जाते हैं। छात्र-छात्राएं आपस में चन्दा करके कुछ गिफ्ट अपने शिक्षकों को देकर निजात पा जाते हैं। अधिकांश पत्र-पत्रिकाएं विशेष आलेख प्रकाशित करते हैं। इस प्रकार राधाकृष्णन को याद कर लिया जाता है। उनके विचारों, आदर्शों व आचरणों पर चर्चा करने की फुर्सत किसे है? अपनाने की तो बात ही क्या है? एक शिक्षक होते हुए श्री राधाकृष्णन राष्ट्रपति के उच्चतम पद पर पहुंचे इससे शिक्षक अपने आप को गौरवान्वित महसूस करते हैं, ऐसा कहना भी शायद उचित न हो।
किन्तु वास्तव में शिक्षक अपने कर्तव्यों को भी स्मरण कर पाते हैं? छात्र अपने शिक्षकों के प्रति वास्तव में श्रद्धा की भावना क्षण-भर को भी रख पाते हैं? श्रद्धा की तो बात ही छोड़ो उनके प्रति सामान्य सम्मान का भाव रखकर उन्हें अपमानित न करने का संकल्प ले पाते हैं? यदि नहीं, तो आज विचार करने की आवश्यकता है कि इसके पीछे क्या कारण हैं? शिक्षक दिवस का उपयोग शिक्षक अपना पुनरावलोकन करके इसे यथार्थ में उपयोगी बना सकते हैं।
शिक्षक अपने छात्रों से सदैव अपेक्षा रखते हैं कि वे 'गुरुब्र्रह्मा गुरुर्विष्णू गुरुर्देवो महेश्वर:Ó के आदर्श का पालन करते हुए हमको ईश्वर के समान समझें। हम छात्रों को पढ़ाते हैं-
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पायं।
बलिहारी गुरु आपने,गोविन्द दियो बताय।।
शिक्षक अपने छात्रों से बड़ी-बड़ी अपेक्षाएं रखते हैं किन्तु कभी अपने आप पर विचार नहीं करते। शिक्षक छात्रों को पाठ पढ़ाते हैं-श्रद्धावान लभते ज्ञानम्, किन्तु हम यह क्यों नहीं सोचते कि केवल शिक्षक के रूप में नियुक्ति से ही वे श्रद्धा के पात्र कैसे हो जाते हैं? क्या शिक्षक के रूप में, उनके जो कर्तव्य हैं उन पर उन्होंने कभी विचार किया है? केवल अधिकारों के प्रति जागरूक होना तथा कर्तव्यों व उत्तरदायित्वों की बात आने पर बगलें झांकना शिक्षक के लिये उपयुक्त है। जब शिक्षा मन्दिरों का जैसे-तैसे धन खींचने के लिए प्रयोग किया जा रहा हो, गरीब छात्र के लिए शिक्षा प्राप्त करना दूभर हो रहा हो, सत्य, अहिंसा, सामाजिक कार्यो, छात्र कल्याण से शिक्षकों का दूर-दूर का भी वास्ता न रह गया हो, ऐसे समय में छात्रों से इतनी अपेक्षा क्यों? अखबारों में खबरें प्रकाशित होती रहती हैं किस तरह शिक्षण में लगे लोग इस व्यवसाय की गरिमा को धूमिल कर रहे हैं। छात्र/छात्राओं का आर्थिक, मानसिक व शारीरिक शोषण किया जाता है। ऐसी स्थिति में अध्यापक को अध्यापक कहने में शर्म आती है। ऐसी स्थिति में हमें शिक्षक के रूप में सम्मान पाने की अपेक्षा क्यों करनी चाहिए? आज शिक्षक दिवस पर शिक्षकों को आत्मावलोकन की आवश्यकता है। उन्हें विचार करने की आवश्यकता है शिक्षण कर्म नौकरी नहीं है, एक सेवाकार्य है। समाज निर्माण का महत्वपूर्ण कार्य केवल आजीविका का साधन या धनी बनने का हथकण्डा मात्र नहीं हो सकता।
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नया इतिहास बनने वाला है
हरिराम पाण्डेय
1 सितम्बर 2011
अगले हफ्ते प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ढाका जाने वाले हैं। उनकी इस यात्रा के दौरान लम्बे अरसे से बकाया दो मामलों, जमीनी सीमा के विवाद और तीस्ता के पानी के बंटवारे के विवाद पर संभवत: समझौता होगा। ये दोनों ऐसे मुद्दे हैं कि हर वक्त कोई समस्या बनी रहती है इनके चलते। बहुत दिनों से नेपाल और भूटान से मिलकर एक पारस्परिक सहयोग के लिये एक स्वर्णिम चतुर्भुज बनाने की योजना चल रही है, उस पर भी कदम आगे बढ़ाये जाने की संभावना है। अगर यह सहयोग समझौता होता है तो चारों देशों में ऊर्जा और जल संसाधनों की उपलब्धता बढ़ जाएगी। वैसे भी भारत और बंगलादेश में द्विपक्षीय समझौतों की होड़ लगी है। वहां और यहां 2014 में चुनाव होने वाले हैं और दोनों इसके पहले अपने समझौतों को एक मुकम्मल शक्ल दे देना चाहते हैं ताकि मतदाताओं को महसूस हो कि द्विपक्षीय समझौतों से लाभ मिल रहे हैं और इसका सत्तारूढ़ दल को लाभ मिल सके। यही कारण है कि चाहे अफगानिस्तान का मामला हो या म्यांमार का भारत सब जगह अपनी उपस्थिति महसूस करा रहा है। जहां तक जमीनी सरहद के समझौते की बात है तो इसके अमल में आ जाने के बाद न केवल भारत का नक्शा बदल जायेगा बल्कि यह पहला मौका होगा जब किसी पड़ोसी देश से भारत का ठोस सीमा समझौता हो जायेगा। इस समझौते से सबसे बड़ा लाभ होगा कि 1947 के नासूर भरने की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी। 1947 में अंग्रेजों ने देश को विभाजित कर अस्पष्टï सीमाओं का एक ऐसा लंबा विवाद खड़ा कर दिया जिसमें न जाने कितनी आबादी और बेशुमार दौलत खप गयी। भावनाओं को जो आघात लगा वह अलग। इस समझौते से जो सीमा पथ (एनक्लेव) हैं और जो इलाके अवैध कब्जे में हैं उन्हें मान्यता मिल जायेगी। अगर जनगणना के आंकड़ों को मानें तो इन इलाकों में लगभग 55000 लोग रहते हैं और सबसे बड़ी बात है कि इस समझौते से यथास्थिति कायम रहेगी, न इलाकों का हस्तांतरण होगा और ना आबादी का स्थानांतरण। उस क्षेत्र की आबादी जो अबतक देशविहीन थी उसे नागरिकता मिल जाएगी और वह उस देश में जहां वे रहते आये हैं। अगर बाद में वे बदलना चाहते हैं तो उन्हीं तरीकों को अपनाना होगा जो आम नागरिक अपनाते हैं। जहां तक खबर है कि उन इलाकों में अबतक दोनों देशों के नागरिकों में शादियां होती रही हैं और सबसे बड़ी समस्या जो अब आने वाली है वह है ऐसी शादियों से पैदा हुईं संतानों की। वे किस देश के नागरिक कहे जायेंगे। समझौते के समय इस पर विचार जरूरी है वरना भारी कठिनाइयां होंगी। लेकिन चूंकि भारत और बंगलादेश में बांधव सरकार है और पश्चिम बंगाल सरकार के रुख भी सकारात्मक हैं तो उम्मीद की जाती है कि कोई भी गुत्थी आसानी से सुलझ जाएगी। बंगलादेश सरकार चाहती है कि ढाका कोलकाता ट्रेन सेवा को अजमेर शरीफ तक बढ़ाया जाय ताकि बंगलादेशियों को सूफी की दरगाह तक जाने में कठिनाई ना हो। यहां एक सवाल है कि चाहे वह रेल सम्पर्क हो या जमीनी सरहद बिना पश्चिम बंगाल के सहयोग के कुछ होने वाला नहीं है। अतएव उम्मीद है कि प्रधानमंत्री के साथ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री भी ढाका जाएंगी। वैसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और बंगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजिद दोनों बंगाल की समस्याओं पर लगातार सम्पर्क में रह रहे हैं। दोनों देशों के बीच और भी कई मसले हैं, जैसे भारत चाहता है कि वह भूटान और नेपाल तक रेल लाइनें बिछाये। इसके लिये भी उसे बंगलादेश की सहायता चाहिए। वैसे दोनों देशों के लिये यह मित्रता का सबसे उपयोगी समय है और इससे समग्र रूप से दक्षिण एशियाई क्षेत्र को भी लाभ होगा।
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