भारत में बेरोजगारों की बड़ी तादाद है। सब इन बेरोजगारों को रोजगार दिलाने के लिये दिन रात नये अवसरों की तलाश में रहते हैं। अब इस देश में एक नया धंधा और उपज गया। ऐसा धंधा जिसमें न पढऩे लिखने की जरूरत है न किसी ट्रेनिंग की। बस सियासत में शामिल हो जाइये और गाली गलौज देते सुनते, बस किसी तरह धक्का मुक्की कर इस स्तर पर जा पहुंचें, जहां से सांसद हो सकें और उसके बाद चांदी ही चांदी है। यह फिलहाल देश का सर्वोत्तम रोजगार है। बेहतरीन वेतन, भत्ते और काम कुछ भी नहीं। हाल में सांसदों का जो वेतन बढ़ा उसके बाद तो यह देश का सबसे अच्छा रोजगार बन गया है।
सांसदों के वेतन बढऩे या उसके लिये उनकी जोरदार मांग से किसी को कोई परेशानी या ईर्ष्या नहीं है लेकिन उनका यह कहना कि उन्हें जजों अथवा सचिवों के बराबर वेतन मिलना चाहिये इस बात पर बहस की गुंजाइश है।
सबसे पहले तो उनके कथन का अगला हिस्सा हो सकता है कि यदि वे सचिवों और जजों के बराबर वेतन मांगते हैं तो उनकी आय पर उसी तरह टैक्स लगना चाहिये, जैसा अन्य लोगों को लगता है। इन्हें टैक्स से छूट दिये जाने के पीछे दलील है कि आई ए एस या अन्य नौकरियां एक पेशा हैं जबकि सांसद का होना राष्ट्र की सेवा है। एक सांसद किसी भी पेशे का हो सकता है। वह डॉक्टर हो सकता है, वकील हो सकता है या इंजीनियर हो सकता है लेकिन वह इन धंधों को त्याग कर इसमें आता है ताकि देश को सुशासन में सहायता कर सके। चूंकि सांसद की सेवाएं प्रतिबद्धता के स्तर तक होती हैं और इसलिये उन्हें अपने पेशों को छोडऩे पर मजबूर होना पड़ता है। इसलिये उन्हें टैक्स में छूट दी जाती है।
अभी सांसदों का जो वेतन बढ़ा है उसकी एक मोटी गणना के अनुसार हर सांसद को एक साल में लगभग 21.8 लाख रुपया मिलेगा। इसमें सुविधाएं जैसे मुफ्त यात्रा और नाममात्र के शुल्क पर दिल्ली के लुटियन इलाके में आवास तथा अनुमान से ज्यादा अन्य भत्ते और सुविधाएं। इन सबको यदि जोड़ दिया जाय तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि एक सांसद को साल भर में लगभग 55- 60 लाख रुपये मिलते हैं और यह सब रकम एकदम टैक्स फ्री। यह सरकार को होने वाला एक तरह से घाटा है और यदि इसका भी बोझ सरकारी खजाने पर जोड़ दिया जाय तो एक एम पी को कुल मिला कर साल भर में लगभग एक करोड़ रुपये मिलते हैं।
देश सेवा के लिये इतनी बड़ी रकम। अब संसद में उनके आचरण को देखकर या अखबारों में उनके चरित्र के बारे में बढ़ कर पूछा जा सकता है कि ये देश की क्या सेवा करते हैं। अब इसे देख कर तो लगता है कि हर आदमी सियासत में शामिल हो जाए। आम आदमी इसे पेशे के रूप में देख सकता है। वह जमाना चला गया जब राजनीति त्याग और देश सेवा कही जा सकती थी। अब तो यह धंधा हो गया है और हर धंधे की तरह इसे भी टैक्स के दायरे में ले आना चाहिये। वेतन में ताजा वृद्धि के बाद सांसदों को बहुत मोटी रकम मिलने लगेगी और वह रकम भुखमरी का शिकार हो रही जनता के हिस्से की रोटी छीनकर इकट्ठी की जाती है। अतएव उन्हें आम लोगों की तरह ज्यादा जिम्मेदार होना चाहिये।
Tuesday, August 24, 2010
एक कमाऊ धंधा
Posted by pandeyhariram at 3:36 AM
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